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मैं नहीं जानती कि कहां से आते हैं। एक लेखिका जो वेदना में है। शायद, इस अवस्था में पुन: जीने की इच्छा एक शरारतभरी इच्छा है। अपने 90वें वर्ष से बस थोड़ी ही दूर पहुंचकर मुझे मानना पड़ेगा कि यह इच्छा एक संतुष्टि देती है, एक गाना है न आश्चर्य के जाल से तितलियां पकड़ना.. इसके अतिरिक्त उस नुकसान पर नजर दौड़ाइए जो मैं आशा से अधिक जीकर पहुंचा चुकी हूं। 88 या 87 साल की अवस्था में मैं प्राय: छायाओं में लौटते हुए आगे बढ़ती हूं। कभी-कभी मुझमें इतना साहस भी होता है कि फिर से प्रकाश में चली जाऊं। मैं स्वयं को दोहरा रही हूं। जो हो चुका है उसे आपके लिए फिर से याद कर रही हूं। जो है, जो हो सकता था, हुआ होगा। अब स्मृति की बारी है कि वह मेरी खिल्ली उड़ाए। मेरी मुलाकात कई लेखकों, मेरी कहानियों के चरित्रों, उन लोगों के प्रेतों से होती है जिन्हें मैंने जिया है, प्यार किया है और खोया है। कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं एक ऐसा पुराना घर हूं जो अपने वासियों की बातचीत का सहभागी है, लेकिन हमेशा यह कोई वरदान जैसा नहीं होता है! लेकिन यदि कोई व्यक्ति अपनी शक्ति के अंत पर पहुंच जाए तब क्या होगा? शक्ति का अंत कोई पूर्णविराम नहीं है। न ही यह वह अंतिम पड़ाव है जहां आपकी यात्रा समाप्त होती है। यह केवल धीमा पड़ना है, जीवनशक्ति का Oास। वह सोच जिससे मैंने प्रारंभ किया था वह है आप अकेले हैं। शांतिनिकेतन में थी, प्रेम में पड़ी, जो कुछ भी किया बड़े उत्साह से किया। 13 से 18 वर्ष की अवस्था तक मैं अपने एक दूर के भाई से बहुत प्रेम करती थी। उसके परिवार में आत्मघात की प्रवृत्ति थी और उसने भी आत्महत्या कर ली। सभी मुझे दोष देने लगे, कहने लगे कि वह मुझे प्यार करता था और मुझे न पा सका इसीलिए उसने आत्मघात कर लिया।
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यह सही नहीं था। उस समय तक मैं कम्युनिस्ट पार्टी के निकट आ चुकी थी और सोचती थी कि ऐसी छोटी अवस्था में यह कितना घटिया काम था। मुझे लगता था कि उसने ऐसा क्यों किया। मैं टूट गई थी। पूरा परिवार मुझे दोष देता था। जब मैं सोलह साल की हुई, तभी से मेरे माता-पिता विशेषकर मेरे संबंधी मुझे कोसते थे कि इस लड़की का क्या किया जाए। यह इतना ज्यादा बाहर घूमती है। तब इसे बुरा समझा जाता था। मध्यवर्गीय नैतिकता से मुझे घृणा है। यह कितना बड़ा पाखंड है। सब कुछ दबा रहता है। लेखन मेरा वास्तविक संसार हो गया, वह संसार जिसमें मैं जीती थी और संघर्ष करती थी। समग्रत:। मेरी लेखन प्रक्रिया पूरी तरह बिखरी हुई है। लिखने से पहले मैं बहुत सोचती हूं, विचार करती हूं, जब तक कि मेरे मस्तिष्क में एक स्पष्ट प्रारूप न बन जाए। जो कुछ मेरे लिए जरूरी है वह पहले करती हूं। लोगों से बात करती हूं, पता लगाती हूं। तब मैं इसे फैलाना आरंभ करती हूं। इसके बाद मुझे कोई कठिनाई