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गुजरात में नरेंद्र मोदी ने तीसरी बार शानदार जनादेश लेकर यह साबित कर दिया है कि अगर लक्ष्य स्पष्ट हो, साधन ठीक हों तो विजय चरण चूमती ही है। गुजरात के इन विधानसभा चुनावों में न तो 2002 के दंगों की टीस बची थी, न ही हिंदुत्व की प्रयोगशाला कहे जाने वाले गुजरात में सांप्रदायिकता जैसा कोई भावनात्मक मुद्दा ही था। मोदी ने विकास की जो रेखा खींची और गुजराती अस्मिता को जगाया उससे राज्य की जनता को लगा कि वह मुख्यमंत्री नहीं, बल्कि देश का भावी प्रधानमंत्री चुनने जा रही है। मोदी पूरे चुनाव में वास्तव में विपक्षियों से नहीं, बल्कि इन्हीं अपेक्षाओं या अपनी खींची हुई रेखा से लड़ रहे थे। गुजरात प्रदेश के जन्म के बाद से सर्वाधिक लंबे समय तक मुख्यमंत्री बने रहने का रिकार्ड तो उनके नाम पहले ही हो चुका था, लेकिन अब सबसे ज्यादा बार जीतने का ताज भी उनके सिर है। मोदी की सीटों की संख्या को लेकर राजनीतिक पंडित या प्रेक्षक चाहे जो भी अनुमान लगा रहे हों, लेकिन खुद उन्होंने कभी इसे बहुत तूल नहीं दिया। गुजरात चुनाव कवरेज के दौरान मैंने बार-बार मोदी से सीटों की संख्या पर लग रहे अनुमानों पर पूछा तो हर बार उनका जवाब यही था कि आगे बढ़ेंगे।
चारों तरफ से चल रही विरोधी हवाओं के बीच भी मोदी के इस आत्मविश्वास की जमीन कितनी मजबूत थी, इसका सुबूत नतीजों ने भी दे दिया। लिहाजा गुजरात के ताजा जनादेश के तूफानी तेवर तीसरी बार भी बरकरार हैं। इसमें चकाचौंध की चमक केवल इसलिए कम है, क्योंकि हमारी आंखें मोदी से ऐसे चमत्कार देखने की आदी हो चुकी हैं। पिछले दो चुनाव से बिल्कुल अलग इस बार उनके पास भावनात्मक रूप से उकसाने वाला कोई मुद्दा नहीं था। 2007 के चुनाव में उन्होंने आधे से ज्यादा विधायकों को बदलने का जोखिम भी लिया था, लेकिन इस बार भितरघात के भय से उन्हें भी अपनी राजनीतिक शैली, साहस की जगह संयम को महत्व देना पड़ा। इसी बदली राजनीतिक शैली के चलते उन्होंने भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को पहले की तुलना में थोड़ा महत्व भी दिया। वोटिंग मशीन से निकले नतीजे के तुरंत बाद इस समय यह सोचना थोड़ा मुश्किल लग रहा है कि गुजरात के सत्ता शिखर में खड़े रहने के लिए मोदी को भी तमाम बाधाओं का सामना करना पड़ा है। इस बार मोदी के सामने दो नई चुनौतियां थीं। केशू बापा एक अलग पार्टी के नेता के तौर पर सामने थे। वे कम से कम सौराष्ट्र में भाजपा का भविष्य खराब कर सकते थे, और इसके लिए उन्हें बहुत बड़े समर्थन की जरूरत भी नहीं थी। कल्याण सिंह बहुत कम समर्थन पाकर भी उत्तर प्रदेश में भाजपा का बहुत बड़ा नुकसान कर चुके हैं।
मोदी को दूसरी बड़ी चुनौती कांग्रेस की बदली हुई रणनीति से मिल रही थी। केंद्र के कांग्रेसी शासन में तमाम काले धब्बे भले ही हों, लेकिन इस बार गुजरात चुनाव की कांग्रेसी रणनीति काफी समझदारी भरी दिखी। पिछले चुनाव में मौत का सौदागर वाली घातक गलती से सबक लेकर इस बार कांग्रेस ने सांप्रदायिकता के सवाल को ही समाप्त कर दिया था। इसी राजनीति की वजह से ही शायद कांग्रेस ने पिछली बार की तुलना में इस बार एक तिहाई से भी कम अल्पसंख्यक उम्मीदवार मैदान में उतारे थे। उसके घोषणापत्र में गुजरात दंगों का जिक्र तक नहीं था। कांग्रेस ने मोदी को हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के मुद्दे पर घेरने से पूरी तरह परहेज किया। मोदी ने सर क्रीक और मियां अहमद पटेल का जिक्र जरूर किया, लेकिन उसकी धार, उनके आक्रमण पिछली बार की तरह तेज नहीं थे। प्रधानमंत्री की एक सभा के कुछ अंशों को मोदी ने उठाकर कांग्रेस को इस मैदान में लाने की कोशिश जरूर की, लेकिन कांग्रेस इस बहकावे में नहीं आई। संभवत: काग्रेस पर दबाव इतना था कि पूरे केंद्रीय नेतृत्व ने अभियान में मोदी का नाम तक लेने में कंजूसी बरती। भारत के इतिहास में शायद पहली बार ऐसा हुआ है कि एक प्रादेशिक आम चुनाव के पूरे प्रचार अभियान में कांग्रेस के पोस्टरों से पूरा नेहरू-गांधी परिवार और यहां तक कि पूरा केंद्रीय नेतृत्व गायब था। केंद्रीय नेतृत्व ने गुजरात जाकर प्रचार की केवल खानापूरी ही की।
