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टैक्स ढांचे की विसंगतियां

जागरण मेहमान कोना
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कहते हैं कि समय के साथ सब बदल जाता है, पर भारत में ऐसा नहीं है। समय बदला है, लेकिन सरकार, उसके नुमाइंदे और उनकी सोच जस की तस है। बरसों पुराने पूर्वाग्रह समय के साथ और अधिक विकराल ही हो रहे हैं। दशकों पुरानी प्रत्यक्ष कर संहिता (डीटीसी) सुधार की बाट जोह रही है, लेकिन हर बार तमाम समितियों और सिफारिशों के बावजूद स्थिति वहां की वहीं है। इस बार के बजट से उम्मीद थी कि संसदीय समिति की सिफारिशों सहित तमाम सुधार कर आम आदमी की दिक्कतें कम कर दी जाएंगी, पर कुल मिलाकर निराशा ही हाथ लगी है। प्रत्यक्ष कर संहिता पर पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा की अध्यक्षता वाली वित्तीय मामलों की स्थायी संसदीय समिति की ओर से जारी 364 पन्नों की रिपोर्ट में कई अच्छे सुझाव हैं, लेकिन वित्त मंत्रालय ने संसदीय समिति का मान रखने की औपचारिकतावश कुछ मामूली सुझाव ही स्वीकार किए हैं। इससे न तो जनता के कष्टों का निवारण होता है और न सरकारी कोष में किसी तरह की बढ़ोतरी की कोई संभावना ही नजर आ रही है। यशवंत सिन्हा ने इस बारे में आशावाद दिखाते हुए कहा था कि बजट में इसका प्रभाव परिलक्षित होगा, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। आयकर छूट के लिए न्यूनतम आमदनी की सीमा जरूर मामूली बढ़ा दी गई प्रतीत हो रही है, लेकिन हकीकत में यह पिछले साल की उस अधिसूचना का ही एक रूप है, जिसमें सरकार ने पांच लाख रुपये से कम आय वालों को रिटर्न दाखिल करने की छूट दे दी थी। वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने जो दो-चार घोषणाएं की भी हैं, उन्हें बजट से पहले ही सरकार सैद्धांतिक रूप से स्वीकार कर चुकी थी।


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यानी नया पहलू कोई नहीं है। तथ्यों से परिपूर्ण इस रिपोर्ट में इस बात पर विशेष जोर दिया गया है कि वेतन भोगी वर्ग को कम से कम छूट व रियायतें दी जाएं। समिति कहती है कि कर संग्रह की प्रशासनिक लागत कम से कम करने को यह कदम बेहद जरूरी है। यशवंत सिन्हा ने 2003 में आम बजट पेश करने के दौरान टैक्स छूट की व्यवस्था चरणबद्ध तरीके से खत्म करने का इरादा व्यक्तकिया था। संहिता में अब भी 300 से ज्यादा क्लिष्ट प्रावधान हैं। सिन्हा ने इसे सरल बनाने की कवायद शुरू करने की घोषणा भी की थी, पर न वह तब कुछ कर पाए और न अब। वर्तमान सरकार और वित्त मंत्री ने लगातार दो लंबे कार्यकालों के बावजूद इस दिशा में कुछ भी नहीं किया है। एक मुद्दे पर समिति व सरकार एकमत है। वेतन भोगी तबके पर लगाम कसे रखना और कॉरपोरेट जगत को लगाम मुक्त रखना। यही वजह है कि सामान्य वेतनभोगी टैक्स तले दबा है और कॉरपोरेट जगत पर ज्यादा भार नहीं पड़ता। पिछले चार दशकों की 19 समितियां भी इस विसंगति को छूने की हिमाकत नहीं कर पाए। दरअसल वेतनभोगी वर्ग सरकारी शिकंजे से बच नहीं सकता और कॉरपोरेट जगत शिकंजों में आसानी से आ नहीं सकता। आयकर के दायरे में आने वाली आबादी का करीब 65 फीसद हिस्सा या तो टैक्स चोरी में लिप्त है या टैक्स दायरे से निकला हुआ है। पिछली तीन समितियों को छोड़कर किसी ने भी इस मुद्दे को गंभीरता से नहीं उठाया। यशवंत सिन्हा की इस समिति में इस पर तनिक भी विचार नहीं किया गया। समिति की सारी कवायद वेतन भोगियों की खाल उधेड़ने व पूंजीपतियों को प्रश्रय देने तक सीमित रही। विश्व के कई देशों में वेतनभोगी वर्ग पर कोई टैक्स नहीं है। टैक्स का सारा जोर कॉरपोरेट जगत पर है। इसका सकारात्मक परिणाम यह है कि वहां की सरकारें और अर्थव्यवस्था सुदृढ़ है। इसके विपरीत हमारे यहां सारा जोर और कवायद वेतनभोगी तबके पर है और इस सब पर व्यर्थ की प्रशासनिक लागत आ रही है। टैक्स का ढांचा इतना जटिल है कि आम आदमी चाहकर भी अपने आप रिटर्न नहीं भर सकता। उसे आयकर वकील या सीए की मदद लेनी ही पड़ेगी। समिति और बजट में इस ओर ध्यान नहीं दिया गया। पहले एक वकील मात्र 100 रुपये में रिटर्न भरने को तैयार रहता था। अब मामूली से मामूली रिटर्न के भी 1000-2000 रुपये मांगता है। टैक्स अधिकारियों के अधिकारों व दायित्वों पर हमेशा से ही विवाद रहा है। डीटीसी के तमाम प्रावधान विवादास्पद और कहीं-कहीं तो नुकसानदायक हैं।


