Menu
blogid : 5736 postid : 6607

सुप्रीम कोर्ट की खुराक का कब होगा असर

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

दवाओं के गैर-कानूनी तरीकों से होने वाले परीक्षणों पर देश की शीर्ष न्यायालय ने एक बार फिर केंद्र और राज्य सरकारों को फटकार लगाई है, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सरकारों पर कोई असर दिखाई नहीं दे रहा है। पिछले करीब तीन साल से देश के कोने-कोने से दवा परीक्षणों के दुष्प्रभाव के चलते लगातार मौत की खबरें आ रही हैं। गरीबों को बलि का बकरा बनाया जा रहा है। बावजूद इसके परीक्षण में लगी दवा कंपनियों, अस्पतालों और चिकित्सकों के लालच और मनमानियों पर केंद्र व राज्य सरकारें प्रतिबंध लगाने में नाकाम नजर आ रही हैं। मध्य प्रदेश के कई अस्पताल और उनके चिकित्सक गैरकानूनी ढंग से दवा परीक्षण के दोषी भी साबित किए जा चुके हैं, लेकिन प्रदेश सरकार कोई स्पष्ट कानून न होने का बहाना करके दोषियों को बख्शती चली आ रही है। सरकारों की लापरवाही देखते हुए न्यायालय ने सुझाव दिया है कि अब सभी परीक्षण केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव की निगरानी में होने चाहिए, लेकिन लगता नहीं की सरकारें इस पर अमल करेंगी।


Read:अब आसाराम बापू ने आलोचकों को बताया…


इंसानों पर गैरकानूनी तरीके से दवाओं के नाजायज परीक्षण के मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रवैया अपनाते हुए केंद्र और मध्य प्रदेश सरकार को पहले भी कड़ी फटकार लगाते हुए कहा था कि यदि सरकार अवैध क्लीनिकल ट्रॉयल पर गंभीर नहीं होती है तो उसे खुद गंभीर कदम उठाना पड़ सकता है, जो भविष्य में सरकार और विभिन्न फार्मा कंपनियों के लिए परेशानी का सबब बन सकता है। शीर्ष न्यायालय ने दवा परीक्षण के लिए गरीब लोगों को बलि का बकरा बनाए जाने पर चेतावनी दी है कि हम एक लाइन का दिशा-निर्देश देकर तमाम लोगों को प्रभावित करने वाले दवा परीक्षणों पर प्रतिबंध लगा सकते हैं। यह मामला बेहद गंभीर है। इसलिए केंद्र व राज्य सरकारें उल्लेखित चार बिंदुओं पर तुरंत जबाव दें। ये चार मुद्दे हैं, 1 जनवरी 2005 से 30 जून 2012 के बीच दवा परीक्षणों के लिए केंद्र सरकार को मिले आवेदनों की संख्या। दूसरा, दवा परीक्षणों से हुई मौतों की संख्या और मौतों की प्रकृति की जानकारी। तीसरा, दवा परीक्षण के गंभीर दुष्प्रभाव, यदि ऐसे दुष्प्रभाव हैं तो उनकी संख्या और उनकी प्रकृति के बारे में जांच प्रतिवेदन और चौथा, दवा परीक्षण के दुष्प्रभावों के पीडि़तों या उनके परिजनों को कोई मुआवजा दिया गया है या नहीं, इसकी जानकारी। ताक पर नैतिकता यह कितनी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि मानवीयता और नैतिकता के सभी तकाजों को ताक पर रखकर देश एवं मध्य प्रदेश में दवा परीक्षण के लिए मरीजों के जिस्म को कच्चा माल मानते हुए प्रयोगशाला बनाया जा रहा है।



किशोर और कम उम्र के बच्चों पर भी ये परीक्षण धड़ल्ले से किए जा रहे हैं। सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में बताया गया है कि दवा परीक्षण के दौरान देश भर में चार साल के भीतर 2031 मौतें हुई हैं। इनमें से केवल 22 मृतकों के परिजनों को मुआवजा दिया गया है। इस सिलसिले में याचिकाकर्ता अमूल्य निधि, चिन्मय मिश्र एवं बैलू जार्ज का कहना है कि दवा परीक्षण में पारदर्शिता का अभाव है, क्योंकि जिन पर परीक्षण किया जाता है, उन्हें उनके अधिकारों की जानकारी नहीं है। लिहाजा, हम चाहते हैं कि ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क के सदस्यों को मिलाकर विशेषज्ञों की एक समिति बनाई जाए, जो देश-विदेश में क्लीनिकल ट्रॉयल संबंधी प्रावधानों को देखे और दिशा-निर्देश तय करने के लिए सिफारिशें करें। भोपाल गैस पीडि़तों के लिए काम करने वाले संगठन भोपाल ग्रुप फॉर इंफार्मेशन एंड एक्शन ने दावा किया है कि अब तक गैस पीडि़तों पर किए परीक्षण में करीब 10 लोग जान गवां चुके हैं।


