Menu
blogid : 5736 postid : 6687

कैसे बढ़े सीखने की प्रक्रिया

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

करीब दो साल पहले जब शिक्षा का अधिकार कानून लागू किया गया था तो उम्मीद जताई गई थी कि जिन वर्गो के बच्चे अब तक ज्ञान की रोशनी से दूर थे, शिक्षा का अधिकार कानून उनकी जिंदगी से रोशनी की इस कमी को दूर करने की कामयाब कोशिश करेगा। लेकिन इतनी जल्दी इसके उलट परिणाम भी आने लगे हैं। यह कानून लागू किए जाने के पहले तक निजी और सरकारी शिक्षा के जो दो असमान रूप दिखते रहे थे, उसमें अब और भी ज्यादा बढ़ोतरी नजर आ रही है। यही नहीं, शिक्षा अधिकार कानून के लागू होने के बाद सरकारी स्कूलों में प्रकारांतर से जहां शिक्षा का मतलब सिर्फ दाखिला प्रक्रिया को जारी रखना ही मान लिया गया है, वहीं निजी स्कूलों में इसे सीसीएल यानी कंटीन्यूअस एंड कॉम्पि्रहेंसिव लर्निग के तौर पर लिया जा रहा है। यानी सरकारी स्कूलों में दाखिला की दर बढ़ी है तो निजी स्कूलों में परंपरागत पढ़ाई की बजाय पाठ्यक्रम से बाहर की गतिविधियों पर जोर दिया जाने लगा है। इससे सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर और ज्यादा गिरने की आशंका जताई जा रही है तो दूसरी तरफ निजी स्कूलों ने गैर-पाठ्यक्रम गतिविधियों के बहाने शिक्षा देने की अपनी जिम्मेदारी को एक तरह से दरकिनार करना शुरू कर दिया है। बदले में इसका आर्थिक और मानसिक बोझ उनके यहां पढ़ा रहे लोगों को उठाना पड़ रहा है। यह आकलन भारत सरकार की तरफ से शिक्षा के स्तर पर सालाना रिपोर्ट पेश करने वाली गैर सरकारी संस्था प्रथम का है। प्रथम की रिपोर्ट असर-2012 में सबसे बुरी हालत देश की ग्रामीण शिक्षा की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद शैक्षिक स्तर में लगातार गिरावट आ रही है। इस रिपोर्ट के मुताबिक सरकारी स्कूलों में पांचवी कक्षा में पढ़ने वाले 53 फीसद और निजी स्कूलों में पढ़ने वाले 60 फीसद बच्चे दो अंकों के गणित के सवाल हल कर पाने में नाकाम हैं। असर ने शिक्षा की गुणवत्ता जांचने के लिए अपनी तरफ से जो टेस्ट लिए थे, उसमें सरकारी स्कूलों के 47 फीसद और निजी स्कूलों के 40 फीसद बच्चे फेल हो गए।


