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आमतौर पर लोग महामना मदन मोहन मालवीय को स्वतंत्रता सेनानी और काशी हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक के रूप में ही ज्यादा जानते हैं, लेकिन उन्होंने एक साहित्यकार, पत्रकार और समाज सुधारक के रूप में समाज को जाग्रत करने का जो कार्य किया, वह अद्वितीय है। मदन मोहन मालवीय जात-पात के बंधनों को समाज की तरक्की में एक बड़ी बाधा मानते थे। यही कारण था कि वह दलितों को समाज की मुख्यधारा में लाना चाहते थे। बात 1936 की है। उन दिनों बनारस में कट्टरपंथ और रूढि़वादिता अपने चरम पर थी। ऐसे में मालवीयजी ने अनुसूचित जाति वर्ग को गायत्री मंत्र और यज्ञोपवीत की दीक्षा दी ताकि इस वर्ग की चेतना जाग्रत हो सके। बनारस के कुछ कट्टरपंथियों ने उनके इस कार्यक्रम का विरोध भी किया, लेकिन उन्होंने इसकी कोई परवाह नहीं की। मदन मोहन मालवीय अच्छी तरह जानते थे कि जागरूकता के अभाव में समाज वास्तविक तरक्की नहीं कर सकता। यही कारण था कि समाज को जागरूक करने के उद्देश्य से वह एक साथ तीन भूमिकाओं में उतरे। उन्होंने शिक्षाविद्, पत्रकार और लेखक तथा समाज सुधारक की भूमिकाएं निभाईं। वह इन तीनों भूमिकाओं के अंतरसंबंधों से अच्छी तरह परिचित थे। वह जानते थे कि एक शिक्षाविद्, पत्रकार या फिर समाज सुधारक का मूल उद्देश्य अंतत: समाज को शिक्षित और जागरूक करना ही है। इसीलिए वह इन तीनों स्तरों से समाज के उत्थान हेतु प्रयासरत रहे।
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मदन मोहन मालवीय ने जहां एक ओर दहेज प्रथा तथा बाल विवाह का विरोध किया तो वहीं दूसरी ओर धर्म, अछूतोद्धार, विधवा विवाह एवं स्त्री शिक्षा जैसे मुद्दों पर सार्थक कार्य किया। वह राष्ट्र भाषा हिंदी को अदालतों एवं सरकारी कामकाज की भाषा बनाने के लिए भी प्रयासरत रहे। यह उनके व्यक्तित्व का कमाल ही था कि वह काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए बड़े-बड़े धनकुबेरों के पास निर्भय होकर दान लेने के लिए चले जाते थे। बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी उन्हें दान देकर अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते थे। वह हिंदू महासभा के एक प्रभावी नेता रहे, लेकिन उनका हिंदुत्व आज के नेताओं की तरह सांप्रदायिकता की चाशनी में लिपटा हुआ नहीं था। यही कारण था कि वह लगातार हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए प्रयासरत रहे। मदन मोहन मालवीय ने हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अपनी सार्थकता सिद्ध की । यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि उनकी पत्रकारिता का उचित मूल्यांकन नहीं हो पाया । महामना को सक्रिय रूप से हिंदी पत्रकारिता में लाने का श्रेय कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह को है। हालांकि पंडितजी ने छात्र जीवन से ही लिखना प्रारंभ कर दिया था और वह प्राय: बालकृष्ण भट्ट द्वारा संपादित हिंदी प्रदीप में लिखा करते थे। उन्होंने 15 वर्ष की आयु में ही कविताएं भी लिखनी शुरू कर दी थी।
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मदन मोहन मालवीय जुलाई 1887 में हिंदुस्थान पत्रिका के संपादक बने। महामना के संपादन काल में इस अखबार ने काफी लोकप्रियता हासिल की। 1889 में उन्होंने हिन्दुस्थान से त्यागपत्र दे दिया और वकालत की डिग्री हासिल की । वकालत की पढ़ाई के साथ-साथ ही आप पंडित अयोध्यानाथ के अंग्रेजी दैनिक दि इंडियन ओपिनियन में सह-संपादक के रूप में कार्य करते रहे। मदन मोहन मालवीय ने 1907 में समाचार पत्र अभ्युदय का प्रकाशन प्रारंभ किया। अभ्युदय ने स्वतंत्रता संग्राम में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बंगाल विभाजन के समय जब पूरा देश जल रहा था तो लोगों की भावनाएं अंग्रेजी सरकार तक पहुंचाने के लिए एक अंग्रेजी दैनिक की आवश्यकता महसूस की गई। फलस्वरूप 24 अक्तूबर, 1909 को इलाहाबाद से दि लीडर का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। महामना 1924 से 1946 तक हिन्दुस्तान टाइम्स के चेयनमैन रहे। उनकी प्रेरणा से ही 1936 में हिंदी में हिंदुस्तान का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। वह कहते थे कि एक पत्रकार में सत्य और न्याय के पक्ष में खड़े होने की क्षमता होनी चाहिए। शिक्षा के व्यावसायीकरण और पत्रकारिता में गिरावट के इस दौर में मदन मोहन मालवीय के आदर्श सचमुच हमें एक नया रास्ता दिखाते हैं।
लेखक रोहित कौशिक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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