Read:बदलाव की कोशिश


इसी तरह इंदौर में 869 लाचार और गरीब बाल-गोपालों की देह पर निर्माणाधीन दवाओं का चिकित्सकीय परीक्षण कर उनकी सेहत के साथ खिलवाड़ किया गया। एक दिन के बच्चे पर भी ये दवा परीक्षण किए गए। इस नाजायज कारोबार को अंजाम अस्पताल के करीब आधा दर्जन चिकित्सा विशेषज्ञों ने दो करोड़ रुपये बतौर रिश्वत लेकर किए। हैरानी यहां यह भी है कि ये परीक्षण सर्वाइकल और गुप्तांग कैंसर जैसे रोगों के लिए किए गए, जिनके रोगी भारत में ढूंढ़ने पर भी बमुश्किल मिलते हैं। इस क्लीनिकल ड्रग एवं वैक्सीन ट्रॉयल का खुलासा एक स्वयंसेवी संस्था ने किया। बाद में इसे विधायक पारस सखलेचा और उमंग सिंघार द्वारा विधानसभा में पूछे गए एक सवाल के जबाव में प्रदेश सरकार के स्वास्थ्य राज्यमंत्री महेंद्र हार्डिया ने मंजूर किया कि 869 बच्चों पर दवा का परीक्षण बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों ने इंदौर के सरकारी महाराजा यशवंतराज चिकित्सालय में किया। जिन 869 बच्चों पर परीक्षण किए गए, उनमें से 866 पर टीका और तीन बच्चों पर दवा का परीक्षण किया गया। ये सभी परीक्षण विश्व स्वास्थ्य संगठन की बजाय बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों ने कराए। ये आंकड़े केवल दो साल के हैं, जबकि प्रदेश में छह साल से आदिवासियों समेत गरीब बच्चों पर दवाओं व टीकों के परीक्षण जारी हैं।



इसीलिए शीर्ष न्यायालय ने 2005 से जून 2012 के बीच हुए सभी दवा परीक्षणों की जानकारी मध्य प्रदेश सरकार से तलब की है। परीक्षण के भी कायदे हैं ऐसा नहीं है कि क्लीनिकल ट्रॉयल के संबंध में कोई नियम-कायदे वजूद में ही नहीं हैं। यदि इजाजत लेकर दवा परीक्षण किए जाते हैं तो नामित विशेषज्ञ चिकित्सकों की समिति की संस्तुति और स्वास्थ्य विभाग की अनुमति जरूरी होती है। अस्पताल के मुखिया और जिन रोगियों पर निर्माणाधीन दवा का प्रयोग किया जा रहा है, पूरी पारदर्शिता बरतते हुए उन्हें भी विश्वास में लिया जाता है। एक सहमति-पत्र पर रोगी के अविभावक के हस्ताक्षर कराकर अनुमति लेना भी क्लीनिकल ट्रॉयल की अनिवार्य शर्त है। ये परीक्षण सिलसिलेवार तीन या चार चरणों में चलते हैं और प्रयोगशील अवस्था होने के कारण मरीज के शरीर पर इसके दुष्प्रभाव का संदेह बना ही रहता है। कई बार दवा जानलेवा भी साबित होती है।


Read:विज्ञान नीति की सीमाएं


इसी कारण दवाओं का पहले प्रयोग गिनीपिग, खरगोश और चूहों पर किया जाता है, लेकिन इस मामले में तो सीधे-सीधे इंसानों को ही गिनीपिग और चूहों की तरह इस्तेमाल किया गया। लिहाजा, प्रयोग की प्रक्रिया के दौरान मरीजों को नर्सो की देखरेख में रहना चाहिए था, जबकि भोपाल-इंदौर में ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि इससे गोपनीयता भंग होने की आशंका प्रयोग में लगे चिकित्सक दल को थी। अपने बाल-बच्चों को जान-बूझकर प्रयोग के खतरों से गुजारना कोई भी माता-पिता नहीं चाहते। इसलिए वे अपनी संतान पर आसानी से किसी भी प्रकार के परीक्षण के लिए रजामंद भी नहीं होते। नतीजतन दवा निर्माता कंपनियां दवा परीक्षण के सिलसिले में अक्सर मोटी रकम देकर बिचौलियों का हाथ थामती हैं। ये बिचौलिए अस्पतालों और चिकित्सा महाविद्यालयों के चिकित्सकों को पटाकर गोपनीय तरकीबों से अस्पतालों में सामान्यतौर पर इलाज के लिए आए मरीजों को शिकार के रूप में इस्तेमाल कर परीक्षण शुरू कर देते हैं। हैरत की बात है कि जो चिकित्सक नैतिक संकल्प और संबल के साथ उपचार के पेशे में आते हैं, वही बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के प्रलोभन में आकर बच्चों तक की सेहत से खिलवाड़ करने लग जाते हैं। मनुष्यों को पशुओं तक की दवाएं खिला देने में चिकित्सक कोई संकोच नहीं करते। अब यदि ये परीक्षण केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव की निगरानी में होते हैं तो गैरकानूनी ढंग से किए जा रहे परीक्षणों पर कुछ तो अंकुश लगेगा।



लेखक प्रमोद भार्गव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


Read:अकेले हनी सिंह ही दोषी क्यों

मिसाइलों का तरकश


Tag:दवा, कानूनी ,राज्य सरकार, केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव, सूचना के अधिकार,मध्य प्रदेश सरकार, sarkar, health department,Supreme Court

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh