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शब्द मर्यादा में सौंदर्य है और शब्द अराजकता में ध्वंस। अभिव्यक्ति की आजादी एक सुंदर विचार है, लेकिन इसकी भी मर्यादा है। संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है, लेकिन इस अधिकार के साथ ही भारत की संप्रभुता, अखंडता, अंतरराष्ट्रीय मैत्रीपूर्ण संबंधों, लोक व्यवस्था, न्यायालय अवमान, मानहानि के बंधन हैं। भारत में विचार अभिव्यक्ति को लेकर अक्सर हल्ला होता है। कई ताजा घटनाओं को लेकर ऐसी ही बहस फिर छिड़ी है। कश्मीर में लड़कियों के एक संगीत दल के विरुद्ध फतवा जारी कर दिया गया। एक कट्टरपंथी संगठन ने इस संगीत दल को धमकी भी दी। कमल हासन की फिल्म विश्वरूप को लेकर भी सांप्रदायिक आक्रामकता थी।
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जयपुर साहित्योत्सव में अपनी टिप्पणी के लिए आशीष नंदी पर केस हुआ। सलमान रुश्दी और तसलीमा नसरीन के मामले जब-तब उठते ही रहते हैं। पहले एमएफ हुसैन भी चर्चा में थे। अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकार सारी घटनाओं को एक जैसा मान रहे हैं, लेकिन इन तमाम घटनाओं के संदर्भ भिन्न हैं। हुसैन साहब ने सरस्वती व सीता के अश्लील चित्र बनाए। इसे विचार अभिव्यक्ति कहेंगे या विकार अभिव्यक्ति? संविधान निर्माता सजग थे। उन्होंने विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी, साथ ही मर्यादा के बंधन भी लगाए। संविधान सभा में प्रो. केटी शाह ने बंधनों का विरोध किया। कहा कि मुख्य प्रावधान के बजाय अपवादों पर अधिक जोर दिया गया है, वास्तव में दाएं हाथ से जो कुछ दिया है उसे तीन, चार बाएं हाथों से छीन लिया गया है।
शाह ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा पत्र में समाचार पत्रों की स्वाधीनता को प्रमुख स्थान दिया गया है। हमारे मसौदाकारों ने इसे क्यों छोड़ा? दामोदर स्वरूप सेठ ने भी कहा कि इस अनुच्छेद में जो अधिकार दिए गए हैं उनका उसी अनुच्छेद की धारा से खंडन हो जाता है। अनेक तर्क हुए, लेकिन बंधनों पर ही सहमति बनी। मर्यादाओं की सूची में अपराध प्रेरणा, शिष्टाचार, न्यायालय अवमानना आदि शब्द रखे गए, लेकिन चीनी हमले के समय वामपंथी समूहों ने संप्रभुता को भी चुनौती दी। तब भारत की संप्रभुता और अखंडता को प्रभावित करने वाली अभिव्यक्ति पर मर्यादा की बात 1963 के 16वें संविधान संशोधन में जोड़ी गई। संगीत, कला, काव्य और साहित्य सहित सभी सृजन विचार स्वातं˜य में ही खिलते हैं। आधुनिक विश्व के सभी देशों में इनका सम्मान है, लेकिन भारत और शेष विश्व में इनके उद्देश्यों में मौलिक अंतर है। भारतीय संगीत, कला, काव्य और साहित्य का लक्ष्य लोकमंगल है। यहां जो लोकमंगल नहीं साधता वह साहित्य नहीं हो सकता। यहां कृष्ण भी बांसुरी वादक हैं और शिव नटराज।
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ऋग्वेद में अग्नि व बृहस्पति को भी कवि बताया गया है। यहां विचार अभिव्यक्ति का लक्ष्य किसी की भावनाओं को चोट पहुंचाना नहीं था। भारतीय भाषाओं के सबसे लोकप्रिय कवि तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखी थी। यहां पहले से ही इस्लामी शासन था, लेकिन उनकी रामकथा में इस्लाम या तत्कालीन शासकों पर कोई टिप्पणी नहीं है। इस्लाम के सूफी संप्रदाय में संगीत परमसत्ता की इबादत रहा है। शहनाई सम्राट बिसमिल्ला खां, तबला वादक जाकिर हुसैन, शमशाद बेगम, जोहराबाई या नौशाद सभी भारत के प्रिय हैं। वे भारत और भारतीय संगीत के उपास्य हैं, बावजूद इसके कश्मीर की लड़कियों को गाने से रोकना पाक-आयातित तालिबानवाद क्यों नहीं है? गाना रोकना विचार अभिव्यक्ति पर हमला ही है। कमल हासन की विश्वरूप के साथ भी शुरू में ऐसा ही हमला हुआ, लेकिन हासन ने गलती की। उन्होंने देश छोड़ने की धमकी दी। अपने प्रशंसकों को भी निराश किया। हजारों लोग सरकार, व्यवस्था, पुलिस आदि से पीडि़त होते हैं। वे देश को दोषी नहीं ठहराते। संवैधानिक संस्थाओं में ही राहत खोजते हैं।
