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अपनी आदत के अनुसार कांग्रेस ने चुनावों के बीच नकद सब्सिडी हस्तांतरण की घोषणा कर एक बार फिर लोकतांत्रिक मान्यताओं को तार-तार कर दिया है। केंद्रीय मंत्रियों पी. चिदंबरम और जयराम रमेश द्वारा गुजरात चुनावों से कुछ सप्ताह पहले ही इस योजना की घोषणा से इंदिरा गांधी के काल में कांग्रेस द्वारा आयोजित ऋण मेलों की याद ताजा हो गई। 1970 के दशक के उन दिनों के बाद से कांग्रेस ने अपनी चुनावी सफलता के लिए सार्वजनिक राशि के दुरुपयोग की कला में महारत हासिल कर ली है। दोनों केंद्रीय नेताओं की घोषणा से स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस सरकारी फैसलों से वोट दुहने को प्रतिबद्ध है। नकद सब्सिडी योजना पर जयराम रमेश ने नारा दिया-आपका पैसा, आपके हाथ। वास्तविकता यह है कि यहां हाथ से तात्पर्य कांग्रेस पार्टी के चुनावचिह्न से है। इस प्रकार की बड़ी योजना की घोषणा ऐसे समय में कैसे की जा सकती है जब हिमाचल प्रदेश और गुजरात में चुनावों के मद्देनजर आदर्श चुनाव संहिता लागू कर दी गई है।
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राजनीतिक दलों के मार्गदर्शन के लिए चुनाव आयोग द्वारा तैयार आदर्श चुनाव संहिता को पढ़ने से यह साफ हो जाता है कि सरकार की घोषणा का समय निश्चित तौर पर आपत्तिजनक था। इस संहिता के सातवें भाग में उल्लेख है कि सत्तारूढ़ पार्टी को कोई भी ऐसा काम नहीं करना है जिससे शिकायत की जा सके कि चुनाव अभियान में लाभ उठाने के उद्देश्य से उसने अपनी हैसियत का दुरुपयोग किया है। यह चुनावों की घोषणा के बाद मंत्रियों को अनुदान या भुगतान करने या घोषणा करने से भी रोकता है। साथ ही चुनाव की घोषणा के बाद विकास कार्यो संबंधी घोषणाओं तथा योजनाओं का शिलान्यास भी नहीं किया जा सकता। इस प्रकार जब आदर्श चुनाव संहिता चुनाव के दौरान सत्तारूढ़ दल के नेताओं द्वारा सरकारी वाहन और अधिकारी-कर्मचारी आदि के इस्तेमाल पर भी रोक लगाती है, तब कोई सत्तारूढ़ दल नकद सब्सिडी हस्तांतरण जैसी बड़ी योजना, जिसमें हजारों करोड़ का सार्वजनिक धन इस्तेमाल होगा, की घोषणा चुनाव के बीचोंबीच कैसे कर सकता है? दुर्भाग्य से इस संबंध में चुनाव आयोग का रवैया बेहद निराशाजनक रहा। कभी चुनाव के दौरान सरकारी भवन में पोस्टर रखे जाने मात्र पर अन्नाद्रमुक को मान्यता रद करने का नोटिस जारी करने वाला चुनाव आयोग नकद सब्सिडी जैसी वृहत योजना पर महज नाखुशी जाहिर कर संतुष्ट हो गया। चुनाव आयोग का यह कहना बेमानी है कि गुजरात चुनाव संपन्न होने के बाद योजना लागू की जा सकती थी। खुद सरकार ने घोषणा की है कि यह योजना 1 जनवरी, 2013 से लागू होगी और तब तक गुजरात चुनाव संपन्न हो चुके होंगे।
कांग्रेस द्वारा आचार संहिता के उल्लंघन पर चुनाव आयोग ने इतना ठंडा रुख क्यों अपनाया? क्या आयोग का कोप केवल छोटे दलों के लिए ही आरक्षित है? क्या इसी तरह आयोग सभी दलों को बराबरी का मैदान उपलब्ध कराता है? आचार संहिता के अलावा भी चुनाव आयोग ने संहिता के जरा भी उल्लंघन पर मंत्रियों और सांसदों की खिंचाई करते हुए आदेश जारी किए हैं। ऐसे सभी मामलों में आयोग ने चुनावी मैदान में बराबरी के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। आयोग ने यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया है कि चुनाव में तमाम राजनीतिक दलों को स्वतंत्र और निष्पक्ष मौके मिलें। उदाहरण के लिए, 5 अप्रैल, 2006 को मीडिया ने तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह की घोषणा को