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दलितों के कल्याण की राह

जागरण मेहमान कोना
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केंद्र सरकार में सचिव स्तर पर अनुसूचित जाति के अफसरों की संख्या नगण्य है। इस विसंगति को दूर करने के लिए सरकार ने सरकारी नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण देने का निर्णय लिया है। इस आरक्षण से ऊंचे पदों पर अनुसूचित जाति के कर्मियों की पैठ बनने की पूरी संभावना है। विषय है कि इससे आम दलित की समस्या का हल होगा कि नहीं? इस संबंध में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय को समझना चाहिए। यूनिवर्सिटी आफ मिशिगन द्वारा अश्वेतों, हिस्पैनिकों एवं रेड इंडियनों को प्रवेश में 20 अंक दिए जा रहे थे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पिछड़े वर्ग को सुविधा देना उचित है, परंतु सभी व्यक्तियों को किसी कोरे फार्मूले के अंतर्गत सुविधा नहीं दी जा सकती है। कोर्ट ने कहा कि प्रत्येक आवेदक की व्यक्तिगत स्थिति देखते हुए उन्हें सुविधा दी जाए। इस निर्णय का महत्व है कि पिछड़े वर्ग के क्रीमी लेयर के आवेदकों को यह सुविधा नहीं दी जानी चाहिए। महत्व यह भी है कि आरक्षण के स्थान पर अंक दिए जाने चाहिए।


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यदि कटआफ 70 अंक पर है तो 50-69 अंक पाने वाले अश्वेत आवेदक को दाखिला दे दिया जाएगा। 20 अंक देने के बाद भी यदि पर्याप्त संख्या में पिछड़े वर्ग को दाखिला नहीं मिलता है तो इसे स्वीकार किया जाए। आशय है कि एतिहासिक अन्याय को दूर करने के लिए एक सीमा के आगे प्रायश्चित नहीं किया जाता है जैसे किसी ने गाली दे दी तो उसे आजीवन बंधुआ मजदूर नहीं बनाया जाता। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में निर्णय सभी नौ न्यायाधीशों द्वारा दिए जाते हैं, जैसे हमारे सुप्रीम कोर्ट में संविधान बेंच देती है। इस कोर्ट के एकमात्र अश्वेत जज थामस का रुख उग्र था। उन्होंने शैक्षिक संस्थाओं में भी पिछड़े वर्गो को आरक्षण देने का विरोध किया। उनका कहना था कि अश्वेत लोग आरक्षण पर निर्भर होने के कारण कमजोर होते जा रहे हैं। उन्हें केवल बराबर अवसर दिए जाने चाहिए। उन्हें अपने प्रयास से ही आगे बढ़ना चाहिए। पहला निष्कर्ष तो यही है कि पिछड़े वर्गो को प्रोत्साहन शिक्षा में देना श्रेयस्कर है। दो, कोई भी सुविधा इतनी ज्यादा नहीं दी जानी चाहिए कि व्यक्ति सुविधा की बैसाखी पर निर्भर हो जाए। तीसरा निष्कर्ष यह है कि पिछड़े वर्ग के केवल उन्हीं सदस्यों को यह सुविधा दी जानी चाहिए जो इसके अधिकारी हैं। इन सभी बिंदुओं में प्रमोशन में आरक्षण पास नहीं होता है। आरक्षण शिक्षा में न देकर रोजगार में दिया जाना है। पिछड़े वर्गो के कर्मियों को आरक्षण की बैसाखी पर निर्भर बनाया जा रहा है।