जयपुर साहित्य उत्सव में विद्वान थे, बुद्धिजीवी थे। उनसे शब्द संयम की न्यूनतम उम्मीद तो की ही जानी चाहिए। विचार अभिव्यक्ति जरूरी है। इस अभिव्यक्ति में शब्द मर्यादा का रस और भी जरूरी है। हम भारत के लोग एक राष्ट्र हैं, लेकिन बुद्धिजीवियों ने इस संवैधानिक शपथ और शालीन शब्द सत्ता को चुनौती दी। सदाचार और कदाचार को भी जाति वर्ग में बांटने का निष्कर्ष रखा। क्या यही विचार अभिव्यक्ति है? आघातकारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मांग अनुचित है। अथर्ववेद के प्रणेता अथर्वा ने ठीक संकल्प लिया था, हमारा बोलना, सुनना मधुर हो। घर आना घर से बाहर जाना भी मधुर हो। राष्ट्र का संवर्द्धन हर नागरिक का कर्तव्य है। संविधान का अनुच्छेद 51 क (42वां संविधान संशोधन) मूल कर्तव्य का है। प्रख्यात संविधानविद् न्यायमूर्ति डीडी वसु की टिप्पणी पठनीय है कि मूल कर्तव्य न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है। इनका उल्लंघन भी दंडनीय नहीं है, लेकिन न्यायालय ऐसे व्यक्ति की प्रेरणा पर मूल अधिकार का प्रवर्तन करने से इन्कार कर सकता है जिसने संवैधानिक कर्तव्यों में से किसी एक का उल्लंघन किया है। अनेक लोग विचार अभिव्यक्ति के अधिकार का प्रयोग करते समय संवैधानिक कर्तव्यों का ध्यान नहीं रखते। आस्था का आदर संस्कृति का मूल तत्व है, लेकिन बहुसंख्यक हिंदू समाज की आस्था का अनादर ही आधुनिक प्रगतिशीलता है।
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भारत संघ बनाम नवीन जिंदल मामले में न्यायालय ने राष्ट्रध्वज लहराने को भी विचार अभिव्यक्ति मानकर मौलिक अधिकार बताया था, लेकिन कश्मीर में राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान पर भी हमले हैं। वाक् स्वातं˜य का अधिकार बड़ा है। शब्द सत्ता बड़ी है। शब्द संयम में प्रीति है, रस है, एकता और योजकता है। शब्द दुरुपयोग में उत्तेजना है, भावना और आस्था पर आक्रमण हैं। शब्द संयम में ही सौंदर्यबोध प्रकट होता है और शब्द अनुशासनहीनता में अश्लीलता। सर्वोच्च न्यायालय ने 2005 में मौन रहने को भी विचार अभिव्यक्ति का अधिकार बताया था। राजनीति शब्दों का ही खेल है, लेकिन राजनीतिक शब्दकोष से शालीनता के तत्व गायब हैं। यहां आरोप-प्रत्यारोप हैं, पूरे बहुसंख्यक समाज को आतंकी बताया जा रहा है। संसद और विधानमंडल में बोले गए शब्दों पर न्यायिक कार्यवाही नहीं हो सकती। इसलिए संसदीय शब्द अराजकता अपनी सीमा पार कर गई है। वाक् स्वातं˜य के अधिकार का सदुपयोग सामाजिक परिवर्तन में होना चाहिए। वाद-विवाद में मधुमय संवाद की प्राचीन संस्कृति को बढ़ाना चाहिए। समाज के छोटे से हिस्से की भी भावनाओं को आहत करने वाले शब्दों का प्रयोग अभिव्यक्ति की आजादी का दुरुपयोग है। इसी तरह किसी विचार, संगीत, कला, काव्य या फिल्म को लेकर हल्ला करना भी लोकतांत्रिक समाज के लिए घातक है। राष्ट्र-राज्य अपना कर्तव्य निभाए और नागरिक अपना। कर्तव्य पालन में ही सारे मौलिक अधिकार सहज प्राप्य हैं।
लेखक हृदय नारायण दीक्षित उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं
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