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कैग की बदलती भूमिका

जागरण मेहमान कोना
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vinod raiकॉलेज शिक्षा के तुरंत बाद मैं प्रशासनिक सेवा में आ गया और 40 सालों से नौकरशाह के रूप में काम करता रहा। एक परिभाषा के अनुसार नौकरशाह एक बंधे-बंधाए ढर्रे पर चलता है और फैसले लेते समय वह समझ का इस्तेमाल नहीं करता। प्रसिद्ध लेखक फ्रेंक हुबर्ट ने लिखा है-नौकरशाही नवाचार को नष्ट कर देती है। नौकरशाह से अधिक कोई भी व्यक्ति नवप्रवर्तन से नफरत नहीं करता, खासकर ऐसे नवाचार जिनसे बेहतर परिणाम हासिल किए जा सकते हैं। जड़, नकारात्मक और प्रतिक्रियाओं से बचने वाले विशेषणों से हमें नवाजा जाता है। पर मेरा मानना है कि ये तमाम विशेषण अनुचित हैं।

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सरकार में सुशासन का मतलब है अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए जनहित में फैसले लेना। वर्तमान समय में शासन शब्द इतना व्यापक हो गया है कि यह केवल सरकार तक सीमित नहीं रह गया है। शासन अब कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका से विस्तारित होकर सिविल सोसाइटी, सामाजिक संगठन, मीडिया और जनता तक फैल गया है। ये तमाम अंग पहले से कहीं अधिक जोरदारी से आवाज उठा रहे हैं और सरकार से बेहतर प्रदर्शन की अपेक्षा रखते हैं। हमें एक ऑडिटर को इसी भूमिका में देखना चाहिए। सिविल सोसाइटी की अधिकाधिक रुचि को मद्देनजर रखते हुए क्या हमारा काम केवल सरकारी खर्च का हिसाब-किताब जांचने और रिपोर्ट संसद के पटल पर रखने तक सीमित है। क्या संसद में रिपोर्ट पेश करते ही हमारी संवैधानिक जिम्मेदारी पूरी हो जाती है? इस सवाल का जवाब पाने के लिए हम अन्य संसदीय लोकतंत्रों के सर्वोच्च लेखा संस्थानों की संवैधानिक हैसियत पर भी नजर रखते हैं।


यह सब एक ऐसे समय में महत्वपूर्ण है जब देश के शीर्षस्थ नेतृत्व की ओर से हमें अपनी मर्यादा में रहने और सरकार के खर्च के हिसाब-किताब की जांच तक सीमित रहने की नसीहत दी जा रही हैं। हमें सलाह दी जाती है कि हम नीतिगत समीकरणों के परीक्षण से दूर रहें। हमारे दिमाग में एक सवाल बराबर उठता रहता है कि क्या संसद और असल में तमाम लोग हमसे केवल खर्च का जोड़-घटाव करवाना चाहते हैं या फिर इससे अधिक की अपेक्षा रखते हैं? अगर लोक लेखा परीक्षक केवल खर्च का जोड़-घटाव रखने तक सीमित होते तो दुनिया भर में महालेखापरीक्षकों को इतना उच्च स्थान, कार्यपालिका से स्वतंत्रता और संवैधानिक दर्जा नहीं दिया जाता। स्पष्ट है संविधान में हमसे एक अकाउंटेंट से कहीं अधिक की अपेक्षा रखी गई है। आज भारत में नागरिक समाज जागरूक व मुखर हो रहा है और सरकार को उसके फैसलों के लिए जवाबदेह बना रहा है। आज आम लोग सरकार के साथ वार्ता और फैसलों में भागीदारी चाहते हैं। वे नीति निर्माण में पारदर्शिता चाहते है.

