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लंबे समय से संकट से जूझ रहा पाकिस्तान 15 जनवरी को और भी गहरे संकट में फंस गया। इस दिन पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने रेंटल पावर प्रोडयूसर्स (आरपीपी) मामले में पाक प्रधानमंत्री राजा परवेज अशरफ और उनके कुछ अन्य सहयोगियों को गिरफ्तार करने का आदेश दिया। हालांकि प्रधानमंत्री की गिरफ्तारी के लिए कोई समयसीमा निर्धारित नहीं की गई है। इससे जरदारीनीत पीपीपी को इस आदेश को अमान्य करने का संघर्ष जारी रखने का समय मिल गया है। 2007 में जनरल मुशर्रफ के साथ टकराव के बाद से पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी देश के सत्ता ढांचे में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। अब कहा जा रहा है कि पहले पाकिस्तान की नियति को जहां तीन अ- अल्लाह, आर्मी और अमेरिका तय करते थे, वहीं इसमें अब एक और अ-अदालत जुड़ गया है। स्मरण रहे कि पिछले साल जून में पूर्व प्रधानमंत्री गिलानी को पद से हटाने में भी अदालत ने प्रमुख भूमिका निभाई थी।
उस समय राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले के संदर्भ में प्रधानमंत्री को अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया गया था। वर्तमान मामले में नेशनल अकाउंटेबिलिटी ब्यूरो के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला व्यक्तिगत तौर पर राजा परवेज अशरफ के खिलाफ ही है, क्योंकि इस घोटाले के समय वही संबंधित मंत्रालय के कैबिनेट मंत्री थे। अभी अदालत के इस आदेश की कानूनी वैधता की पड़ताल चल ही रही थी कि तहरीके मिन्हाज उल कुरान (टीएमक्यू) के नेता ताहिर उल कादरी के नेतृत्व में लाखों लोगों ने विरोध रैली निकाल कर इस्लामाबाद को एक और झटका दे दिया। रैली में जरदारी के नेतृत्व वाली पीपीपी सरकार को चेतावनी दे दी गई कि वह संसद तथा तमाम प्रांतीय असेंबलियों को भंग करके एक कार्यवाहक सरकार का गठन करे और इसी के अधीन देश में नए चुनाव कराए जाएं।
कादरी और उनके समर्थकों की मांग पाकिस्तान में सरकार और राजनीतिक ढांचे के ध्वंस के समान है। इस तथ्य के आलोक में कि पाकिस्तान में अगले दो माह में राष्ट्रीय चुनाव होना है, इस पूरे घटनाक्रम- सुप्रीम कोर्ट का आदेश और कादरी मार्च में साजिश का अंदेशा होता है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि पाकिस्तानी सेना ने प्रमुख राजनीतिक दलों-जरदारी के नेतृत्व वाली पाकिस्तान पीपल्स पार्टी और नवाज शरीफ के नेतृत्व वाली पीएमएल (एन) को ठिकाने लगाने के लिए कनाडा से कादरी को पाकिस्तान बुलाने और यहां आंदोलन खड़ा करने में मदद की है। अगर पाकिस्तान में आंतरिक अशांति बरकरार रहती है तो न्यायपालिका की शह पर सेना देश को बचाने के लिए एक पिट्ठू कार्यवाहक सरकार का गठन कर अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता पर काबिज हो सकती है। फिलहाल यह निश्चित नहीं हो पाया था कि कादरी को गिरफ्तार किया जाएगा या नहीं, हालांकि उनके खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट जारी हो चुका है। यह भी निश्चित नहीं है कि प्रधानमंत्री अशरफ इस शर्मनाक स्थिति में बने रहेंगे, किंतु एक निष्कर्ष में कहीं कोई संदेह नहीं है और वह यह कि पाकिस्तान एक जटिल राजनीतिक और संवैधानिक संकट की तरफ बढ़ रहा है और इसकी सुरक्षा-आंतरिक और वाह्य, दोनों ही चिंताजनक और गंभीर अवस्था में हैं।
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सुन्नी समूहों द्वारा शियाओं पर हमले बराबर बढ़ते जा रहे हैं और पाकिस्तानी सेना भारत के साथ नियंत्रण रेखा पर हमलावर बनी हुई है। कूटनीतिक मोर्चे पर पाकिस्तान की विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार कुप्रचार कर रही हैं कि युद्धोन्मादी दिल्ली इस्लामाबाद को जंग के लिए उकसा रही है। इसके अलावा उनके विभिन्न आधिकारिक बयानों भी विवादास्पद श्रेणी में आते हैं। इस पृष्ठभूमि में यह बेहद जरूरी हो जाता है कि पाकिस्तान में आंतरिक घटनाओं पर भारत दूरदर्शिता और तटस्थता के साथ विचार करे और देश के लोगों में गुस्से और भावनाओं की लहर की रौ में न बह जाए। भारत में कुछ लोगों के विचार बिल्कुल असंयमित हैं। सुषमा स्वराज की दस पाकिस्तानी सिर की मांग बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। तथ्यात्मक विषयवस्तु की अवहेलना की जा रही है। पाक सेना द्वारा संघर्ष विराम का उल्लंघन आम हो गया है।
2012 में संघर्ष विराम के उल्लंघन की 117 घटनाएं हुई हैं। यानी हर तीन दिन में एक घटना हो रही है। इसके अलावा, पिछले दिनों तो पाकिस्तानी सैनिक तो एक भारतीय जवान का सिर ही काटकर ले गए। विभिन्न मीडिया रिपोर्टो से पता चलता है कि भारत और पाकिस्तान दोनों ही एक-दूसरे पर हावी होने के लिए नियंत्रण रेखा पर गोलीबारी में जुटे रहते हैं। इस प्रकार भारत को तमाम पहलुओं पर तटस्थता के साथ पुनर्विचार करने के बाद ही अपनी प्रतिक्रिया देनी चाहिए। यह उचित होगा कि दो मुद्दों से अलग-अलग ढंग से निपटा जाए। इसका मतलब है कि भारत को 2003 के युद्धविराम समझौते और इसके अनुपालन पर पुनर्विचार करना चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछले एक दशक में इस समझौते से अनेक लाभ भी हुए हैं। खासतौर पर नियंत्रण रेखा के निकट रहने वाले लोग इससे बड़े पैमाने पर प्रभावित हुए हैं।
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2003 समझौते पर कायम रहने के साथ-साथ भारत के सैन्य प्रमुख जनरल बिक्रम सिंह का यह कहना उचित प्रतिक्रिया है कि पाकिस्तानी सेना के किसी भी प्रकार के अतिक्रमण का भारत मुंहतोड़ जवाब देगा। इसी आलोक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बयान को भी देखा जाना चाहिए कि अब पाकिस्तान के साथ पहले जैसे संबंध नहीं रह पाएंगे। यह दोहराना जरूरी है कि भारत का आवेश से भरा कोई भी कदम पाकिस्तानी सेना को फिर से घरेलू मोर्चे पर केंद्र में ले आएगा। सत्ता में सेना की वापसी भारत के दीर्घकालिक हितों को चोट पहुंचाएगी। भारत की समझदारी इसी में है कि वह पाकिस्तान की राजनीतिक, संवैधानिक और सामाजिक अशांति के ठंडा होने का इंतजार करे और इस बीच नियंत्रण रेखा की पवित्रता को बनाए रखने के लिए सख्त व दृढ़ रुख अपनाए।
लेखक सी. उदयभाष्कर सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं
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