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घोड़ा व्यापारी हसन अली, वोडाफोन आदि छोटे-बड़े हजारों मामलों में कर अधिकारियों की अनावश्यक कवायद से सरकारी खजाने को न सिर्फ अरबों की राशि से महरूम होना पड़ा, बल्कि सरकार के करोड़ों रुपये बर्बाद हो गए। पिछली तमाम समितियों की भांति इस समिति ने भी टैक्स अधिकारियों की मनमानी और अनुचित करारोपण की आलोचना करते हुए सिफारिश की है कि कोर्ट में सरकार की हार होने वाले मामलों में टैक्स अधिकारियों को दंडित कर सारे खर्चे उनके वेतन-भत्तों में से वसूले जाने चाहिए। समिति ने कहा है कि ऐसे मामलों में जिम्मेदारियां तय हों और विभागीय नुकसान की दशा में भरपाई भी इन्हीं अधिकारियों के वेतन-भत्तों से की जाए। समिति की इस महत्वपूर्ण सिफारिश को अस्वीकार कर दिया गया है। समिति ने इस बात पर भी गौर किया है कि डीटीसी में 250 से ज्यादा ऐसे उपबंध हैं जो नियम बनाने के लिए गुंजाइश छोड़ते हैं। कुछ हद तक नियमों की व्याख्या अपरिहार्य है, लेकिन सवाल यह है कि महत्वपूर्ण मसलों में इस तरह की गुंजाइश क्यों छोड़ी जाती है? जाहिर है, ये चीजें डीटीसी की बड़ी कमजोरियां हैं। समिति ने तमाम संबंधित पक्षों की राय धैर्य से सुनी है और नियमों को लेकर टालमटोल की प्रवृत्ति खत्म करने के लिए अंतरराष्ट्रीय टैक्स प्रावधानों के अनुसार सुधार संबंधी सिफारिशें की हैं। समिति ने खास तौर पर टैक्स अधिकारियों की जिम्मेदारी और निर्णय लेने वाले अधिकारी की स्वतंत्रता का स्तर बढ़ाने की सलाह दी है। समिति की यह सिफारिश भी अस्वीकार कर दी गई है। डीटीसी के नए अवतार की जरूरत पिछले डेढ़ दशक से महसूस की जा रही थी, पर नया प्रारूप जनता की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता प्रतीत हो रहा है। देशभर में ऐसे लाखों लघु कारोबारी हैं, जो थोक व फुटकर व्यापार से साल भर में करोड़ों रुपये कमाने के बावजूद न रिटर्न भरते हैं और न ही कोई टैक्स देते हैं। दूसरी ओर सरकार के लिए भी इनकी वास्तविक आमदनी का पता लगाना टेढ़ी खीर है। इस मामले में समिति चुप है। इसी प्रकार, एक बार रिटर्न जमा करने के बाद केस फाइनल करने की भी कोई समय सीमा नहीं रखी गई है। केस फाइनल करने के बावजूद सक्षम टैक्स अधिकारी किसी भी साल की कोई भी फाइल दोबारा खुलवाकर जांच कर सकता है। यह विवादास्पद अधिकार है और इस मुद्दे पर सैंकड़ों मामले न्यायालयों में विचाराधीन हैं। इतने गंभीर मुद्दे को किसी भी समिति ने नहीं उठाया और सिन्हा खुद भी चुप्पी साध गए। हकीकत तो यह है कि जिस उद्देश्य से नई संहिता और समिति बनाई गई थी, वह उद्देश्य भी पूरा नहीं हुआ है। विवादास्पद और अप्रासंगिक मुद्दे टाल दिए गए हैं और जनता के तमाम हितों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया है।



लेखक कपिल अग्रवाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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