Read:एकतरफा शांति प्रयास का सच


इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि शिक्षा के अधिकार कानून का कितनी संजीदगी से पालन हो रहा है। असर-2012 एक चौंकाने वाले नतीजे पर भी पहुंची है। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश मानने लगा है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई की बजाय सबकुछ होता है। वैसे केंद्र और दिल्ली सरकार की नाक के नीचे चलने वाले सरकारी स्कूलों में अगर औचक छापा मारा जाए तो यह हकीकत पता चल सकती है। यहां स्कूलों के लिए छात्र तो निकलते हैं, लेकिन खासकर बड़े छात्र स्कूल पहुंचते ही नहीं। दिलचस्प यह है कि अध्यापकों को भी उनकी अनुपस्थिति परेशान नहीं करती, क्योंकि उन्हें पढ़ाने से छूट मिल जाती है। दक्षिणी दिल्ली के एक सुदूर स्कूल में हाल ही में तैनात हुए एक अध्यापक बताते हैं कि पढ़ाने की बजाय इन स्कूलों में समय काटने पर ध्यान दिया जाता है। कम से कम निजी स्कूल छात्रों की अनुपस्थिति को रोकने में कामयाब हैं। असर रिपोर्ट से भी यही साबित होता है। यही वजह है कि अब देश के अभिभावकों का रुझान स्कूली पढ़ाई के लिए निजी स्कूलों में अपने बच्चों को दाखिल कराने पर बढ़ रहा है। प्रथम की रिपोर्ट के मुताबिक केरल में 68 फीसद, पुडुचेरी में 66 फीसद, गोवा में 64 फीसद और तमिलनाडु में 59 फीसद बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। इसी तरह मणिपुर में 56 फीसद, नगालैंड में 51 फीसद और मेघालय में 50 फीसद बच्चे सरकारी स्कूलों की बजाय निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। यानी देश के आठ राज्यों के आधे से ज्यादा बच्चे उन निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं, जिनके अध्यापकों को सरकारी स्कूलों की तुलना में कम वेतन और सुविधाएं मिलती हैं। असर के मुताबिक आठ राज्य और हैं, जहां 40 से 50 फीसद बच्चे निजी स्कूलों की तरफ जा रहे हैं या जा चुके हैं। असर रिपोर्ट के मुताबिक पंजाब में 47, आंध्र प्रदेश में 45, महाराष्ट्र और उत्तराखंड में 42, कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में 40 फीसद बच्चे निजी स्कूलों में दाखिला ले चुके हैं। असर रिपोर्ट के मुताबिक सरकारी स्कूलों की तुलना में निजी स्कूलों में सालाना दस फीसद की दर से ज्यादा बच्चे दाखिला ले रहे हैं। प्रथम ने अपनी रिपोर्ट में संभावना जताई है कि 2014 तक देश के कुल बच्चों का 41 फीसद और 2019 तक करीब 55 फीसद बच्चे सरकारी स्कूलों की बजाय निजी स्कूलों में पढ़ रहे होंगे। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि ऐसे में आखिर सरकारी स्कूलों के अध्यापकों को सहूलियतें देने का क्या औचित्य रह जाता है। गौरतलब है कि चोटी के कुछ निजी स्कूलों को छोड़ दें तो ये स्कूल अपने अध्यापकों और कर्मचारियों को न तो वाजिब वेतन देते हैं और न ही दूसरी सहूलियतें। वैसे निजी स्कूलों के शिक्षकों को असंगठित क्षेत्र के कर्मचारियों के तौर पर नहीं देखा जाता, लेकिन हकीकत तो यही है कि चोटी के कुछ एक स्कूलों को छोड़ दें तो ज्यादातर स्कूलों के शिक्षक असंगठित क्षेत्र के ही कर्मचारी हैं। सबसे हैरतनाक हालत यह है कि दाखिला में इतनी बढ़ोतरी के बावजूद इन स्कूलों के बच्चे भी गुणवत्ता जांच में खरे नहीं उतर पा रहे हैं।


Read:राहुल गांधी की ताजपोशी के मायने


प्रथम की 2011 में आई रिपोर्ट में पांचवीं के बच्चों की किताबें न पढ़ पाने की हिस्सेदारी 48.2 फीसद थी। तब शिक्षा के जानकारों ने पढ़ाई के मौजूदा ढांचे पर ध्यान देने की जरूरत पर जोर दिया था। हालांकि 2012 की रिपोर्ट में इस दर में गिरावट देखी गई है, जो महज 46.8 फीसद रह गई है, लेकिन सबसे परेशानी की बात यह है कि शिक्षा के मामले में अपेक्षाकृत पिछड़े माने जाने वाले उत्तर प्रदेश और बिहार के विद्यालयों में यह गिरावट नहीं दिख रही है। हैरत वाली बात यह है कि यह गिरावट आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल जैसे निजी स्कूलों के दबदबे वाले राज्यों में भी नहीं दिख रही है। ऐसे में सवाल सरकारी और निजी दोनों तरह की शिक्षा व्यवस्था पर उठ रहे हैं। प्रथम रिपोर्ट एक और तथ्य पर भी ध्यान दिलाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में भी निजी स्कूलों की बाढ़ तो आ गई है, लेकिन हकीकत तो यह है कि वे सरकारी स्कूलों की तुलना में कोई बेहतर और गुणवत्तायुक्त शिक्षा नहीं दे रहे हैं। आंकड़ों के इस खेल से आम अभिभावकों को भले ही खास लेना-देना न हो, लेकिन इस रिपोर्ट की तह में जाने के बाद यह सवाल तो जरूर उठता है कि आखिर इस देश के करोड़ों नौनिहालों को आखिर कौन-सी शिक्षा मुफीद साबित हो सकेगी और वह उन्हें जिंदगी के साथ ही ज्ञान के नए पाठ पढ़ा पाएगी। इसका जवाब तलाशा जाना जरूरी हो गया है। बेशक प्रथम रिपोर्ट कहती है कि शिक्षा के अधिकार कानून के नतीजे जानने के लिए हमें इंतजार करना होगा, लेकिन वह सीखने की प्रक्रिया में तत्काल बदलाव लाए जाने की भी वकालत कर रही है। वह कड़े नियम बनाने पर भी जोर दे रही है, लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि नारेबाजी से सियासी फायदा उठाने की ताक में लगी रहने वाली राजनीतिक ताकतें क्या इस ओर गंभीरता से ध्यान दे पाएंगीं।



लेखक उमेश चतुर्वेदी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं.


Read More:

पाकिस्तान का जटिल संकट

महाकुंभ में कराह रही गंगा

राहुल के भविष्य की चिंता




Tags:RTI, India, RTI Act, ACT, Court, Court Order, अधिकार कानून, नगालैंड , मणिपुर , राजनीतिक

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh