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इलाहाबाद में 10 फरवरी की शाम जो हादसा हुआ उसे सिर्फ नियति का खेल नहीं माना जा सकता। इसलिए और भी नहीं, क्योंकि इस घटना के लिए व्यवस्थाओं की खामी मुख्य रूप से जिम्मेदार नजर आ रही है। जो लोग यह दलील दे रहे हैं कि कुंभ स्नान के लिए उम्मीद से अधिक लोगों के जुट जाने के कारण व्यवस्थाएं कमजोर पड़ गईं और इसलिए इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर इतना बड़ा हादसा हो गया वे दरअसल शासन-प्रशासन और रेलवे को उनकी जिम्मेदारी से बचाने की कोशिश कर रहे हैं। प्रशासन को पहले से ही पता था कि मौनी अमावस्या के दिन इलाहाबाद में तकरीबन 3 करोड़ लोग जुटेंगे। कुल मिलाकर हमने एक बार फिर अपने सनातन उनींदेपन का नजारा दुनिया को दिखाया। ऐसा नहीं है कि दुनिया के दूसरे देशों में हादसे नहीं होते, मगर वहां ऐसे हादसे तभी होते हैं जब वाकई स्थितियां नियंत्रण से बाहर हो जाएं। हमारे यहां ऐसा नहीं है। हम तो कहर को आमंत्रित करते हैं।
दुनिया का शायद ही कोई ऐसा देश हो जिसके हाथ-पांव कुंभ जैसी भीड़ को नियंत्रित करने के नाम पर फूल न जाएं। हमारे यहां करोड़ों लोग तरह-तरह के कष्ट सहते हुए कुंभ में जुटते हैं और अपना परलोक सुधारते हैं। वे कभी शिकायत ही नहीं करते कि उन्हें किसी तरह की परेशानी हुई। अगर किसी सामान्य वर्ष में माघ मेले के दौरान इस तरह की घटना हो जाती तो चौंका जा सकता था, माना जा सकता था कि प्रशासन ने अनुमान लगाने में चूक की, लेकिन यह कुंभ मेला था। धरती पर आस्था का सबसे बड़ा जन सैलाब और सच्चाई तो यह है कि इसे लेकर पहले से ही जितने अनुमान लगाए गए थे उनमें से 95 फीसद से ज्यादा सही निकले। पहले से ही मीडिया और प्रबंधन एजेंसियों ने अनुमान लगा लिया था कि मौनी अमावस्या के दिन बहुत बड़े पैमाने पर भीड़ जुटेगी। बावजूद इसके प्रशासन सोया रहा। शायद यह बुरा लगे, लेकिन प्रशासन का उनींदापन देखकर तो ऐसा ही लगा जैसे वह किसी भयावह घटना के इंतजार में था, ताकि उसकी नींद टूटे। अगर ऐसा न होता तो महज प्लेटफॉर्म में लोगों को संभालने की छोटी-सी जिम्मेदारी, इतने बड़े हादसे का सबब न बनती।
इलाहाबाद रेलवे स्टेशन में मौत ने जो तांडव किया उससे ज्यादा खौफनाक यह देखना था कि तकरीबन दो घंटे तक प्लेटफॉर्म और उसकी सीढि़यों में लोग लावारिस मुर्दो की तरह पड़े रहे। लग ही नहीं रहा था कि इस शहर में शासन और प्रशासन भी है। इलेक्ट्रानिक मीडिया लाइव खबरें दिखा रहा था। शाम सात बजे के आसपास से समाचार चैनल इस दुर्घटना को लेकर चीख रहे थे, लेकिन घायल और मृत लोगों को प्लेटफॉर्म से उठाने का काम घंटों बाद शुरू हुआ। अगर दुर्घटना के तुरंत बाद प्रशासन अलर्ट हो जाता और घायलों को सही समय पर प्राथमिक उपचार की व्यवस्था हो जाती तो शायद मरने वालों की संख्या एक तिहाई भी न होती। यह स्थिति देखना-सुनना इसलिए भी संवेदनहीनता की पराकाष्ठा थी, क्योंकि मौत से जूझते लोग घंटों प्लेटफॉर्म पर तड़पते रहे। उनके परिजन उनके पास बैठे रहे और अपनी असहायता की इबारत लिखते रहे। शासन-प्रशासन घंटों तक सोया रहा। अब इसके लिए अगर प्रदेश सरकार भीड़ ज्यादा होने और सड़कों पर ट्रैफिक होने की बात कहती है तो यह जले पर नमक छिड़कने जैसा है, क्योंकि सरकार को पहले से ही पता था कि यह स्थिति होनी है। इलाहाबाद के मुख्य रेलवे स्टेशन पर 5 और 6 नंबर प्लेटफॉर्म पर मची भगदड़ से तीन दर्जन लोग मर चुके हैं और कई लोग मौत से जिंदगी की जंग लड़ रहे हैं। अगर घायलों को, कुचले हुए दम तोड़ते तीर्थयात्रियों को अस्पताल तक पहुंचाना मुश्किल हो रहा था तो क्या इतने बड़े रेलवे स्टेशन में पहले से प्राथमिक उपचार की व्यवस्था के बारे में नहीं सोचा जा सकता था? रेलवे स्टेशन के आसपास भी तो तमाम नर्सिग होम, प्राइवेट क्लीनिक और छोटे-बड़े अस्पताल हैं। क्या वहां से डॉक्टरों को लाने की व्यवस्था नहीं की जा सकती थी? इतने बड़े रेलवे स्टेशन को यह पहले से ही मानकर चलना चाहिए था कि जब करोड़ों की तादाद में लोग प्लेटफॉर्म पर उतरेंगे तो इससे भी बुरी स्थिति पैदा हो सकती है, लेकिन आदतन प्रशासन भगवान भरोसे रहा, सोया रहा।
कल्पना कीजिए अगर खबरिया चैनल नहीं होते तो घायलों को अस्पताल पहुंचाने में अभी और कितना वक्त लगता? जब हम अर्थव्यवस्था के वैश्विक परिदृश्य को देखते हैं तो लगता है हम वाकई ताकतवर हो रहे हैं। जब हम आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी की बात करते हैं तो हम अपने को एक महाशक्ति के रूप में पाते हैं। बाजार, अर्थव्यवस्था, सैन्य क्षमता हर जगह हम आज तकनीकी रूप से भले विकासशील दुनिया से नाता रखते हों, हकीकत में हम बहुत आगे जा चुके हैं। बावजूद इसके हमारी आदतों और हमारे मूल स्वभाव में कोई विशेष फर्क नहीं आया। गुन्नार मिर्डल ने पिछली सदी के छठे दशक में कहा था, भारत ऊंघते हुए लोगों का देश है। वाकई हम आज भी उनींदे हैं। यह बात और है कि पीठ थपथपाने पर या अंकुश कोंचने पर हम दहाड़कर खड़े हो जाते हैं। अगर ये स्थितियां न आएं तो कहना चाहिए कि हम वैसे ही ऊंघते हुए गजराज हैं कि हम पर चाहे जो कोई सवारी करे, हम अपनी ही मस्ती में मस्त रहते हैं। हम कब समझेंगे कि मूर्खताओं पर जीना बुद्धिमानी नहीं है। हम कब तक इसे अपना बुनियादी स्वभाव मानते रहेंगे?
लेखिका मीरा राय स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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