प्रकाशित-प्रसारित किया कि सरकार ने सहायता प्राप्त उच्च शिक्षण संस्थानों, जैसे आइआइटी, आइआइएम और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में सन 2006-07 से अन्य पिछड़ा वर्गो को 27 फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया है। शिकायत मिलने पर चुनाव आयोग ने कहा कि प्रथम दृष्टया यह घोषणा आदर्श चुनाव संहिता का उल्लंघन है, जो असम, केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल तथा पुडुचेरी में विधानसभा चुनावों के संदर्भ में एक मार्च, 2006 को लागू हुई थी।
आयोग ने यह भी कहा कि चुनाव आचार संहिता के अनुपालन के संदर्भ में सत्तारूढ़ दलों तथा इसके सदस्यों की न केवल अधिक जिम्मेदारी है, बल्कि ऐसा करते हुए वे नजर भी आने चाहिए। इससे पहले, 1 मई, 2004 को पुडुचेरी के एक सरकारी भवन का इस्तेमाल चुनावी पोस्टर व बैनर आदि रखने में किए जाने पर चुनाव आयोग ने अन्नाद्रमुक को नोटिस जारी किया कि एक राजनीतिक पार्टी के रूप में उसकी मान्यता क्यों न रद कर दी जाए। इस मामले में आयोग ने चुनाव चिह्न (आरक्षण एवं आवंटन) आदेश, 1968 की धारा 16ए का हवाला दिया, जो आयोग के कानून सम्मत आदेशों व निर्देशों की अवहेलना करने वाले दल की मान्यता स्थगित रखने या फिर रद करने का अधिकार चुनाव आयोग को देती है। आदर्श चुनाव संहिता और चुनाव आयोगों के आदेशों को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि चुनावों के बीच नकद सब्सिडी हस्तांतरण की घोषणा चुनाव संहिता का उल्लंघन है। भाजपा की औपचारिक शिकायत पर चुनाव आयोग के नोटिस के जवाब में सरकार ने सफाई दी कि यह पूर्व में घोषित पुरानी नीति की घोषणा है। इसके लाभार्थियों को विभिन्न योजनाओं के तहत पहले से मिल रहे लाभों से अतिरिक्त लाभ नहीं मिलेगा और यह योजना 1 जनवरी, 2013 से लागू होगी, किंतु यह सफाई चिदंबरम और रमेश के उस दावे से मेल नहीं खाती कि यह योजना गेग चेंजर (बाजी पलटने वाली) है। सरकार की यह दलील भी बेमानी है कि योजना गुजरात चुनावों के बाद लागू की जाएगी, क्योंकि इस योजना की चुनाव की तारीख से कुछ सप्ताह पहले घोषणा द्वारा सरकार ने मतदाताओं को लुभाने का प्रयास किया है।
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हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सरकारी योजनाओं को भारत की जनता को अपनी ओर से भेंट के रूप में प्रस्तुत करना नेहरू-गांधी परिवार की पुरानी आदत है। नकद सब्सिडी योजना भी ऐसी ही योजना है जिसे कांग्रेस पार्टी और इसके प्रथम परिवार की भेंट के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। यह निजी राजनीतिक लाभ के लिए सार्वजनिक धन के दुरुपयोग के अलावा कुछ नहीं है। सातवें दशक में इंदिरा गांधी के ऋण मेलों में चुन-चुनकर कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को उपकृत किया गया था। इस प्रकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का पैसा वोट हथियाने के लिए लुटा दिया गया। सार्वजनिक धन से चलने वाले कार्यक्रमों को एक पार्टी या एक परिवार की भेंट के रूप में प्रस्तुत करना हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों के हित में नहीं है और इस पर रोक लगनी चाहिए। चूंकि कांग्रेस पार्टी का चुनाव चिह्न हाथ है इसलिए चुनाव आयोग को सरकार को किसी भी योजना के प्रचार में आपका पैसा आपके हाथ जैसे नारों के इस्तेमाल पर रोक लगा देनी चाहिए।
लेखक ए. सूर्यप्रकाश वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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