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कांग्रेस की कोशिश थी कि पूरे चुनाव में उपकेंद्रीय मुद्दे हावी रहें जिससे निपटने में शंकर सिंह वाघेला, अर्जुन मोडवाडिया और शक्ति सिंह गोहिल जैसे नेता ही समर्थ रहें। निर्णायक रूप से पराजित होने के बावजूद कांग्रेस की रणनीति में कोई बड़ी गलती नहीं दिखी, लेकिन मोदी के सामने कोई कद्दावर नेतृत्व न होना उन्हें भारी पड़ा। जाहिर है कि केवल अच्छी रणनीति से ही मोदी को हराना नामुमकिन है। कांग्रेस ने मोदी के गुजरात के विकास के दावे में दरार पैदा करने की कोशिश जरूर की, लेकिन जनता ने उसे स्वीकार नहीं किया। गुजरात के विकास की वास्तविकता पर अब कोई बड़ी बहस संभव नहीं है। इस नए जनादेश की सकारात्मक व्याख्या यह हो सकती है कि गुजरात की जनता ने बची-खुची कुछ राजनीतिक समस्याओं को नकारा नहीं है, बल्कि यह माना है कि मोदी ही विकास की इन कमजोरियों को दूर कर सकते हैं। भावनात्मक मुद्दों के भाव और एक दशक से अधिक एकछत्र शासन के बाद भी मोदी की शानदार सफलता उनके सुशासन की प्रामाणिक पुष्टि भी करती है। राजनीतिक दांवपेंचों की आड़ में इस सकारात्मक संदेश को छिपाया नहीं जा सकता। हकीकत यह है कि मोदी ने गुजराती मानस के भिन्न वर्गो के साथ ही कहीं न कहीं समग्र गुजराती समुदाय को अपने शासन से संतोष दिया है। मोदी की जिस कार्यशैली में उनके विरोधियों में तानाशाही दिखती है, गुजराती मानस उसमें दृढ़त, स्पष्टता और प्रतिबद्धता देखता है। पूरे गुजरात में घूमने के बाद मुझे कई बार ऐसा लगा कि एक आम गुजराती मोदी की विशिष्ट कार्यप्रणाली को ठीक मानता है। आम धारणा है कि मोदी सबको कम समय देते हैं, लेकिन वह उपलब्ध तो हैं। इतना ही नहीं समय देने के पहले संबंधित मसले की फाइल को पूरी तरह समझ लेते हैं। तुरंत निर्णय लेते हैं और उसे समयबद्ध ढंग से लागू करते हैं। यहां तक कि कई गुजराती मुस्लिम नेता भी इस सच्चाई को सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर चुके हैं।
मोदी का विकास अभियान अभी अधूरा हो सकता है, लेकिन विधि व्यवस्था के मामले में उनकी उपलब्धियों को विवाद का विषय नहीं बनाया जा सकता। सच्चाई यह है कि कांग्रेसी सरकारों के समय गुजरात सांप्रदायिक ही नहीं जातिवादी दंगों से भी त्रस्त हो चुका था। नव निर्माण आंदोलन का विस्फोट भी यहीं हुआ था। व्यापार और उद्योग का केंद्र होने के नाते गुजरात के लिए कफ्र्यू रहित जीवन की अहमियत बहुत होती है। इसके अलावा मोदी ने अपने प्रदेश के हर क्षेत्र और हर वर्ग को आशा का एक नया आधार भी दिया है। मसलन इस चुनाव में मोदी ने युवाओं और महिलाओं में अपनी विशेष लोकप्रियता को सिद्ध किया है। पूरे भारत में भाजपा के पारंपरिक मतदाताओं के बीच मोदी सबसे लोकप्रिय है। यदि यह कहा जाए कि अखिल भारतीय पहचान वाले वह एकमात्र मुख्यमंत्री हैं तो गलत नहीं है। गुजरात के जनादेश ने भाजपा की केंद्रीय राजनीति में मोदी के महत्व को मान लिया है। लोकतांत्रिक राजनीति में किसी भी नेता की यह सबसे बड़ी पूंजी होती है। और इस जनादेश ने मोदी को इस पूंजी का मालिक बना दिया है।
लेखक प्रशांत मिश्र दैनिक जागरण के राजनीतिक संपादक हैं
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