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राजनीति का नाजुक दौर

जागरण मेहमान कोना
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swapan guptaरिटेल में एफडीआइ के मुद्दे पर संसद में बहस के दो पहलू हैं। पहला यह कि क्या संप्रग सरकार को संसद में बहुमत हासिल है? तृणमूल कांग्रेस द्वारा सरकार से समर्थन वापस ले लेने के बाद अल्पमत में पहुंच गई सरकार ने क्या कार्यकारी बहुमत जुटा लिया है? दूसरा पहलू भारत में वॉलमार्ट और टेस्को जैसी बड़ी कंपनियों को अपने स्टोर खोलने देने की इच्छा या फिर चेतावनी से संबद्ध था। दोनों ही मुद्दों पर सरकार ने लोकसभा व राज्यसभा में जीत हासिल की। भाजपा, वाम दल और तृणमूल कांग्रेस के इस दावे में दम हो सकता है कि उन्होंने सरकार के बहुमत के दावे को खोखला सिद्ध कर दिया है। उनका यह कहना भी सही हो सकता है कि अगर मुलायम सिंह और मायावती राजनीतिक चालबाजी न दिखाते तो संसद औपचारिक रूप से शहरी क्षेत्रों के वॉलमार्टीकरण को खारिज कर देती। संसद में मतदान का नतीजा जरूर उनके लिए दुर्भाग्यपूर्ण रहा। इस मुद्दे पर सरकार ने स्पष्ट तौर पर दिखा दिया है कि उसके पास अब भी कामचलाऊ बहुमत जुटाने के राजनीतिक साधन मौजूद हैं। यह सही है कि मतदान ने सरकार की कमजोरी भी उजागर कर दी है, किंतु एक तरह से इसने यह भी प्रदर्शित कर दिया है कि भारत के सबसे बड़े राज्य में राजनीतिक तापमान नाजुक है और दोनों बड़ी क्षेत्रीय पार्टियां जल्द चुनाव के पक्ष में नहीं हैं।


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मायावती और मुलायम में से कोई एक देरसबेर यह जान जाएगा कि संप्रग का साथ बड़ा बोझ बन गया है और अब जनता के पास जाने में ही भलाई है। उस दिन संप्रग के पास फिर से जनादेश प्राप्त करने के अलावा कोई चारा नहीं बचेगा। जब तक ऐसा नहीं होता, सरकार सुरक्षित है। मुश्किल सौदेबाजियों को अंजाम देने की कांग्रेस की क्षमता उसे प्रशंसा के साथ-साथ मखौल का पात्र भी बना सकती है, पर जो लोग यह मान कर चल रहे हैं कि संसद में मतदान पर जोर देकर विपक्ष ने आत्मघाती गोल कर लिया है उन्हें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि लोकतंत्र की सेहत के लिए बहस बहुत अच्छी खुराक है। बिना मतदान वाले प्रस्ताव में भी इतनी ही अच्छी बहस हो सकती थी और मुद्दे की गहन पड़ताल संभव थी, किंतु मतदान वाली बहस को लेकर जो रोमांच और उत्साह पैदा हुआ तथा मायावती व मुलायम का दोहरा आचरण उजागर हुआ वह बिना मतदान वाली बहस में संभव नहीं था।


