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सुरक्षा से समझौते की राजनीति

जागरण मेहमान कोना
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संसद पर हमले के साजिशकर्ता अफजल गुरु की फांसी के मुद्दे पर राजनीति तेज हो गई है। करीब आठ साल तक सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लटकाए रखने के बाद केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति से उसकी दया याचिका रद करने की सिफारिश की। सवाल उठ रहे हैं कि सरकार ने इतने साल तक मामला लटकाने के बाद अचानक यह फैसला क्यों लिया। अभी तक दया याचिका को उसके क्रम से निपटाने की बात करने वाली सरकार को क्रम क्यों याद नहीं रहा? राजीव गांधी और बेअंत सिंह के हत्यारों की दया याचिका पर फैसला क्यों नहीं हो रहा? सरकार ने अफजल के परिवारवालों को फांसी से पहले उससे मिलने का मौका क्यों नहीं दिया? ऐसा कर सरकार ने कश्मीर के लोगों को शिकायत का एक वाजिब कारण दे दिया है।


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राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने तुरंत इस मामले को उठा लिया। अब कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री ने इस पर नाराजगी जाहिर की है। यह ऐसी सरकार है जिसके प्रमुख लोग और पार्टी के बड़े नेता अपनी ही सरकार के फैसलों पर विरोध या नाराजगी जाहिर करते हैं। सवाल है कि फैसले के समय ये लोग कहां रहते हैं। अफजल को फांसी देने के मुद्दे को कांग्रेस तुरुप के पत्ते की तरह इस्तेमाल करना चाहती थी। उसे लग रहा था कि इससे जयपुर में हिंदू आतंकवाद पर गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के बयान के खिलाफ भाजपा के विरोध की धार कुछ कुंद होगी। भाजपा को काना बनाने के लिए कांग्रेस ने अपनी दोनों आंखें फोड़ लीं। जयपुर में मुस्लिम मतदाताओं को खुश करने के बाद अफजल को फांसी देकर हिंदुओं को खुश करने की कोशिश हो रही है।


कांग्रेस ने यह पहली बार नहीं किया है। शाहबानो मामले पर मुस्लिम कट्टरपंथियों के सामने झुककर उसने सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदल दिया। फिर हिंदुओं को खुश करने के लिए अयोध्या में राम मंदिर का ताला खोला और शिलान्यास करवाया। नतीजा यह हुआ कि न खुदा ही मिला न विसाले सनम। उसके बाद से कांग्रेस को केंद्र में कभी अपने दम पर बहुमत नहीं मिला। राजीव गांधी का बलिदान भी यह नहीं करा पाया। जयपुर के चिंतन शिविर से यह साफ है कि कांग्रेस 2014 के चुनाव में सांप्रदायिक कार्ड खेलने की तैयारी कर रही है। 2005 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने, पुनर्विचार याचिका रद होने और अफजल की पत्नी की ओर से दया याचिका आने के बाद सरकार के सामने दो विकल्प थे। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू करना या दया याचिका को स्वीकार अथवा रद करना। सरकार ने तीसरा रास्ता अपनाया। उसे मामले को लटकाए रखने में राजनीतिक लाभ नजर आया।


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अफजल के साथ ही राजीव गांधी और बेअंत सिंह के हत्यारों की फांसी की सजा को लटका कर रखने में सोच राजनीतिक थी। तीनों मामले तीन राज्यों कश्मीर, तमिलनाडु और पंजाब के नजरिये से राजनीतिक रूप से संवेदनशील थे। सुप्रीम कोर्ट बार-बार कह रहा था कि फांसी की सजा पाए लोगों की दया याचिका को ज्यादा समय तक लटकाना उनके साथ क्रूरता है। फलस्वरूप यह देरी उनकी फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदलने का आधार बन सकती है। सरकार इसी नीति पर चल रही थी कि उसे इन मामलों में कोई राजनीतिक फैसला न करना पड़े। ऐसी स्थिति आ जाए कि कानून अपने आप फैसला कर दे और सरकार कह सके कि वह तो अदालत के फैसले को लागू कर रही है। सरकार की सारी योजना पर पानी फेर दिया मुंबई हमले के अभियुक्त अजमल कसाब ने। उसकी फांसी के लिए सरकार को कतार तोड़नी पड़ी। उसके बाद से अफजल की फांसी के लिए सरकार पर दबाव बढ़ने लगा।


अफजल की फांसी को लेकर कश्मीर में भावनाएं भड़क सकती हैं, इसका अंदाजा सभी को था। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला ने तो एक समय कहा था कि उसे फांसी हुई तो घाटी जल उठेगी। सरकार को पता था कि राज्य के अलगाववादी तत्व इस मौके का फायदा उठाकर भारत के खिलाफ भावनाएं भड़काने का काम करेंगे। इसके बावजूद राजनातिक स्तर पर जो तैयारी होनी चाहिए थी वह कहीं नजर नहीं आ रही है। इसके उलट आम करदाता के पैसे से भारतीय पासपोर्ट पर यासिन मलिक जैसे अलगाववादियों को पाकिस्तान भेजा जा रहा है, जहां वह भारत के सबसे बड़े दुश्मन हाफिज सईद के साथ मंच साझा करते हैं। इससे पहले दिसंबर में हुर्रिंयत कांफ्रेंस के लोग पाकिस्तान जाकर इन आतंकियों के साथ बैठक कर चुके हैं। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को अफजल की फांसी से बारह घंटे पहले सूचना दी गई कि उन्हें सुरक्षा संबंधी जो इंतजाम करना है कर लें।

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उमर कांग्रेस के साथ साझा सरकार चला रहे हैं और उनकी पार्टी संप्रग में शामिल है। इसके बावजूद इस मुद्दे पर उनकी भाषा अलगाववादियों से अलग नहीं है। उन्होंने भी वही सवाल उठाए हैं कि राजीव गांधी और बेअंत सिंह के हत्यारों को फांसी क्यों नहीं दी गई। उन्होंने मकबूल बट्ट की फांसी के बाद घाटी के बिगड़े हालात की याद दिलाई। सरकार के पास कोई जवाब नहीं है। आतंकवाद जैसे गंभीर राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर राजनीतिक लाभ के नजरिये से फैसले लेना सरकार और कांग्रेस दोनों के लिए महंगा पड़ सकता है। भाजपा से एक मुद्दा छीनने की कोशिश में उसने अपने विरोधियों ही नहीं, समर्थकों को भी विरोध का नया मुद्दा थमा दिया है। ऐसा क्यों है कि संसद के पिछले सत्र से पहले कसाब को फांसी दी गई और बजट सत्र से पहले अफजल को। क्या देश की सुरक्षा के मुद्दे सियासी नफे-नुकसान के आधार पर तैयार होंगे? इससे सरकार आतंकवादियों को क्या संदेश भेज रही है? अफजल को समय से फांसी न देकर सरकार ने आतंकवाद के प्रति सख्ती का अपना रुख दिखाने का एक मौका खो दिया है।


अफजल को फांसी देने का फैसला राजनीतिक मजबूरी का फैसला है। यह भी कहा जा रहा है कि यह फैसला नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आने की संभावना के मद्देनजर किया गया। यह वही सरकार है जो 3600 करोड़ के हेलीकॉप्टर घोटाले के बारे में कह रही है कि वह विपक्ष के दबाव में काम नहीं करगी। सीबीआइ अपने तरीके से काम करेगी। घोटालों के लिए जिम्मेदार लोगों को पकड़ने के मामले में सरकार कोई दबाव नहीं मानती, लेकिन सांप्रदायिकता के मुद्दे का राजनीतिक दोहन करने के लिए वह हर दबाव मानने के लिए तैयार है। जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं कांग्रेस अपने ही बनाए जाल में फंसती जा रही है। पार्टी अपनी ताकत बढ़ाने की बजाय अपने विरोधियों को कमजोर करके आगे बढ़ना चाहती है।

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लेखक प्रदीप सिंह वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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