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सुविधा क्रीमी लेयर को मिलेगी। एक और समस्या है। मेरे दलित मित्र बताते हैं कि दलित अधिकारियों का दलितों के प्रति रुख ज्यादा ही क्रूर होता है। उनका प्रयास अपने को अपने कुनबे से अलग करके ऊंची जातियों के साथ जोड़ने का होता है। अत: प्रमोशन में आरक्षण असफल है। फिर भी मैं इस प्रस्ताव का समर्थन करता हूं। कारण कि दलित देशवासियों के मन में यह बात बैठ गई है कि उनके कुनबे के प्रति द्वेष रखा जाता है। उनकी यह भावना समाज को विघटन की ओर ले जाएगी। अत: उनकी सोच के खोखलेपन को समझाने के लिए उनकी इस मांग को स्वीकार कर लेना चाहिए जैसे बार-बार जिद करने पर बच्चे की मां उसे गरम दूध पीने देती है। जब जीभ जलती है तो बच्चे को मां के विरोध का रहस्य समझ में आ जाता है। इसी प्रकार दलितों को यह आरक्षण देकर उनका भ्रम दूर कर देना चाहिए। समाज को जोड़े रखना हमारी प्राथमिकता है। भारत पर मुगलों और अंग्रेजों ने विजय इसीलिए पाई थी कि उन्होंने हमारी एकता तोड़ने में कामयाबी पाई थी। ऐसा दोबारा नहीं होने देना चाहिए। शासन की गुणवत्ता में जो Oास होता है उसे बर्दाश्त कर लेना चाहिए। वोट बैंक का आरोप भी स्वीकार नहीं है। वोट बैंक का ही नाम लोकतंत्र है।



हमारा प्रयास होना चाहिए कि दलितों को समझ आ जाए कि आरक्षण से उनके कुनबे का भला नहीं होगा, बल्कि उनके सदस्य ऊपर चढ़कर उन पर ही अत्याचार करेंगे। एक और समस्या सरकारी कर्मचारियों का शोषक चरित्र है। देश के नेता जनविरोधी नीतियों को लागू करने को तत्पर हैं। जल, जंगल और जमीन से गरीब का हित छीना जा रहा है। उसे बीपीएल कार्ड धारक का अपमानजनक दर्जा दिया जा रहा है। नेता और सरकारी कर्मी दलित समेत संपूर्ण जनता को लूट रहे हैं। अगर अनुसूचित जाति के लोग यह सोच रहे हैं कि सरकारी सेवा में शामिल होने के साथ उन्हें इस लूट में शामिल होने का मौका मिल जाएगा तो यह सही चिंतन नहीं है। इन स्थितियों में दलित बुद्धिजीवियों पर विशेष जिम्मेदारी आ जाती है। उनके द्वारा प्रमोशन में आरक्षण को उद्धार का रास्ता बताने पर पूरे दलित समाज का ध्यान मूल समस्या से भटक जाता है। यह विचित्र है कि वे लूट में लगी नौकरशाही के साथ मिल कर अपनों को ही लूटने को दलितों का उद्धार बताने लग जाते हैं। दलितों की मूल समस्या आर्थिक है। आर्थिक स्थिति मजबूत होती है तो व्यक्ति अच्छी शिक्षा और भोजन स्वयं हासिल कर लेता है। उसका दब्बूपन स्वत: ही समाप्त हो जाता है। जरूरत है दलितों के आत्म सम्मान को बढ़ाने की। सुझाव है कि सफल दलितों की जीवनियों को लिखवाने और उनको टेलीविजन में प्रसारित करने का काम हाथ में लेना चाहिए। दूसरे, दलितों के लिए श्रेष्ठतम स्कूल की फीस सरकार के द्वारा भरी जानी चाहिए। इंग्लिश मीडियम के प्राइवेट स्कूल की फीस आजकल 5,000 रुपये प्रतिमाह के लगभग है। यह रकम सरकार के द्वारा दी जानी चाहिए। तीसरे, तमाम जनकल्याणकारी योजनाओं को बंद करके इस राशि को देश के प्रत्येक नागरिक को जीवन के अधिकार के रूप में देना चाहिए। देश के सभी नागरिकों को यह राशि देने से दलितों को भी यह रकम स्वत: मिल जाएगी और उन पर दलित का ठप्पा भी नहीं लगेगा। इन नीतियों को लागू करने के साथ-साथ प्रमोशन में आरक्षण दे देना चाहिए जिससे भ्रम दूर हो तथा भटकाव समाप्त हो जाए।



लेखक भरत झुनझुनवाला आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं


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Tag:केंद्र सरकार, सचिव,आरक्षण,प्रमोशन, नागरिक,सरकारी

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