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भारतीय जनता पार्टी के लिए नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने की एक शर्त है। अगर कट्टर हिंदूवादी शक्तियां मसलन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद या बजरंग दल कहीं मोदी के आसपास फटकती दिखीं तो मोदी की दस वर्षो में तराशी विकास के मसीहा की छवि एक रात में धूमिल हो जाएगी और उसकी जगह गुजरात दंगों वाली छवि ले लेगी। मुश्किल यह है कि पार्टी इस समय पूरी तरह संघ की गिरफ्त में है और यह बात कहने की हिम्मत हाशिये पर डाल दिए गए लालकृष्ण आडवाणी को छोड़कर पार्टी के अन्य किसी नेता में नहीं है। ये लोग (भाजपा) हमारी मेहनत पर आज सत्ता सुख भोग रहे हैं, इन्हें शर्म आनी चाहिए। ये ताजा उद्गार हैं विश्व हिंदू परिषद के मुखिया अशोक सिंघल के।
विहिप के दूसरे सबसे बड़े और फायरब्रांड हिंदू नेता प्रवीण तोगडि़या का कहना है यह धर्म संसद राजनीतिक दिशा बदलने में निर्णायक सिद्ध होगी। साफ है कि भाजपा चाहे या न चाहे, उसके लिए हिंदुत्व की गैर-राजनीतिक ताकतों के चंगुल से निकलना मुश्किल होगा। प्रश्न है कि क्या गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी पुरानी छवि पर वापस जाने को तैयार होंगे और तब क्या जनता उनके विकास वाले चेहरे से सहमत हो सकेगी? बीती सदी के नौवें दशक से भारतीय समाज काफी बदल गया है। रोटी के लिए संघर्ष कर रहे भारत और रोटी जीत चुके इंडिया, दोनों को ही मंदिर में कोई दिलचस्पी नहीं रही। भावनात्मक मुद्दों को भुनाने का दौर खत्म हो चुका है। संघर्षरत भारत और प्रगतिशील इंडिया अब भ्रष्टाचार और दुष्कर्म पर उद्वेलित होता है, मंदिर पर नहीं।
देश में 2009 के आम चुनाव में 55 करोड़ से ज्यादा हिंदू वोटर थे, लेकिन भाजपा को वोट मिले आठ करोड़ से भी कम। यानी हर सात हिंदुओं में से छह ने उसे खारिज किया। अयोध्या विवाद के चरम काल में 1991 का चुनाव हो या 1996 का, इस दल का वोट प्रतिशत लगभग एक ही रहा और 1998 एवं 1999 के चुनावों में जो चार प्रतिशत बढ़ा वह बाद के दोनों चुनावों में बुरी तरह नीचे आ गया। देश के दूसरे सबसे बड़े राजनीतिक दल भाजपा का वापस मंदिर और कट्टर हिंदुत्व जैसे मुद्दों पर जाना न केवल इस दल में शीर्ष पर बैठे लोगों की संकुचित सोच को दर्शाता है, बल्कि यह भी बताता है कि क्रियाशील प्रजातंत्र में भी जरूरी नहीं कि समय के साथ राजनीतिक दलों में परिपक्वता आए, जिससे इस शासन पद्धति की गुणवत्ता बेहतर हो। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि मजबूत वैचारिक आधार पर खड़े आरएसएस सरीखे अनुशासित संगठनों की भी एक सीमा है, जो उनकी सोच में बदलाव को रोकती है और तब जो स्पष्ट है वह भी दिखाई नहीं देता।
