Menu
blogid : 5736 postid : 6670

राहुल के भविष्य की चिंता

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

आखिकार कांगे्रस का चिंतन शिविर राहुल के भविष्य की चिंता में तब्दील होकर रह गया। सवा सौ साल पुराने राजनीतिक दल के लिए इस तरह व्यक्ति केंद्रित हो जाना शुभ लक्षण नहीं है। कांग्रेस में वैसे ही राहुल की हैसियत कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बाद दूसरे नंबर पर थी। अब महज तकनीकी रूप से उपाध्यक्ष पद से नवाज दिए जाने के बाद कौन-सा चमत्कार हो जाने वाला है, यह कांग्रेस के रणनीतिकार ही जान सकते हैं। बड़ी जिम्मेवारी के बड़े अर्थ बड़े पद से कहीं ज्यादा जिम्मेवारी के यथार्थ की अनुभूति और उनके जमीनी अमल से जुड़े होते हैं। यह सही है कि वर्तमान भारत नौजवानों का देश है। 45 करोड़ युवा भविष्य के सुनहरे सपने लिए आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन इनके सपनों को यदि हकीकत में बदलने की कोई योजना राजनीतिक दृष्टा के मन-मस्तिष्क में नहीं है तो सपनों को यथार्थ में बदलना नामुमकिन ही है। राजनीति की पकी जमीन पर पूरे एक दशक तक खुला खेल खेलने का अवसर मिलना आसान नहीं है, लेकिन अवसर को भुनाने में नाकाम रहना जरूर राहुल की सोच और कार्यशैली पर सवाल खड़ा करता है। अब लोकसभा चुनाव के करीब सवा साल पहले राहुल पार्टी का चेहरा घोषित कर दिए गए हैं। इस घोषणा में यह भी प्रतिध्वनित है कि कांग्रेस 2014 में बहुमत में आती है तो प्रधानमंत्री राहुल गांधी ही होंगे। इसके पहले उन्हें इसी साल होने वाले नौ विधानसभा के चुनावों में भी करिश्माई नेतृत्व दक्षता का परिचय देना होगा। उपाध्यक्ष पद के लिए मनोनीत हो जाने के अगले दिन बड़े नाटकीय अंदाज में राहुल ने शिविर के मंच से कहा, बीती रात मेरी मां मेरे कमरे में आई। उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा और रोने लग गई। मां ने कहा, सत्ता जहर होती है। बावजूद हमें सत्ता का उपयोग आम लोगों को सबल बनाने में करना है।


Read:कुंभ का अर्थशास्त्र


भारतीय पुराणों में वर्णित समुद्र मंथन की कथा विश्व प्रसिद्ध है। इस अवसर पर अमृत तो देवता पी गए, लेकिन जीव जगत की रक्षा के लिए विष अकेले भगवान शिव को पीना पड़ा। इसी लोक कल्याण के कारण शिव को नीलकंठ भी कहा गया। साफ है, कांग्रेस की साख और आगामी लोकसभा चुनाव में उसकी बरकरारी बनाए रखने का चुनौतीपूर्ण काम राहुल के कंधों पर आ गया है। अब यदि सत्ता में कांग्रेस या संप्रग-2 की वापसी होती है तो सत्ता की मलाई तो पूरी कांगे्रस और उसके सहयोगी चखेंगे, लेकिन नाकामी मिलती है तो उसका गरल बेचारे राहुल को पीना पड़ेगा। जबकि सत्ता बहाली की जबाबदेही नौ साल से प्रधानमंत्री बने बैठे मनमोहन सिंह को सौंपनी चाहिए थी, क्योंकि जनाधार खोती जा रही कांग्रेस जिस दुर्दशा में है, उसके लिए जिम्मेवार राहुल को नहीं ठहराया जा सकता? मनमोहन सिंह की आर्थिक सुधार संबंधी नीतियां ऐसी हैं, जिनसे महंगाई लगातार बढ़ रही है और आम आदमी की कमर टूटती जा रही है। मनमोहन के कड़े फैसलों की कतार में कैसे संभव है कि राहुल कांग्रेस की जनहितकारी छवि को बहाल करें? राहुल ने भावुक और लोक-लुभावन जो भाषण चिंतन शिविर में दिया, उसे सुनने वालों की आंखें तो नम हो सकती हैं, लेकिन समस्याओं के समाधान के सूत्र नहीं तलाशे जा सकते? यह ठीक है कि कांग्रेस राहुल को युवाओं के सपनों का प्रतीक मानकर उन्हें देश का अगला प्रधानमंत्री बना देने की पुनीत मंशा पाले हुए है, लेकिन यह विडंबना ही है कि देश का यही 45 करोड़ युवा मतदाता कांग्रेस और राहुल गांधी से सबसे ज्यादा खफा है। विज्ञान और तकनीकी शिक्षा से जुड़ा यह युवा अब इतना नरम दिल भी नहीं रहा कि अतीत की भावुकता में बहाकर उसकी भावनाओं का आसानी से राहुल अपने हित में दोहन कर लें। उसमें प्रतिरोध की ताकत और स्वस्फूर्त प्रदर्शन की भावना अंगड़ाई ले रही है। यही युवा भ्रष्ट्राचार मुक्त भारत के लिए अन्ना आंदोलन में हुंकार भरता दिखाई देता है। राहुल इस दोहरे चरित्र के पाखंड को अवाज देते हुए बड़ी सटीक बात कहते हैं, भ्रष्ट लोग ही भ्रष्टाचार खत्म करने की बात कर रहे हैं।