नहीं होती है, कहानी मेरी पकड़ में आ चुकी होती है। जब मैं लिखती हूं, मेरा सारा पढ़ा हुआ, स्मृति, प्रत्यक्ष अनुभव, संगृहीत जानकारियां सभी इसमें आ जाते हैं। जहां भी मैं जाती हूं, मैं चीजों को लिख लेती हूं। मन जगा रहता है पर मैं भूल भी जाती हूं। मैं वस्तुत: जीवन से बहुत खुश हूं। मैं किसी के प्रति देनदार नहीं हूं, मैं समाज के नियमों का पालन नहीं करती, मैं जो चाहती हूं करती हूं, जहां चाहती हूं जाती हूं, जो चाहती हूं लिखती हूं। नरक के कई नाम हैं। एक नाम जो मुझे विशेष पसंद है, वह है ओशि पत्र वन। ओशि का अर्थ तलवार है। और पत्र अर्थात एक पौधा जिसके तलवार सरीखे पत्ते हों। ऐसे पौधों से भरा हुआ जंगल। और आपकी आत्मा को इस जंगल से गुजरना होता है। तलवार सरीखे पत्ते उस में बिंध जाते हैं। आखिर आप नरक में अपने पापों के कारण ही तो हैं। इसलिए आपकी आत्मा को इस कष्ट को सहना ही है। वैश्वीकरण को रोकने का एक ही मार्ग है। किसी जगह पर जमीन का एक टुकड़ा है। उसे घास से पूरी तरह ढक जाने दें। और उस पर केवल एक पेड़ लगाइए, भले ही वह जंगली पेड़ हो।
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अपने बच्चे की तिपहिया साइकिल वहां छोड़ दीजिए। किसी गरीब बच्चे को वहां आकर उससे खेलने दीजिए, किसी चिडि़या को उस पेड़ पर रहने दीजिए। छोटी बातें, छोटे सपने। आखिर आपके भी तो अपने छोटे-छोटे सपने हैं। कहीं पर मैंने दमितों की संस्कृति पर लिखने का दावा किया है। यह दावा कितना बड़ा या छोटा, सच्चा या झूठा है? जितना अधिक मैं सोचती और लिखती हूं, किसी निष्कर्ष पर पहुंचना उतना ही कठिन होता जाता है। मैं झिझकती हूं, हिचकिचाती हूं। मैं इस विश्वास पर अडिग हूं कि समय के पार जीने वाली हमारे जैसी किसी प्राचीन संस्कृति के लिए एक ही स्वीकार्य मौलिक विश्वास हो सकता है-सहृदयता। सम्मान के साथ मनुष्य की तरह जीने के सभी के अधिकार को स्वीकार करना। लोगों के पास देखने वाली आंखें नहीं हैं। अपने पूरे जीवन में मैंने छोटे लोगों और उनके छोटे सपनों को ही देखा है। मुझे लगता है कि वे अपने सारे सपनों को तालों में बंद कर देना चाहते थे, लेकिन किसी तरह कुछ सपने बच गए। कुछ सपने मुक्त हो गए। जैसे गाड़ी को देखती दुर्गा (पाथेर पांचाली उपन्यास में), एक बूढ़ी औरत, जो नींद के लिए तरसती है, एक बूढ़ा आदमी जो किसी तरह अपनी पेंशन पा सका। जंगल से बेदखल किए गए लोग, वे कहां जाएंगे। साधारण आदमी और उनके छोटे-छोटे सपने। उनका अपराध यही था कि उन्होंने सपने देखने का साहस किया। उन्हें सपने देखने की भी अनुमति क्यों नहीं है? जैसा कि मैं सालों से बार-बार कहती आ रही हूं, सपने देखने का अधिकार पहला मौलिक अधिकार होना चाहिए। यही मेरी लड़ाई है, मेरा स्वप्न है। मेरे जीवन और मेरे साहित्य में।
महाश्वेता देवी
जयपुर साहित्योत्सव 2013 के उद्घाटन भाषण का संपादित अंश
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