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यह दुखद संयोग है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भारत-पाकिस्तान को शांति के धागे में बांधने के लिए 47 साल पहले जनवरी में ही ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर किए थे और अब लगभग उन्हीं दिनों में सीमा पर संघर्ष विराम का उल्लंघन हो रहा है। आश्चर्य है कि न तो मीडिया और न ही राजनीतिक नेतृत्व कभी इस समझौते का उल्लेख करता है। ऐसा लगता है कि दोनों देश कट्टर राष्ट्रवादी बने हुए हैं। एक घटना घटित होती है और दोनों के अंदर एक-दूसरे के विरोध में जमी तमाम भावनाएं सामने आ जाती हैं। सैनिकों का सिर कलम होना कोई नई बात नहीं है। दोनों ओर की सेना यह काम पहले भी कर चुकी हैं, लेकिन पाकिस्तान की ओर से घटना से साफ तौर पर इन्कार कर देना खीझ पैदा करता है। इस मामले की जांच संयुक्त राष्ट्र से कराने से एक संभावना बन सकती थी, लेकिन भारत इसके पक्ष में नहीं था। भारत की दलील है कि दोनों देश विवादों को आपस में सुलझा लेंगे और पारस्परिक विवाद में किसी मध्यस्थ को नहीं लाया जा सकता। हालांकि मामला इतना गंभीर है कि इसे यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता। भारत को साक्ष्यों को सार्वजनिक करना चाहिए। विशेष रूप से ऐसा करना जरूरी है, क्योंकि भारत ने आरोप लगाया है कि लश्करे-तैयबा प्रमुख हाफिज सईद इस घटना से पहले सीमा पर आया था। पाकिस्तान को अपनी ओर से जांच का आदेश देना चाहिए। संभव है कि यह उन लोगों की करतूत हो जो पाकिस्तान की सेना में नियमित रूप से शामिल नहीं हैं। ऐसे तत्व पाकिस्तानी सेना के करीबी बने हुए है। देश आंतरिक हिंसा से तबाह है। तालिबानी आतंकी हर दिन 20-25 पाकिस्तानियों की हत्या कर रहे हैं। कोई ऐसी जगह नहीं है जो तालिबानी बंदूकों की पहुंच से बाहर हो। ऐसे में यह बात समझ में नहीं आती कि वह भारत के खिलाफ मोर्चा क्यों खोलेगा? वास्तव में इस्लामाबाद ने पश्चिम में लड़ने के लिए भारतीय सीमा से कुछ टुकडि़यों को हटा लिया था।
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आइएसआइ ने खुले तौर पर घोषणा कर रखी है कि वह भारत से उलझने के बजाय अपना ध्यान आंतरिक शक्तियों द्वारा पैदा किए गए खतरों से निपटने पर केंद्रित करेगी। ऐसे में तनाव को बेवजह बढ़ाने का कोई सवाल नहीं है। नई दिल्ली को समझना चाहिए कि पाकिस्तान उसका सीमावर्ती देश है। पाकिस्तान जब कमजोर होगा, तालिबान सीधे तौर पर भारत के लिए खतरा बन जाएंगे और भारत को अस्थिरता के खतरों का सामना करना पड़ेगा। भारत कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, कमजोर पाकिस्तान उसके लिए खतरा है। तनाव बढ़ने या अनुचित प्रतिक्रिया व्यक्त करने से स्थिति और बिगड़ेगी। हालात सुधारने का एकमात्र रास्ता बातचीत है। बातचीत कभी बंद नहीं होनी चाहिए या इसकी अहमियत कम नहीं आंकी जानी चाहिए। बातचीत का कोई विकल्प नहीं है। नई वीजा नीति पर रोक लगाने का भारत सरकार का निर्णय दोनों देशों की जनता के बीच संपर्क को कमजोर करेगा, जबकि आपस में बेहतर समझदारी के लिए यह जरूरी है। भाजपा कठोर जवाबी कार्रवाई की मांग कर रही है, ऐसे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह बयान कि पाकिस्तान के साथ संबंध पहले जैसे नहीं रह सकते, समझने वाली बात है। फिर भी मेरा अनुभव रहा है कि नई दिल्ली ने जब कभी नरमी बरती है, पाकिस्तान अपने सख्त रुख से पीछे हटा है। दरअसल हमें दुराग्रही पाकिस्तान के साथ जीने का तरीका सीखना होगा। पाक अधिकृत कश्मीर के व्यापार महानिदेशक इस्माइल खान ने कहा है कि सीमा पर टकराव कम होने तक नियंत्रण रेखा के पार व्यापार निलंबित रहेगा। यह नासमझी वाली कार्रवाई है और इससे जितना भारत का नुकसान होगा उतना ही पाकिस्तान का भी होगा। दोनों देशों की सिविल सोसायटी निराशाजनक साबित हुई है। शांति के साथ स्थिति को समझने के बजाए इन लोगों ने अपने-अपने देशों की कार्रवाइयों का समर्थन किया है। खेद की बात है कि सीमा पर टकराव होने या किसी विवाद के खतरनाक हो जाने पर सिविल सोसायटी हमेशा ही सत्ता प्रतिष्ठान के साथ जुड़ी होती है। दोनों देशों की सिविल सोसायटी अगर शांति का प्रयास करे और खरी-खरी बात कहे तो उनकी बातें मायने रखेंगी।
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नई दिल्ली का यह आकलन सही हो सकता है कि कश्मीर में आतंकियों की घुसपैठ को छिपाने के लिए युद्धविराम का उल्लंघन किया गया और घाटी में सुरक्षाबल आतंकियों से निपट लेने में सक्षम हैं। फिर भी यह सत्य है कि टकराव का असर कश्मीर की जनता पर पड़ेगा। वे अधिक असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। युद्धविराम का उल्लंघन भारत-पाक रिश्ते के लिए धक्का है। पिछले कुछ सालों से यह रिश्ता सुधर रहा था। व्यापार और नई वीजा नीति लागू होने के बाद रिश्ता और सुधरता, लेकिन सीमा पर संघर्ष के कारण दोनों देश फिर से वहीं पहुंच गए हैं, जहां से वे चले थे, जबकि प्रयास रिश्तों को सुधारने का होना चाहिए था।हॉकी और क्रिकेट खिलाडि़यों को खेलने से नहीं रोकना चाहिए। मैं चाहता हूं कि दोनों देश युद्धविराम का सम्मान करें। शिमला समझौते के द्वारा इस युद्धविराम रेखा को नियंत्रण रेखा में तब्दील कर दिया गया था। पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने मुझे दिए एक इंटरव्यू में इस रेखा को शांति रेखा करार दिया था और पिछले दो दशकों में इसका बहुत कम बार उल्लंघन हुआ है। सीमा पर हुए रक्तपात ने बची-खुची आशा पर भी पानी फेर दिया है।
लेखक कुलदीप नैयरप्रख्यात स्तंभकार हैं
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