देश के दूरदराज के इलाकों में भी लोगों ने टीवी के सामने बैठकर इस बहस को शिक्षा तथा मनोरंजन, दोनों रूपों में देखा। सांसद केवल अपने संसदीय साथियों के साथ ही चर्चा नहीं कर रहे थे, बल्कि वे राष्ट्रीय सभा को संबोधित कर रहे थे। इससे स्पष्ट हो जाता है कि हिंदी क्यों संचार की भाषा के रूप में पसंद की जाती है? जिन्हें इतिहास की जरा भी समझ है वे जानते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी के कद और स्वीकार्यता में जबरदस्त बढ़ोतरी तब देखने को मिली जब 1996 में 13 दिन की सरकार के बाद प्रधानमंत्री के तौर पर उन्होंने लोकसभा को संबोधित किया था। असल में, मैं तो यहां तक कहूंगा कि अयोध्या में विवादित ढांचे के विध्वंस के बाद अछूत मान ली गई भाजपा की अस्पृश्यता संसद में अटल बिहारी वाजपेयी के उस एक सद्भावना भाषण के कारण ही खत्म हुई थी। वाजपेयी के इस संबोधन का देश में पहली बार सीधा प्रसारण हुआ था। बिना यह कहे कि पिछले सप्ताह संसद में अटल बिहारी वाजपेयी के संबोधन जैसी प्रभावोत्पादकता थी, मैं यह जरूर कहूंगा कि मतदान में हार का भाजपा को जरा भी अफसोस नहीं होना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि मेरा आकलन व्यक्तिपरक है। ऐसे भी बहुत से लोग हैं जिन्हें लगता है कि कपिल सिब्बल और आनंद शर्मा नई, सुधारवादी, बाजारवादी कांग्रेस की उज्ज्वल छवि पेश करने में सफल रहे। असल में, पिछले सप्ताह कांग्रेस नेताओं की दलीलों के साथ यह दावा जुड़ा हुआ नजर आया कि रिटेल पर एफडीआइ की संसदीय बहस से एक नया मोड़ सामने आया है और अब संप्रग-3 का चुनाव अपरिहार्य है। किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले एक सुनिश्चित चेतावनी भरे संकेतक पर गौर फरमाना जरूरी है।


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पहला, इस बात की पूरी संभावना है कि अगले 12 महीनों में वॉलमार्ट और टेस्को के स्तर पर बहुत कम गतिविधियां देखने को मिलें। न तो बड़े सुपर मार्केट शहरों में नजर आएंगे और न ही छोटी किराना दुकानों का धंधा चौपट हो जाएगा। मेरा मानना है कि वैश्विक निवेशकों को संकेत दे देने के बाद संप्रग सरकार अब अगले आम चुनाव से पहले रिटेल कारोबार में एफडीआइ के विचार को मूर्त रूप प्रदान करने के बजाय परियोजनाओं में देरी से ही संतुष्ट रहेगी। हरियाणा जैसे कुछ राज्यों में जरूर इस दिशा में तेजी देखने को मिल सकती है, किंतु कुल मिलाकर यहां तक कि आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और दिल्ली जैसे कांग्रेसनीत राज्य भी इस दिशा में बड़ा संभल कर कदम उठाएंगे। कांग्रेस कोई भी ऐसा कदम उठाने से हिचकेगी जिससे छोटे दुकानदारों में बड़े पैमाने पर असंतोष फैले और समाज में अशांति पैदा हो। फिर भी, कांग्रेस एक मुद्दे पर जरूर संतुष्ट हो सकती है। करीब पांच साल तक सुधारों का ढोल पीटने के बाद आखिर अचानक उसने बड़ा सुधार खोज ही लिया है। अतीत से संकेत मिल सकते हैं कि इस प्रकार की खोज के कितने घातक दुष्परिणाम हो सकते हैं। 2004 में राजग सरकार का इंडिया शाइनिंग अभियान, चंद्रबाबू नायडू की करारी हार और पश्चिम बंगाल में वाम दुर्ग का विध्वंस इतिहास के कुछ सीख देने वाले उदाहरण हैं। हालांकि एक सच्चाई यह भी है कि अतीत हमेशा भविष्य का मार्गदर्शक नहीं होता। अगले आम चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन इस बात पर निर्भर करेगा कि भाजपा की प्रतिक्रिया कैसी रहती है। भाजपा की एक चौंकाने वाली प्रवृत्ति यह है कि यह अर्थव्यवस्था के तमाम अंगों में परंपरावाद की पक्षधर है। यह राजनीतिक रूप से खतरनाक है, क्योंकि इससे आभास होता है कि वह यथास्थिति बनाए रखना चाहती है। अगर भाजपा खुद को कांग्रेस की अक्षमता की रक्षक के रूप में पेश करेगी तो वह खुदकुशी की राह पर ही चलेगी। कांग्रेस खुद को परिवर्तन की पैरोकार के रूप में पेश कर रही है। विपक्ष को इस मुद्दे पर गहन मंथन करना चाहिए।



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लेखक स्वप्न दासगुप्ता वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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