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चाय की जिस चुस्की से हम-आप तरोताजा होते हैं, उसे प्याले तक लाने वाले इन दिनों मुफलिसी से तंग आकर मौत को गले लगा रहे हैं। यों तो चाय के बागान देश के विदेशी मुद्रा भंडार के मुख्य स्त्रोतों में हैं, पर उनकी समस्याएं सुलझाना सरकार की प्राथमिकता में कभी नहीं रहा। एक तरफ चाय बागानों की लागत बढ़ रही है तो दूसरी ओर इस उद्योग पर हर दिन नए-नए टैक्स लगाए जा रहे हैं। तरफ मुक्त व्यापार की अंध-नीति के चलते अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी हमारी चाय के दाम गिर रहे हैं। इससे सीधे वे लाखों लोग प्रभावित हो रहे हैं, जिनके जीवकोपार्जन के साधन पीढि़यों से चाय बागान ही रहे हैं। सरकार घटते निर्यात पर तो चिंतित है, लेकिन रोजगार के घटते अवसरों पर विचार करने को राजी नहीं। मुक्त व्यापार से करीब तीन हजार छोटे चाय बागान और उनमें काम करने वाले 15 लाख मजदूरों पर संकट के बादल दिख रहे हैं। ये बाद 1999 में की गई घोषणा से बने हैं। प्रधानमंत्री ने घोषणा की थी कि दक्षिण एशियाई सहयोग संगठन (दक्षेस) के सदस्य देश भारत को सामान्य शुल्क पर चाय और उसका कचरा निर्यात कर सकेंगे। यह फैसला चाय उत्पादन ईकाइयों के लिए सदमे जैसा था। गत 175 वर्र्षो से यूरोपीय देशों को भारत से चाय भेजी जा रही है। चाय उद्योग पर कभी ऐसा संकट नहीं आया, जितना गत दो वर्र्षो से यह झेल रहा है। 1883 में ईस्ट इंडिया कंपनी का चीन में चाय के व्यापार से एकाधिकार खत्म हो गया था। भारत में इसका विकल्प तलाशने के लिए 1834 में लॉर्ड विलियम बेंटीक की अगुआई में एक समिति बनी थी। असम में एक छोटे से बागान में चाय की चीनी किस्म के बोहेडा के पौधे लगाए गए। बंगाल आर्टिलरी के मेजर रॉबर्ट ब्रूस ने पाया कि असम के पहाड़ी क्षेत्र में सिंगफोस नाम की एक जनजाति चाय उगाती है। उसी समय इस स्थानीय प्रजाति वीरीदीस का व्यावसायिक उत्पादन शुरू हुआ था।
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चाय की यह किस्म चीन के उत्पाद से बेहतर सिद्ध हुई। कुछ ही दिनों में यह लंदन निर्यात होने लगी और देखते ही देखते भारत विश्व का सर्वाधिक चाय उत्पादन और निर्यात करने वाला देश बन गया। इतने पुराने निर्यात उद्योग की समस्याओं पर विचार करना तो दूर, सरकार इसे समेटने पर उतारू है। उत्तरी बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के बनारघाट स्थित चामोर्जी चाय बागान को गणतंत्र दिवस के ठीक दो दिन पहले अचानक बंद कर दिया गया। यहां के कामगारों को पिछले एक साल से आधा वेतन ही दिया जा रहा था तो भी वे सुखद भविष्य की आस में वहां 12-12 घंटे खट रहे थे। इसी जिले के दुआर में गत पांच वर्र्षो में 16 चाय बागान बंद कर दिए गए। उनमें काम करने वाले 40 हजार मजदूर परिवार बेहाल हैं। हाल ही में उत्तर बंगाल के 120 छोटे बागानों की तालाबंदी कर दी गई। इससे तीन हजार मजदूर बेरोजगार हो गए। ये ऐसे बागान हैं, जिनके पास अपने कारखाने नहीं हैं। ये पत्ते तुड़वा कर दूसरों को बेचते थे। मजदूर बागानों पर कब्जा कर खुद पत्ते तोड़कर बेचने की धमकी दे रहे हैं। इलाके में 1500 से अधिक चायबागान मजदूरों के भूख से मरने की बात सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज है। असम के चाय बागानों में बेहद कम मजदूरी के भुगतान को लेकर संघर्ष की स्थिति बन रही है। संसद के पिछले सत्र में स्वीकार किया गया कि चाय बागानों में भुखमरी फैलने के कारण 700 लोग दम तोड़ चुके हैं। वास्तविक आंकड़े इससे कहीं अधिक हैं। यह भी माना जाना चाहिए कि मजदूरों के शोषण में अकेले बागान मालिक ही नहीं, श्रमिक संगठन भी लिप्त हैं। 