जिस देश में 100 करोड़ से ज्यादा हिंदू हों और महज 15 करोड़ मुसलमान उसमें अगर हिंदुत्व आधारित राजनीतिक दल को आठ करोड़ से भी कम वोट मिलें तो क्या उसे मंदिर मुद्दे अथवा कट्टर हिंदुत्व की ओर वापस जाना चाहिए? क्या इन आंकड़ों से स्पष्ट नहीं कि आम तौर पर हिंदू उदारवादी होता है और एक सीमा से अधिक कट्टरता से उसे गुरेज है? वैसे ही जैसे कट्टर अल्पसंख्यकवाद से देश के मुसलामानों को भी एतराज होने लगा है। लिहाजा, दोनों राष्ट्रीय दलों को महत्वाकांक्षी भारत की ओर देखना होगा, जहां भ्रष्टाचार, रोजगार, अमीरी-गरीबी की बढ़ती खाई और बेहतर जीवन जैसे मुद्दे हैं, न कि जाति और मजहब। इसे दूसरे तथ्यों से भी सिद्ध किया जा सकता है। विवादित ढांचा गिराने के बाद से आज तक छह आम चुनाव हुए।
इस घटना के तत्काल पहले यानी 1991 के चुनाव या घटना के चार साल बाद यानी 1996 में हुए चुनाव में हिंदुत्व की भावना अपने चरम पर होगी, लेकिन इसके बाद से भाजपा के लिए कांग्रेस की बराबरी कर पाना मुश्किल होता गया। 2009 के आम चुनाव में जहां कांग्रेस को कुल 28 प्रतिशत या लगभग 12 करोड़ वोट मिले, वहीं भाजपा को महज 18 प्रतिशत यानी आठ करोड़ से भी कम वोट मिले। क्या यह सिद्ध नहीं करता कि अगर कोई पार्टी एक सीमा से आगे हिंदूवादी कट्टरता अपनाती है तो बहुसंख्यक समाज उसे न केवल खारिज कर देगा, बल्कि उस गुस्से में वह इससे भी अधिक दकियानूसी सोच से उपजे क्षेत्रीय दलों का दामन थाम लेगा? भाजपा का जनाधार लगातार गिरना और जाति-आधारित क्षेत्रीय दलों का जनाधार बढ़ना यही संकेत देता है। यह अब जगजाहिर है कि संघ अपने इस अनुषांगिक राजनीतिक संगठन को पूरी तरह नियंत्रण में ले चुका है। अब न तो बड़े कद के अटल बिहारी वाजपेयी परिदृश्य में हैं और न ही लालकृष्ण आडवाणी।
सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, वेंकैया नायडू या राजनाथ सिंह वाजपेयी-आडवाणी सरीखे जननेता नहीं हैं। लिहाजा संघ के सामने तन कर खड़े होने की क्षमता इनमें नहीं है। नतीजा यह हुआ कि इन्हीं में से एक ज्यादा लचीले नेता को पार्टी के शीर्ष पद पर बिठाकर संघ ने अपना नियंत्रण मजबूत करना शुरू कर दिया। इसी से जुड़ा एक और प्रश्न है। क्या वजह है कि अपने आठ दशक से अधिक समय लंबे सफर के बावजूद संघ समाज के और अधिक महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपनी शक्ति नहीं लगा पाता और कोई अन्ना हजारे आकर उन मुद्दों पर बगैर किसी संसाधन के, बिना किसी काडर के पूरे समाज को उद्वेलित कर देता है और तंत्र को झनझना देता है? बेहद संगठित, राष्ट्रवाद की विचारधारा से ओतप्रोत और प्रामाणिक रूप से अनुशासित संघ से क्या यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि जब वैश्वीकरण के दौर में राष्ट्रवाद की अवधारणा ही कठघरे में हो तो उसके लिए व्यापक जनहित का भाव अंगीकार कर लेना क्या श्रेयस्कर नहीं रहेगा और क्या इस भाव में मंदिर मुद्दे की जगह भ्रष्टाचार, मानव विकास, विश्व बंधुत्व नहीं आता, जो हिंदू धर्म का मूल रहा है?
लेखक एनके सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं
Tag:भारतीय जनता पार्टी, नरेंद्र मोदी,राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ,विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल ,भाजपा,BJP, Narendra Modi,
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