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आतंकवाद की चुनौती

जागरण मेहमान कोना
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अफजल गुरु को शनिवार की सुबह दिल्ली की तिहाड़ जेल में फांसी दे दिए जाने से 13 दिसंबर 2001 को संसद पर हुए आतंकी हमले के बाद से ही लंबी न्यायिक प्रक्रिया भी खत्म हो गई। इस मामले में राजनीतिक बहस का एक लंबा सिलसिला चला, जो किसी न किसी रूप में अब भी कायम है। संसद पर आतंकी हमले को मौलाना मसूद अजहर के आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद ने अंजाम दिया था। यह वही मसूद अजहर है जो दिसंबर 1999 में कंधार विमान अपहरण कांड में रिहा किए संदिग्ध आतंकियों में शामिल था। इस हमले की साजिश मसूद अजहर ने ही रची थी और वर्ष 2002 में भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध की स्थिति तक बन गई थी।



कश्मीर के सोपोर के रहने वाले अफजल को एक और संदिग्ध के साथ संसद पर हमले के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। एक साल बाद दिसंबर 2002 में ट्रायल कोर्ट ने उसे मौत की सजा सुनाई थी। फिर अगस्त 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने उसकी मौत की सजा को बरकरार रखा। उसके बाद 2007 में अपने फैसले की समीक्षा में भी सर्वोच्च अदालत ने यह सजा नहीं बदली। 2007 से फरवरी 2013 तक के लंबे समय के दौरान अफजल की दया याचिका राष्ट्रपति के पास लंबित पड़ी रही। पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल अपने कार्यकाल के दौरान इस याचिका को लेकर निष्कि्रय ही रहीं। बहुत से लोगों का आरोप है कि संप्रग सरकार के कहने पर ही उन्होंने इस पर फैसला नहीं लिया।



राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इसी माह की शुरुआत में उसकी दया याचिका खारिज की। पिछले छह सालों के दौरान अफजल का मामला सियासी गलियारों में राजनीतिक विभाजन के साथ-साथ अल्पसंख्यकों की छवि पर हमले का एक प्रतीक बन गया था। भाजपा नेतृत्व अफजल को मिल रहे कथित संरक्षण का मुद्दा लगातार उठाता रहा। उसकी ओर से कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार पर लगातार यह प्रहार किया जाता रहा कि वह वोट बैंक की राजनीति के कारण सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी अनुपालन नहीं कर रही है। जवाब में कांग्रेस भाजपा पर कथित भगवा आतंक और हिंदुत्ववादी समूहों को बढ़ावा देने के आरोप लगाती रही है।



इसके परिणामस्वरूप अफजल से जुड़ी समूची कानूनी प्रक्रिया और न्यायिक फैसले को सूक्ष्म परीक्षण के दायरे में रख दिया गया। इस लिहाज से और भी, क्योंकि राजनीतिक रूप से संवेदनशील गुजरात दंगों का मामला भी उठता रहा, जिसमें बड़े पैमाने पर अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया गया था। इस पृष्ठभूमि के विरुद्ध अफजल मामले की प्रक्रियात्मक समाप्ति से राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर आमराय बनाने की जरूरत के लिए प्रोत्साहित होना चाहिए। जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी संगठनों की मंशा अपने पाकिस्तानी संपर्को के बल पर न केवल कश्मीर, बल्कि पूरे भारत को अशांति में झोंक देने की है। संसद और मुंबई हमले इस विषय में उल्लेखनीय हैं।



पिछले एक दशक में, खास तौर पर 9/11 की घटना के बाद बने अशांति के माहौल में दुनिया भर में मुस्लिम समुदाय को अन्याय और दिक्कतों का सामना करना पड़ा है। इस्लामिक कट्टरता को अक्सर आतंकवाद से जोड़कर देखा गया। आतंकी घटनाओं में जेहाद का ठप्पा लगा, जिसके कारण न केवल इस्लाम की छवि प्रभावित हुई, बल्कि आम मुस्लिमों को तरह-तरह की परेशानी का भी सामना करना पड़ा। शाहरुख खान की फिल्म माई नेम इज खान में दुनिया को इसी सच्चाई से परिचित कराया गया है। आम तौर पर भारतीय मुसलमान आतंकवाद की विचारधारा के खिलाफ रहे हैं और आतंकी हमले की घटनाओं में पथ से भटके कुछ ऐसे मुस्लिम युवाओं की भूमिका सामने आई है जिनके सूत्र कहीं न कहीं सीमा पार से जुड़ते हैं।