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आज का युवा चाहता है कि देश के राजनेता संविधान द्वारा निर्मित संस्थानों के अनुरूप चलें, उनका उल्लंघन न करें। वह सुशासन के लिए नए नैतिक ढांचे का निर्माण करना चाहता है। अब लोग मुख्यधारा में आ रहे हैं और अपनी आवाज उठा रहे हैं। यह नि:शब्द बहुमत की अवधारणा के उलट है। अब से पहले वोट न डालने और ड्राइंग रूम की बहस में लिप्त रहने वाले मध्यमवर्गीय युवा वर्ग को कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता था। प्रशासन भी उनकी अवहेलना करता था, क्योंकि वे खुद को दबाव डालने वाले समूहों के रूप में विकसित नहीं कर पाए थे, किंतु पिछले साल जनांदोलनों में उमड़ी भीड़ को देखकर राजनीतिक पार्टियां भौचक रह गई हैं। समाज में एक बड़ा बदलाव आया है। क्या लोकलेखा परीक्षण को भी अपने लक्ष्यों और रवैये में इसी के अनुरूप बदलाव नहीं लाना चाहिए? हम सरकारी खर्चो के हिसाब-किताब के परीक्षण में तीन रूपों में बदलाव लाए हैं।


पहला बदलाव तो यह है कि हम अपना काम इस दृढ़ विश्वास के साथ करते हैं कि प्रशासन की किसी इकाई की तरह हम पर भी शासन के सुधार की जिम्मेदारी है। हमारे लेखापरीक्षणों की संस्कृति में आमूलचूल बदलाव आया है। हम अब सकारात्मक रिपोर्टिग करते हैं। केवल कमी ढूंढने के बजाय अब हम उन बिंदुओं को भी रेखांकित करते हैं जिनसे बेहतर परिणाम लाए जा सकते थे। दूसरे, हम अपने लेखा परीक्षण आकलनों में सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों पक्षों को व्यापकता प्रदान करने के लिए संलग्नक के तौर पर छोटी पुस्तिकाएं और रिपोर्ट भी तैयार करते हैं। इनसे विषय विशेष पर लोगों को तमाम महत्वपूर्ण संदर्भ जानकारी मिल जाती है और उनकी जागरूकता बढ़ती है। नतीजतन वे सरकार से बेहतर योजनाएं और उनके क्रियान्वयन की मांग करते हैं। तीसरा महत्वपूर्ण बदलाव यह किया गया है कि बेहतर अंतरदृष्टि और सामाजिक क्षेत्र की अधिक व्यापक कवरेज के लिए हमने सामाजिक परीक्षण को खुले दिल से समर्थन दिया है। हम अकसर सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन की जमीनी हकीकत से अनजान रहते हैं। इसे जानने के लिए हम क्षेत्र विशेष में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे नागरिक समूहों के संपर्क में आते हैं और योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन के बारे में उनसे सीखते हैं।



इन तीनों पहलों के आधार पर हमें अपनी रिपोर्ट को बेहतर और धारदार बनाने में सहायता मिली है। खुद अपने को जांचने के लिए हम अन्य देशों के सर्वोच्च लेखा परीक्षण संस्थानों में नवीनतम रुझानों पर नजर रखते हैं। पूरी दुनिया में महा लेखा परीक्षक शासन में अधिकाधिक पारदर्शिता पर जोर दे रहे हैं। अन्य देशों में लेखा परीक्षकों का सशक्तीकरण किया जा रहा है ताकि सरकार को वित्तीय रूप से जवाबदेह ठहराया जा सके। अमेरिका में जनरल अकाउंटिंग ऑफिस (जीएओ) का पुनर्गठन किया गया और उसके अधिकारों और जिम्मेदारियों में वृद्धि की गई। लोक लेखा की परंपरागत भूमिका वित्तीय लेन-देन की जांच पड़ताल करना है, पर क्या आम आदमी का इससे कोई सरोकार नहीं है कि सरकार धन को कैसे खर्च करती है? दरअसल लोगों का ध्यान तो मूल मुद्दों पर रहता है, जो उनके रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित करते हैं। ये मुद्दे हैं-खाद्य, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि। मैं एक बार फिर से सवाल दोहराता हूं कि रिपोर्ट संसद में पेश करके क्या ऑडिटर इन मुद्दों का समाधान पेश करते हैं? क्या ऑडिटर परंपरागत पद्धति का ढांचा तोड़े बिना इस कर्तव्य की पूर्ति कर सकते हैं? अगर सुशासन का पैमाना लोगों के जीवनस्तर में सुधार है तो क्या यही पैमाना प्रभावी लोक लेखा परीक्षण का नहीं होना चाहिए?




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