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आशीष नंदी पर मामला दर्ज हो गया और कमल हासन की फिल्म विश्वरूपम को तमिलनाडु में दिखाए जाने की अनुमति तभी मिली जब वह इसके सात दृश्यों को हटाने को तैयार हो गए। सलमान रुश्दी को कोलकाता जाने नहीं दिया गया और नवीनतम घटनाक्रम में कश्मीर में लड़कियों के रॉकबैंड में गाने-बजाने के विरुद्ध फतवा जारी किया गया है। हाल के वषरें में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगातार प्रहार हो रहे हैं। हमेशा तर्क दिया जाता है कि इससे किसी विशेष जाति, संप्रदाय या वर्ग की भावना आहत होती है। यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ केवल मीठी-मीठी बातें करना है जिसमें किसी की निंदा या आलोचना न हो तो उस स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं है। जो अनैतिक एवं निंदनीय है उसकी निंदा तो की ही जानी चाहिए। इससे भी गलत करने वालों की भावना आहत होती है, तो क्या गलत को चुपचाप बर्दाश्त किया जाना चाहिए? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा वहां खत्म हो जाती है, जहां से किसी की भावना आहत होती है, किंतु भावनाएं आहत होने की सीमा कहां से शुरू होती है? यह हद निर्धारित करने की जरूरत है।
साहित्य एवं फिल्म में कलात्मक ढंग से बातें कही जाती हैं जिनमें कई बार प्रत्यक्ष और कई बार परोक्ष प्रहार होते हैं। कोई लेखक या कलाकार अपने लेखन या कला के जरिये अपना या समाज का आक्रोश और असंतोष व्यक्त करता है जिसका मकसद होता है वर्तमान व्यवस्था को बेहतर बनाना। आशीष नंदी के बयान से लेकर कमल हासन की फिल्म विश्वरूपम तक खासा विवाद हुआ। आशीष नंदी के विरुद्ध जयपुर में तुरंत प्राथमिकी दर्ज की गई कि उनके बयान से दलितों, आदिवासियों एवं पिछड़ों की भावनाएं आहत हुई हैं। उनकी गिरफ्तारी पर उच्चतम न्यायालय की ओर से रोक लगा दी गई है, किंतु अदालत ने उन्हें भी गैर-जिम्मेदार बयान से बचने की चेतावनी दी। इसी प्रकार विश्वरूपम के कुछ दृश्यों पर तमिलनाडु के कुछ मुस्लिम संगठनों को शिकायत थी कि इनमें इस्लाम का चित्रण आपत्तिजनक तरीके से किया गया है।
तमिलनाडु सरकार ने विधि-व्यवस्था का हवाला देते हुए फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया। मुख्यमंत्री जयललिता ने संवाददाता सम्मेलन कर सफाई दी कि राज्य सरकार के लिए प्रदेश के सभी 524 सिनेमाघरों को सुरक्षा देना संभव नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि कमल हासन से राज्य सरकार ने आग्रह किया था कि वह फिल्म दिखाकर मुस्लिम संप्रदाय के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत करें, परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने कहा कि यदि कमल हासन ऐसा करते तो यह घटना होती ही नहीं। ऐसा कहकर जयललिता ने न सिर्फ फिल्म के विरोध में कुछ मुस्लिम संगठनों के स्वर को वैधता प्रदान की, वरण एक अघोषित परंपरा भी शुरू कर दी कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से प्रमाणपत्र प्राप्त करने के बाद भी फिल्म निर्माता-निर्देशक को मौलवियों, पंडितों एवं धार्मिक संप्रदायों के स्वयंभू प्रतिनिधियों से भी अलग से प्रमाणपत्र लेना होगा। यानी बोर्ड द्वारा दिया गया प्रमाणपत्र बेमानी हो जाता है। इसका अंत कहां होगा? क्या देश के हर हिस्से में फिल्म का पूर्वालोकन होगा क्योंकि हर भाग में किसी न किसी दृश्य पर आपत्ति हो सकती है। यानी देश फिर से आजादी के पहले वाले जमाने में चला जाएगा।
सिनेमा का सेंसर प्रेस नियमन अधिनियम, 1918 के साथ शुरू हुआ जिसमें जिला पुलिस अधीक्षक को सेंसर अधिकारी बनाया गया और उसे अधिकार दिया गया कि किसी फिल्म को सेंसर कर सके। इस कानून के जरिये प्रेस को भी नियंत्रित किया गया। 1922 में इंग्लैंड रिटर्न्ड नामक फिल्म को लेकर भारी हंगामा हुआ और पूरे देश में इसका पूर्वावलोकन किया गया। बाद में सेंसर का अधिकार जिला दंडाधिकारी को दे दिया गया। 1952 में सिनेमेटोग्राफी अधिनियम बनने के बाद एक केंद्रीय सेंसर बोर्ड की स्थापना हुई और फिल्मों का सिर्फ एक प्रमाणपत्र लेने की जरूरत रह गई।
इस कानून का संशोधन 1988 में किया गया ताकि वीडियो एवं अन्य इलेक्ट्रॉनिक सिग्नल को भी नियंत्रित किया जा सके। बाद में केंद्रीय सेंसर बोर्ड की जगह केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की स्थापना की गई, क्योंकि सरकार का तर्क था कि वह सेंसर नहीं करती, वरण प्रमाणपत्र देती है। अब सवाल उठता है कि एक बार बोर्ड से प्रमाणपत्र प्राप्त करने के बाद क्या हर राज्य से अनापत्ति प्रमाणपत्र लेने की आवश्यकता है? फिर बोर्ड की जरूरत क्या है? केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने सही कहा है कि सिनेमेटोग्राफी अधिनियम में संशोधन करने की जरूरत है ताकि बोर्ड द्वारा लिए गए निर्णय को पूरे देश में बेरोकटोक लागू किया जा सके। यदि मुल्लों, पंडितों, फादरों की राय ली जाएगी तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अर्थहीन हो जाएगी।
आज असहनशीलता इस कदर बढ़ रही है कि 60-70 वर्ष पुराने कार्टूनों पर राष्ट्रीय विवाद हो जाता है। कालीदास ने कुमारसंभव में जिस प्रकार शिव-पार्वती के रति प्रसंग का चित्रण किया है, उस पर आज हिंदुत्ववादियों को घोर आपत्ति होती और शायद कालीदास आज ऐसी रचना नहीं कर पाते। शायद खजुराहो एवं अजंता-एलोरा की कलाकृतियां भी नहीं बन पातीं। शेक्सपियर ने मर्चेट ऑफ वेनिस में शायलॉक को एक यहूदी दिखाया है। यदि आज यहूदी विरोध करने लगें कि उन्हें कसाई के रूप में चित्रित किया गया है इसलिए इस नाटक पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए, तो क्या ऐसा कर दिया जाना चाहिए? यदि किसी की भावना इतनी आसानी से आहत होने लगे तो कला और साहित्य को फिर खत्म कर देना होगा। यदि किसी को किसी रचना, फिल्म, कार्टून आदि से शिकायत है तो उसे उसका विरोध भी बौद्धिक एवं कलात्मक तरीके से करना चाहिए।
लेखक सुधांशु रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं
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