2008 के मुंबई हमले के गुनहगार डेविड हेडली से जुड़े मामले की जांच से यह साबित होता है। यह तथ्य कि जम्मू-कश्मीर अब कुछ सामान्य हो रहा है और राज्य में हिंसा कम हुई है, बताता है कि आतंक की बुनियाद धीरे-धीरे खिसक रही है और आतंकी संगठनों के लिए घरेलू संपर्क-समर्थन जुटाना मुश्किल हो गया है। हाल में कश्मीर में लड़कियों के एक संगीत बैंड को लेकर उभरे विवाद ने यही संकेत दिया कि महिलाओं की आजादी को लेकर आवाजें उठने लगी हैं और कट्टरपंथियों के फतवों का असर कम हो रहा है। इस तरह अफजल के मामले को इन तमाम घटनाओं से अलग रखकर नहीं देखा जा सकता। राजनीतिक दलों और लोकतांत्रिक संस्थाओं को इस बारे में तटस्थ भाव से सोचने की जरूरत है। अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद संवैधानिक बाध्यताओं का सम्मान करने वाले एक उदार और सहिष्णु लोकतंत्र का विचार ही भारतीय राष्ट्र-राज्य के लिए महत्वपूर्ण है-इसलिए और भी, क्योंकि हमारा देश एक बहुसांस्कृतिक लोकतंत्र है।



अफजल के मामले ने संस्थागत अखंडता और जांच एवं न्यायिक प्रक्रिया की सत्यनिष्ठा की बहस को एक बार फिर शुरू किया है। अफजल को फांसी देने के तुरंत बाद दिल्ली और जम्मू-कश्मीर की एजेंसियां चौकन्नी हो गई हैं। उनकी ओर से सतर्कता के ऐसे कदम उठाए जा रहे हैं जिन्हें कुछ लोग एक लोकतंत्र के लिए अनुचित मान सकते हैं। जैसा कि एक प्रभावित छात्र ने बताया, भारत में मुसलमान होना पुलिस की निगाह में संदिग्ध होना है और आज एक कश्मीरी होना तो उससे भी खराब है। अगले एक दशक तक आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों से प्रभावी तरीके से निपटना भारत के लिए कठिन कार्य होगा। अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र और 2014 में काबुल से अमेरिकी सेनाओं की वापसी के बाद पैदा होने वाली स्थिति भी चिंता का कारण है।




वह इसलिए, क्योंकि दिसंबर 2001 के त्रासद हमले के एक दशक बाद भी संगठित आतंकवाद से निपटने की भारतीय राष्ट्र-राज्य की क्षमता संदेह के घेरे में है। अफजल को वर्ष 2002 में सजा-ए-मौत सुनाने वाले जस्टिस एसएन ढींगरा ने इस तथ्य पर क्षोभ प्रकट करते हुए कि 2001 में संसद पर हमले के बाद से अभी तक कुछ नहीं बदला, रेखांकित किया है कि न्यायिक स्तर को भूल जाइए, भारत में किसी भी स्तर पर कोई नीति नहीं है। त्वरित न्याय सिर्फ वीआइपी पीडि़तों के लिए ही है, गरीबों के लिए नहीं। यह धारणा और इस धारणा के पीछे की वास्तविकता दृढ़ निश्चय के साथ बदली जानी चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बदलाव का यह मसला संसद के आगामी बजट सत्र में उठेगा और इस पर तटस्थ भाव से विचार किया जाएगा।



लेखक सी. उदयभाष्कर सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं




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