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आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने महिलाओं के साथ हो रही दुष्कर्म की घटनाओं का कारण पश्चिमी सभ्यता को बताया। अनेक राजनेताओं के साथ-साथ कुछ धर्म गुरुओं ने भी महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के लिए स्त्री जाति को ही जिम्मेदार ठहराया। यूरोप और अमेरिका का समाज तो नहीं कोसता कि उनके लोग हिंदू सभ्यता से बिगड़ रहे हैं, जबकि हमारे लोग बड़ी संख्या में इन देशों में रहते हैं। हमारी सभ्यता का आधार जातीय व्यवस्था है और इस व्यवस्था के शिकार जितने दलित, आदिवासी और पिछड़े हैं, उतनी ही महिलाएं भी। हमारे धर्मग्रंथों में भी महिलाओं से संबंधित कई ऐसे उदाहरण हैं जो उनके प्रति शासन और समाज के अनुचित दृष्टिकोण को उजागर करते हैं। आज भी कमोवेश वैसी ही स्थिति है। जब हमारी यही सभ्यता है तो महिलाएं पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित तो होंगी ही, क्योंकि वहां आजादी, सम्मान और आत्मनिर्भरता ज्यादा है। यहीं हमें अपने अंदर झांककर देखने की जरूरत है। उन सड़ी-गली परंपराओं व मान्यताओं को दफन करने की जरूरत है जिससे महिलाएं कमतर मानी जाती हैं। अतीत में पश्चिमी देशों में भी महिलाओं के साथ भेदभाव होते रहे हैं, लेकिन उन्होंने तेजी से बदलाव किया।
ग्रीक सभ्यता के विकास पर एक निगाह डालिए। सुकरात के दर्शन को उनके शिष्य प्लूटो ने उतना ही माना जितना उनको मानव के हित में या तर्कसंगत लगा। यानी सभ्यता को आगे बढ़ाने का काम किया। अरस्तू ने प्लूटो के सिद्धांतों व दर्शन से बहुत प्रभावित होते हुए भी वही बातें मानी जो उन्हें तर्कसंगत लगीं। इस तरह यथास्थितिवाद की जकड़न से समाज मुक्त होता गया। हमारे यहां स्थिति विपरीत है। यहां पुरानी परंपरा को ही सर्वोच्च माना जाता है। यहीं हम पश्चिमी सभ्यता के सामने व्यावहारिकता में पीछे हो जाते हैं। आज जब महिलाएं संविधान प्रदत्त अधिकारों के अनुसार जीना चाहती हैं तो उन पर पश्चिम की सभ्यता से प्रभावित होने का आरोप लगाया जाता है। जब वे समानता और आत्मसम्मान के प्रति जागरूक हो गई हैं तो रहन-सहन में बदलाव तो आएगा ही। वह पश्चिमी सभ्यता के तमाम मूल्यों से अपने आप मेल खा जाता है। हमें बदलाव से रोका नहींजा सकता। जो परिवर्तन वहां हुआ यदि उसे हम अपने परिवेश के अनुसार ढाल लेते तो आज पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित होने की जरूरत ही न होती और हो सकता है कि दूसरी सभ्यताओं को हम कुछ दे सकते। पश्चिम के तमाम देशों में विभिन्न क्षेत्रों में क्रांति हुई है, लेकिन हमारे यहां नहीं हो सकी।
कबीर जैसे संतों ने कोशिश तो जरूर की, लेकिन वह कोशिश व्यावहारिक पटल पर नहीं पहुंच सकी। ज्योतिबा फुले ने महिलाओं की आजादी और शिक्षा की मिसाल स्थापित कर शुरुआत तो की, लेकिन समाज की जड़ता नहीं टूटी। अंबेडकरवादी आंदोलन जरूर जातिवादी और मनुवादी व्यवस्था को चुनौती देता है, लेकिन अभी उसे बड़ी यात्रा करनी पड़ेगी। व्यक्ति को समानता, सम्मान, स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता आदि हासिल करने में जहां से भी सहयोग मिलता है वहां से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। चीन हमसे कम रूढि़वादी नहीं था, लेकिन वहां सांस्कृतिक क्रांति सत्ता ने ही की। प्रतिक्रियावादी मूल्यों को डंडे के जोर से भी खत्म किया गया। यदि समय के अनुसार उन्होंने सांस्कृतिक क्रांति न की होती तो जो भी सभ्यता प्रगतिशील और मानवतावादी होती उनके समाज को प्रभावित कर देती। हम आज भी जातिवादी परंपरा तोड़ने और पुरुषवादी सोच को खत्म करने का प्रयास नहीं कर पाए। यह कार्य समाज के स्वयंभू ठेकेदारों पर छोड़ दिया गया। भला वे क्यों सामाजिक परिवर्तन करते? सरकार का हस्तक्षेप होना चाहिए था, लेकिन वोटबैंक खराब न हो, इसलिए राजनेताओं ने परिवर्तन के लिए आंदोलन ही नहीं किया। संचार के क्षेत्र में बड़ी क्रांति आई है, जिसकी वजह से स्वत: ही महिलाओं ने अपनी तरह से बराबरी और रहन-सहन के तरीके अपनाए। उच्च शिक्षा में भी भागीदारी ली। घर से बाहर निकलीं और नौकरी भी की। राजनीतिक नेतृत्व भी इनके हाथ में आया। ऊपरी तौर पर दिखने लगा कि अब ये पुरुष के समान पहुंच रही हैं, लेकिन समाज की सोच के स्तर पर बदलाव बहुत कम हुआ।
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महिलाओं के लिए पति अब भी परमेश्वर है। क्या पुरुष भी महिलाओं के लिए ऐसी ही भावनाएं रखते हैं? क्या इन महिलाओं ने धार्मिक और सामाजिक स्तर पर किए गए अतीत के भेदभाव का बहिष्कार किया? दुष्कर्म होने पर आज भी कहा जाता है कि उसकी इज्जत लूट ली गई। दुष्कर्मी से ज्यादा पीड़ा तो जीवनभर समाज देता है। यदि हम अपने समाज को स्वस्थ रखना चाहते हैं तो दोष दूसरों को देने के बजाय अपनी सभ्यता की कमियों को दूर करना पड़ेगा। सख्त कानून भी समाज को विकृत होने से रोक नहीं पाएगा। यह कहना गलत है कि गड़बड़ी इंडिया में हो रही है भारत में नहीं। जोधपुर में दो गांव ऐसे हैं, जहां 100 वर्ष के बाद बारात आई, क्योंकि लड़कियां पैदा होते ही मार दी जाती थीं। जिस भारत को मोहन भागवत आदर्श मान रहे हैं और इंडिया को विकृत बता रहे हैं वे दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों की पीड़ा नहीं जानते। राजस्थान में तमाम ऐसे गांव हैं, जहां दबंग कमजोर वर्ग की औरतों के साथ जबरन संबंध बनाते हैं, लेकिन बात बाहर इसलिए नहीं आती, क्योंकि एक तो वहां इलेक्ट्रॉनिक चैनलों की पहुंच नहीं है और दूसरा यह सब पहले से ही चला आ रहा है। इंडिया की महिलाओं को कई गुना ज्यादा मान-सम्मान, भागीदारी, बराबरी मिल चुकी है, जबकि भारत की महिलाएं आज भी संघर्षरत हैं।
लेखक डॉ. उदित राज इंडियन जस्टिस पार्टी के अध्यक्ष हैं
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