Read:चिंतन में दिखी सिर्फ सत्ता की चिंता


दूसरी तरफ महिलाओं के प्रति अनादर की भावना रखने वाले ही महिला सशक्तिकरण पर भाषण देते हैं। यदि राहुल के भाषण को इन युवाओं के आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो तमाम दिग्गज कांग्रेसियों ने भी तो इन आंदोलनों के चलते यही किया। श्रीप्रकाश जयसवाल और बेनीप्रसाद वर्मा ने खुले मंच से महिलाओं का अनादर किया। कांग्रेस के पूर्व प्रवक्ता मनीष तिवारी ने अन्ना हजारे को भ्रष्ट ठहराया और विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने कानून मंत्री रहते हुए गैर कानूनी काम करके विकलांग कल्याण के लिए मिली राशि हड़प ली। इन सब हरकतों को अंजाम तब दिया गया, जब राहुल पार्टी के सबसे प्रभावशाली महासचिव थे। इन्हें दंडित करने की बात तो दूर, राहुल ने इनके मर्यादाहीन बयानों की निंदा तक नहीं की। यही वजह है कि आज के दौर का समझदार युवा नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के कहीं ज्यादा निकट है। राहुल गांधी ने भरोसा जताया है कि अब 100 में 99 पैसे आप तक पहुंचेंगे और हम भ्रष्टाचार खत्म करेंगे, लेकिन संप्रग-2 के कार्यकाल में नित नए घपले-घोटाले सामने आए हैं। उनसे तो यही तय होता है कि व्यवस्था में सुधार और बदलाव की जो भी कोशिशें हुई हैं, सत्ता के बिचौलिए उतने ही शक्तिशाली हुए हैं। दरअसल, सत्ता में बैठे जिन भ्रष्टाचारियों और दलालों को ठिकाने लगाने के लिए जिन कड़े कानूनी उपायों की जरूरत है, उस लोकपाल को सालों से सभी राजनीतिक दल लंबित रखे हुए हैं। शासन-प्रशासन को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने की दलीलें देने वाले राहुल की इस लोकपाल को अमल में लाने के नजरिये से अभी तक कोई रुचि या भूमिका देखने में नहीं आई। अब कांग्रेस में वैधानिक रूप से नंबर दो की भूमिका में आ जाने के बाद राहुल का दायित्व बनता है कि वे वाकई अपने भाषण में कही बातें व्यावहारिक रूप में देखना चाहते हैं तो एक संकल्प लें और जरूरी हुआ तो हठ की हद पर आकर लोककल्याणकारी विधेयकों को संसद में पारित कराएं। उन्हें यहां गौर करने की जरूरत है कि जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जन भावना को नकारते हुए परमाणु बिजली और खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष पूंजी निवेश विधेयक को अमल में ला सकते हैं तो वे क्यों नहीं लोक कल्याण से जुड़े विधेयकों को पारित करा सकते हैं? राहुल गांधी ने सवाल उछाला है कि चुनाव से ठीक पहले दूसरे दलों से आने वाले नेताओं को टिकट मिल जाता है। कई उम्मीदवार सीधे पैराशूट से उतर कर कार्यकर्ताओं पर थोप दिए जाते हैं। दलबदलू चुनाव हार जाते हैं तो वे अपने मूल दल में लौट जाते हैं और पैराशूट से थोपा उम्मीदवार जीतकर हवाई जहाज में उड़ जाता है। साफ है, ऐसे मौकापरस्त नेता, दल और कार्यकर्ताओं की हित चिंता क्यों करने लगे?


Read:लोकतंत्र के प्रति अक्षम्य अपराध


ऐसे बाहु और अर्थबलियों को क्यों कांग्रेस के टिकट दिए जाएं? राहुल को अपनी यह पीड़ा दूर करने के लिए न तो संसद में विधेयक पेश करने की जरूरत है और न ही बहुमत की? यह नीति से कहीं ज्यादा नैतिकता से जुड़ी चिंता है। राहुल अब कांग्रेस में नंबर दो की हैसियत पर तो हैं ही, लोकसभा और विधानसभा के टिकट वितरण कांग्रेस समिति के प्रभारी भी हैं। उनकी कथनी और करनी में फर्क पेश न आए, इसके लिए उन्हें ही संकल्प लेने की जरूरत है। इस संकल्प को कार्यरूप में अंजाम इसी साल होने जा रहे विधानसभा चुनाव से दे सकते हैं। फरवरी में पूर्वोत्तर भारत के तीन प्रांतों और अप्रैल-मई में कर्नाटक में विधानसभा चुनाव हैं। राहुल को चाहिए कि वे एक भी दलबदलू, भ्रष्ट और महिला-अपमान से जुड़े नेता को टिकट न दें। यदि वे इन चार प्रांतों में अपने संकल्प का ढृढ़ता से पालन करते दिखते हैं तो देश के युवाओं में संदेश जाएगा कि राहुल चुनौतियों से रूबरू हो रहे हैं और बदलाव के लिए प्रतिबद्ध हैं। कांग्रेस की दशा सुधरने और दिशा सुनिश्चित होने का मार्ग इन्हीं विधानसभा चुनावों से होकर गुजरने वाला है। यदि राहुल कथनी-करनी में एकरूपता लाने में नाकाम रहते हैं तो सत्ता का जहर पीने को तैयार ही रहें।


लेखक प्रमोद भार्गव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


Read More:

पाकिस्तान का जटिल संकट

चिंतन से उपजे सवाल

राहुल गांधी की ताजपोशी के मायने



Tags:Rahul Gandhi, Rahul Gandhi Congress, Congress, Congress Party of India, राहुल गांधी, कांग्रेस, कांग्रेस पार्टी इंडिया

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh