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वर्ष 2013 के महाकुंभ में कुछ ऐसी परंपराएं कायम हुईं, जो इससे पहले न तो खुद इलाहाबाद और न किसी और आयोजन में देखने को मिलीं। इलाहाबाद के मुस्लिम धर्मगुरुओं ने न केवल पतितपावनी गंगा की सफाई की, बल्कि संगम के जल में खडे़ होकर गंगा की सलामती और अविरल प्रवाह के लिए दुआ भी की। जिस समय शहर के धर्मगुरु यह सब कर रहे थे, उस समय देश-विदेश का मीडिया और लाखों की तादाद में श्रद्धालु मुस्लिम धर्मगुरुओं की इस पहल को देख और सराह रहे थे। पिछले 20 वर्षो में इसी परंपरा की कई ऐसी घटनाएं हुई हैं, जहां धर्म अपने परंपरागत बाड़े तोड़कर प्रकृति के करीब आ पहुंचा है।
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उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर में प्रतिदिन 1200 किलो फूल और लगभग 500 किलोग्राम पंचामृत क्षिप्रा नदी में बहाया जाता है। एक दिन यहां के पुजारियों ने तय किया कि हम फूलों और पंचामृत से पवित्र क्षिप्रा को मैला नहीं करेंगे और इससे मीथेन गैस बनाएंगे। मंदिर के लिए अब हम बिजली नहीं खरीदेंगे और मंदिर के अपशिष्ट से बनी मीथेन से ही इसे जगमग करेंगे। सन 2000 में जब खालसा पंथ की त्रिशती मनाई गई तो तख्त केशगढ़ साहिब ने श्रद्धालुओं को प्रसाद के रूप में आम, जामुन और आंवले के पेड़ दिए, ताकि सेवक इन्हें अपने घर ले जाकर रोपें और कई पीढि़यां इस प्रसाद से लाभान्वित हों। अफसोस, खालसा के अन्य तख्तों ने इस परंपरा को सहजने की कोशिश नहीं की।
उत्तर प्रदेश के रामपुर में सिख समाज के लोगों ने अपने जत्थेदारों के नेतृत्व में दो बड़े पुलों का निर्माण किया, जिनकी लागत डेढ़ करोड़ रुपये से भी ज्यादा थी। रूस और आल्पस पर्वत के इलाकों में करीब 60 वर्ष पूर्व बादल फटने की घटनाएं अक्सर होती थीं जिनसे धन-जन की बहुत हानि होती थी। रूस के एक मुस्लिम धर्मगुरु ने हदीस के हवाले से पैगंबर मोहम्मद का यह बयान दोहराया कि जब इंसान खुदा के बनाए पेड़-पौधों पर जुल्म करता है तो जलजला आता है और इंसान पर खुदा का कहर टूटता है। इस मुस्लिम धर्मगुरु ने पहले जनसहयोग और फिर सरकार के सहयोग से उस इलाके में बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण किया और पिछले 50 वर्षो में वहां बादल फटने की एक भी घटना नहीं हुई। हमारी सनातन संस्कृति में वृक्ष देवो भव, सूर्य देवो भव कहकर धर्म को प्रकृति से जोड़ने का प्रयास किया गया है। स्मृतियों में नदियों, तालाबों में मल-मूत्र विसर्जन को पांच महापापों की श्रेणी में रखा गया है।
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हमारे यहां धर्म के अनुसार जितना अनिवार्य घर के सामने नीम का पेड़ होना था, उतना ही आवश्यक एकादशी के दिन आंवले के पेड़ के नीचे भोजन बनाना और वहीं बैठकर भोजन करना भी था। केवल इतनी कवायदों से हम दमा से बचे रहते थे और हमारा वात-पित्त-कफ संतुलित रहता था। हमारे चार पुरुषार्र्थो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में धर्म की शर्ते तब तक पूरी नहीं होती थीं, जब तक आप बगीचे, तालाब और कुंओं का निर्माण नहीं करते थे। धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में अर्जुन कृष्ण से पूछते हैं कि जिसके पास मेरे जैसा दिव्य नेत्र नहीं है, वह आपको कहां देखेगा? बदले में कृष्ण कहते हैं कि मैं पीपल और गंगा में अवस्थित हूं। कृष्ण ने जब ब्रज क्षेत्र में इंद्र की उपासना पर रोक लगााई तो गोकुलवासियों ने उनसे इंद्र का विकल्प पूछा। कृष्ण ने किसी देवी-देवता या मूर्ति पूजा का विकल्प नहीं खोजा, बल्कि अमृत पुत्रों को प्रकृति का पुत्र होने का संदेश दिया और गोवर्द्धन पर्वत ब्रजवासियों का उपास्य बना।
यह दुखद है कि कृष्ण का यह क्रांतिधर्मा चरित्र लोगों के सामने नहीं लाया गया और साजिशों के तहत उन्हें केवल रासरचयिता के रूप में ही अंकित किया गया। महबूबे इलाही निजामुद्दीन औलिया अपने मुरीदों को अपनी खानकाह में प्रसाद के रूप में फल देते और कहते कि फल खाने के बाद इसकी गुठली को जमीन में दबा देना, ताकि तुम्हारी आने वाली नस्लों को फकीरों की दुआ मिलती रहे। दरअसल, प्रकृति यदि अपने सहज रूप में कहीं जीवित है तो दलितों-पिछड़ों और आदिवासियों के यहां है। समाज का संपन्न तबका जहां प्रकृति को लूटने में मशगूल है, वहीं यहां अब भी पेड़, नदी और तालाब गंगा मैया हैं।
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काशी और इलाहाबाद के मल्लाह रात में आपको गंगा में नाव की सवारी नहीं कराएंगे, क्योंकि मैया अभी सो रही हैं। सुबह जब ये लोग गंगा में स्नान करने या नाव चलाने जाते हैं तो कंकड़ मारकर गंगा को जगाते हैं, आचमन करते हैं, फिर नाव चलाते हैं। बीसवीं सदी के भविष्यद्रष्टा राममनोहर लोहिया का धर्म और प्रकृति के सहसंबंधों पर बड़ा प्रखर चिंतन था। वह लिखते हैं, धर्म वही है जिसे धारण किया जा सके, अत: प्रकृति भी अपने सहज रूप में धर्म है। धर्म और विज्ञान यदि कहीं टकराते हैं तो उसके पीछे मानवीय स्वभाव दोषी है। एक दिन ऐसा आएगा जब प्रकृति, धर्म और विज्ञान की मान्यताओं में कोई विरोधाभास नहीं होगा। जिस दिन मानव उस सोपान पर पहंुचेगा उस दिन धर्म-विज्ञान-प्रकृति का टकराव स्वत: समाप्त हो जाएगा। आज का धर्म प्राकृतिक नहीं है, बल्कि कर्मकांडी हो चला है। आदिम समाज में सभ्यता के विकास क्रम में मानव कहीं प्रकृति के साथ अमानवीय न हो जाए, इसलिए उसे धर्म से बांधा गया। आज धर्म और प्रकृति के रिश्तों की डोर टूट गई है, तभी हमारे बच्चे इंद्रधनुष देखकर पूछ बैठते हैं कि यह किस लैब में तैयार हुआ और दूध किस फैक्टरी में बनता है? यह सुखद है कि हमारे धर्मगुरु इस चुनौती को स्वीकार कर रहे हैं, लेकिन इन कोशिशों को कुछ और अधिक परवान चढ़ाने की जरूरत है।
लेखक कौशलेंद्र प्रताप यादव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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