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नरेंद्र मोदी तीसरी बार गुजरात के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे। यह किसी भी राज्य के विधानसभा का पहला चुनाव है, जिसमें इस बात की कोई चर्चा नहीं हुई कि कौन जीतेगा? चर्चा थी तो सिर्फ इतनी कि सीटों की संख्या पहले से ज्यादा होगी या कम। विधानसभा का यह पहला चुनाव है जिसमें मुख्यमंत्री से ज्यादा उसकी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की चर्चा हुई। गुजरात विधानसभा के चुनाव के दौरान लोगों को मोदी के दिल्ली आने की आहट सुनाई दे रही थी। गुजरात में मोदी की हैट्रिक से ज्यादा उत्सुकता इस बात की है कि क्या भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाएगी? मोदी के विरोधी पार्टी के बाहर तो हैं ही, अंदर भी हैं। पर मोदी को दिल्ली आने से सिर्फ मोदी रोक सकते हैं या अदालत।
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मोदी की लोकप्रियता और ऐसी छवि बनाने में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की भूमिका कम नहीं है। नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय परिदृश्य पर लाने का काम उनकी पार्टी ने नहीं किया। इसका श्रेय उनके राजनीतिक और गैर-राजनीतिक विरोधियों को जाता है। उनकी पार्टी के नेताओं का इतना योगदान जरूर है कि अटल बिहारी वाजपेयी के सक्रिय राजनीति से हटने के बाद उन्होंने उस जगह को खाली रखा। वाजपेयी के बाद पार्टी में दूसरे नंबर के नेता लालकृष्ण आडवाणी अपनी पाकिस्तान की यात्रा में जिन्ना के मामले में बुरी तरह घिर गए। पार्टी में प्रधानमंत्री पद के बाकी दावेदार एक-दूसरे को निपटाने में इतने मशगूल रहे कि अपने गृह प्रदेश में अपने लिए लोकसभा की एक सीट तक नहीं खोज पाए। जो कसर बची थी वह सरसंघ चालक ने दिल्ली में दरबार लगाकर सार्वजनिक रूप से इन नेताओं को पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए अयोग्य घोषित करके पूरी कर दी। मोदी के लिए 2004 से ही मैदान खाली है। ताकतवर मोदी अपने दुश्मनों ही नहीं दोस्तों के लिए भी चिंता का कारण हैं। सबसे ज्यादा परेशान संघ के लोग होंगे, जो मोदी को जितना ही काबू में रखना चाहते हैं वह उतना ही उनके शिकंजे से आजाद होते जाते हैं।
इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहेंगे कि कांग्रेस और आरएसएस, दोनों चाहते थे कि मोदी थोड़ा तो कमजोर हों। सौराष्ट्र में केशूभाई पटेल, संघ और कांग्रेस मिलकर मोदी के विरोध में काम कर रहे थे। कांग्रेस केशूभाई पटेल और गैर सरकारी संगठनों के भरोसे मोदी से लड़ रही थी। गुजरात चुनाव के नतीजे से एक बात साफ हो गई कि विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ा और जीता जा सकता है। इस बार चुनाव में कोई भावनात्मक मुद्दा नहीं था। 2002 के दंगों की चर्चा न तो सांप्रदायिक माने जाने वाले नरेंद्र मोदी ने की और न ही पंथनिरपेक्षता की अलंबरदार कांग्रेस ने। गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद अब नरेंद्र मोदी के दिल्ली आने की चर्चा तेज हो जाएगी। चुनाव नतीजे संघ के मनमाफिक नहीं हैं। संघ दिल्ली में एक कमजोर मोदी को देखना चाहता था। इन नतीजों के बाद संघ को मोदी से संबंधों पर नए सिरे से विचार करना पड़ेगा। भाजपा के अंदर समीकरण बदलेंगे और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में भी समीकरण बदलेंगे। क्या नीतीश कुमार राष्ट्रीय राजनीति में मोदी की भूमिका स्वीकार कर पाएंगे? उससे भी पहले यह तय होना है कि क्या भाजपा मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करेगी? तय नितिन गडकरी के दूसरे कार्यकाल का मसला भी होना है। हिमाचल के चुनाव नतीजे भाजपा के लिए बड़ा झटका है, लेकिन उन्हीं के लिए जो जमीनी वास्तविकता देखने को तैयार नहीं थे। हिमाचल की जीत का कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा सबक यह है कि राज्य में लोकप्रिय और जनाधार वाले नेता का कोई विकल्प नहीं है।
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हिमाचल में भाजपा की हार से पार्टी के 2014 के लोकसभा चुनाव की तैयारी को फौरी तौर पर झटका लगा है। कांग्रेस के लिए हिमाचल की जीत सांत्वना पुरस्कार की तरह है। अब अगली लड़ाई कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और दिल्ली के विधानसभा चुनाव में होगी, लेकिन इन सब मुकाबलों से बड़े मुकाबले की चर्चा अब जोर पकड़ेगी। क्या कांग्रेस राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करेगी? क्योंकि लोकसभा चुनाव से पहले अब जिन राज्यों में चुनाव होने हैं वहां मुकाबला कांग्रेस भाजपा के बीच है। भाजपा प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का फैसला ज्यादा समय तक टाल नहीं सकती। या कहें कि नरेंद्र मोदी को गांधी नगर तक ज्यादा समय तक सीमित रखना अब भाजपा के लिए संभव नहीं है, पर सबसे बड़ा सवाल है कि क्या मोदी बदलेंगे, क्योंकि दिल्ली गुजरात नहीं है। दिल्ली में उन्हें अपनी एक नई छवि भी गढ़नी होगी कि वे समाज के सारे तबकों को साथ लेकर चल सकते हैं, पार्टी को साथ लेकर चल सकते हैं और राजग का विस्तार कर सकते हैं। गुजरात में मोदी की जीत देश के दूसरे राज्यों के मुस्लिम मतदाताओं को भाजपा के बारे में अपनी पुरानी राय पर पुनर्विचार के लिए प्रेरित कर सकती है। नरेंद्र मोदी का दिल्ली आना कांग्रेस के लिए बड़ा सिरदर्द बनने वाला है, क्योंकि राहुल गांधी का मुकाबला अब नरेंद्र मोदी से होने वाला है। एक जो जिम्मेदारी लेकर अपने को साबित कर चुका है दूसरा अभी तक जिम्मेदारी से बचता रहा है।
लेखक प्रदीप सिंह वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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