26 दिसंबर को ही असम के तिनसुकिया जिले के कुनापाथर बागान के मालिक मृदुल कुमार भट्टाचार्य और उनकी पत्नी रीता को 700 बागान मजदूरों की भीड़ ने जिंदा जला डाला। पांच साल पहले वीरापारा में डलगांव चायबागान में एक मजदूर नेता व उसके परिवार को जिंदा जलाने की घटना से यह बात उजागर हो चुकी है। बागान मालिकों का कहना है कि मौजूदा प्लांटशन लेबर एक्ट के के चलते उनकी उत्पादन लागत अधिक आ रही है और वे बागान चलाने में सक्षम नहीं है। इस कानून के तहत मालिक को मजदूरों को पारिश्रमिक तो देना ही होता है, उनके लिए मकान, चिकित्सा, बच्चों के लिए स्कूल, छोटे बच्चों के लिए झूला घर जैसी सुविधाएं भी मुहैया कराना अनिवार्य है। भारतीय चाय संगठन की मांग है कि इस कानून में संशोधन कर श्रमिक कल्याण का जिम्मा सरकार ले।
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बेरोजगारी से बेहाल मजदूर दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट गए। इंटरनेशनल यूनियन ऑफ फूड, एग्रीकल्चर, होटल, रेस्टोरेंट, केटरिंग, टोबैको प्लांटेशन एंड एलाइड वर्क्स एसोशिएसन द्वारा दायर याचिका में कहा गया था कि उत्तर बंगाल के 18 बड़े चाय बागानों में काम करने वाले 17,162 कर्मचारियों के महनताने के 36.60 करोड़ रुपये का भुगतान नहीं किया जा रहा है। अब तक बागानों के 240 लोग खुदकुशी कर चुके हैं। याचिका में यह भी दावा किया गया था कि 2002 के बाद से असम के बागान गैरकानूनी तरीके से बंद किए गए। केरल में तो 20 सालों से चाय बागान मजदूरों को पूरी मजदूरी ही नहीं मिली है। इस याचिका पर 14 अगस्त 2006 को तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाईके सब्बरवाल, न्यायमूर्ति सीके ठक्कर व मार्कडेय काटजू की खंडपीठ ने केंद्र सरकार, भविष्य निधि विभाग, आठ राज्यों असम, प. बंगाल, केरल, तमिलनाडु, त्रिपुरा, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड को नोटिस जारी कर स्थिति की जानकारी देने को कहा था। यह मामला आज तक वहीं अटका है। जहां भारतीय चाय उत्पादन उद्योग आंतरिक झगड़ों में उलझा है, वहीं इसके प्रतिद्वंद्वी होकर उभरे श्रीलंका में सालाना चाय उत्पादन करीब 277 लाख किलो हो गया। वह इसका अधिकांश भाग निर्यात करता है, जबकि बांग्लादेश अपने कुल उत्पादन 50 लाख किलो का आधा बाहर बेचता है। भारत से आयात की जाने वाली चाय 20 किलो तक के पैकेट में होती है और नई नीति के चलते उस पर आठ फीसद एक्साइज ड्यूटी लगती है। श्रीलंका या बांग्लादेश की चाय महज 10 प्रतिशत टैक्स देने पर ही बिकवाली के लिए उपलब्ध हो जाती है। दोनों देशों में चाय की खपत कम है और अब उनके लिए भारतीय बाजारों का रास्ता भी खुल गया है। भारत में सीटीसी किस्म की चाय सर्वाधिक बिकती है, जबकि इन दोनों देशों में इसकी पैदावार ही अधिक होती है। बाहर से आई सस्ती चाय ने बाजार पर कब्जा कर लिया तो चाय उत्पादन का हमारा पुश्तैनी धंधा पूरी तरह चौपट हो जाएगा। इस साल जून तक करीब छह लाख किलो चाय आयात की जा चुकी है। इसके विपरीत चाय के क्षेत्र में नए अनुसंधान, विपणन की आधुनिक तकनीक आदि पर न तो सरकार कुछ काम कर रही है और न ही चाय से मुनाफा कमाने वाली कंपनियां। इससे स्थानीय उत्पादक घबराए हुए हैं। चाय अकेले हमारे व्यापार का ही मामला नहीं है, यह देश की अंतरराष्ट्रीय छवि, राजस्व और रोजगार से जुड़ा मसला भी है। देश का दुर्भाग्य है कि जनता की आवाज की प्रतिनिधि कहलाने वाली संसद में ऐसे मसलों पर गंभीरता से बात करने की फुर्सत किसी को नहीं है।
लेखक पंकज चतुर्वेदी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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