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भारत के खिलाफ पाकिस्तान की शह पर आतंकवाद के अपने अनोखे बचाव के बाद स्वदेश लौटने पर पाकिस्तान के अंदरूनी मामलों के मंत्री रहमान मलिक का इंतजार अवामी नेशनल पार्टी के नेता और खैबर पख्तूनख्बा कैबिनेट के एक वरिष्ठ मंत्री बशीर अहमद बिलौर की आत्मघाती बम हमले में मौत की खबर कर रही थी। बिलौर ने भ्रष्ट और असहिष्णुता की ताकतों को नाकाम करने का अपना इरादा साफ-साफ व्यक्त किया था। जब पाकिस्तान पीपल्स पार्टी की करिश्माई नेता बेनजीर भुट्टो पर आतंकवादी हमला हुआ था, तब भी रहमान मलिक कहीं दूसरी जगह पर सुरक्षित और स्वस्थ थे। पाकिस्तानियों को सोचना चाहिए कि जिस व्यक्ति के हाथों में सभी मामलों की डोर हो, वह अभी तक आतंकवाद का निशाना क्यों नहीं बना है। क्या ऐसा इसलिए नहीं है कि वह उन लोगों की बड़ी कुशलता के साथ रक्षा कर सकते हैं, जिन्हें सुरक्षा प्रदान करने का कोई मतलब ही नहीं है? पाकिस्तान के पत्रकार नजम सेठी लिखते हैं कि तहरीक-ए-तालिबान के आतंकवादियों द्वारा हाल ही में पेशावर हवाईअड्डे हमले ने राष्ट्रीय सुरक्षा, सिविल-सैन्य संबंधों और मीडिया के रुख के बारे में कई महत्वपूर्ण सवाल खड़े किए हैं। बदकिस्मती से सच तो यह है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के महत्वपूर्ण मुद्दे पर आर्मी चीफ ने स्वीकार किया है कि पाकिस्तान को खतरा बाहर से नहीं, बल्कि भीतर ही से है, लेकिन इस मुद्दे पर प्रमुख पक्षों में एक राय नहीं है।
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आतंकियों द्वारा लगातार सेना को निशाना बनाया जा रहा है। आज तक आतंकवाद की इस लड़ाई में पाकिस्तान ने 3,000 से अधिक जवानों को गंवा दिया है। पिंडी में जीएचक्यू और कराची में मेहरान नौसैनिक अड्डे आदि पर हुए आतंकी हमले तो निश्चय ही बड़े ही दुस्साहसी रहे हैं। फिर भी 2007-08 के स्वात ऑपरेशन को छोड़कर टीटीपी को वजीरिस्तान में उसके ठिकानों से खदेड़ने के कोई कारगर प्रयास नहीं हुए हैं। सेना की विवशता चार कारणों को लेकर है। पहला, वह लोगों में यह छाप नहीं छोड़ना चाहती कि वजीरिस्तान में केवल इसलिए जा रही है क्योंकि अमेरिका उससे कुछ और अधिक करने के लिए कह रहा है। दूसरे, सैन्य अधिकारी और अधिक हताहतों को बरदाश्त नहीं कर सकते। सैन्य प्रमुख जनरल अशफाक कियानी कई मामलों में उलझे हुए हैं। इनमें सेवाकाल में तीन साल की असाधारण वृद्धि पर असंतोष, रेमंड डेविस मामला, अमेरिकी हमले में ओसामा बिन लादेन की मौत, मेमोगेट कांड में बदनामी, नाटो सप्लाई मार्गो को रोकने के मामले को गलत तरीके से हैंडल करने और अपने भाइयों के कारोबारों पर उठती उंगलियां आदि अनेक मामले शामिल हैं। इसलिए वह ऐसे मामलों में हाथ डालने से कतरा रहे हैं, जिनका नतीजा उन्हें भुगतना पड़ सकता है। तीसरे, सरकार और विपक्ष में बैठे असैन्य राजनेताओं ने सेना की मदद के लिए आगे आने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है।
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पीपीपी सरकार सेना द्वारा प्रस्तावित आतंकवाद-विरोधी कानून पर सुस्ती दिखा रही है। इस प्रस्तावित कानून का मकसद आतंकवादियों को पकड़ना, हिरासत में रखना और उन पर मुकदमा चलाना ही नहीं है, बल्कि मानवाधिकार उल्लंघन के आरोपों से बचना भी है। चौथे, अफगानिस्तान के लिए सेना की अंतिम दौर की रणनीति अभी भी ढुलमुल है। वह मुल्ला उमर हक्कानी नेटवर्क संपत्ति को बचाना और अमेरिकियों के चले जाने के बाद काबुल में एक महत्वपूर्ण स्थान हासिल करना चाहती है, लेकिन अपनी संपत्तियों और देनदारियों के बीच साठगांठ को तोड़ने को न तो तैयार है और न ही वह इसके काबिल है। कुल मिलाकर आतंकवाद के खिलाफ देश में आम सहमति नहीं बन पाई है। सैन्य-असैन्य अधिकारों, जिम्मेदारियों और शक्तियों तथा दूसरी ओर पाकिस्तानी राष्ट्रवाद में धर्म के स्थान के बारे में कोई स्पष्ट विभाजन नहीं हो पाया है। बदकिस्मती से पाकिस्तान में कोई ऐसी पार्टी या नेता नहीं नजर आता जो इस निराशाजनक स्थिति से बाहर निकलने को तैयार हो।
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