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खाद्य सुरक्षा एक्ट की राह में रोड़े

जागरण मेहमान कोना
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खाद्य सुरक्षा एक्ट की राह में रोड़े अभिजीत मोहन कहना मुश्किल है कि सोनिया गांधी की अगुवाई वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद और रंगराजन समिति की सिफारिशों के आधार पर तैयार खाद्य सुरक्षा विधेयक स्थायी समिति की हरी झंडी के बाद संसद के बजट सत्र में पारित हो सकेगा। वजह यह कि उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, ओडिशा और गुजरात समेत कई राज्यों ने अपनी असहमति और आपत्ति दर्ज करा दी है। खाद्य मंत्रियों के सम्मेलन में अधिकांश राज्यों ने योजना पर खर्च होने वाली धनराशि का बोझ उठाने से इन्कार कर दिया है। दरअसल, विधेयक में प्रावधान है कि खाद्यान्न के परिवहन, ढुलाई, लदान, रियायती दर की दुकानों के लाभ मार्जिन का खर्च राज्यों को ही उठाना होगा। राज्य इसके लिए तैयार नहीं हैं। अतिरिक्त खर्च के अलावा राज्यों ने कुछ और समस्याएं रखी हैं, जिसे यों ही खारिज नहीं किया जा सकता। मसलन, तमिलनाडु और केरल में राशन प्रणाली सभी के लिए है। जबकि प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक में 75 फीसद ग्रामीण और 50 फीसद शहरी आबादी को ही रियायती दर पर अनाज देने का प्रावधान है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि फिर ये राज्य इस योजना को कैसे अमलीजामा पहनाएंगे।

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बिहार रियायती अनाज के बदले में नकद सब्सिडी चाहता है। वहीं गुजरात समेत कई राज्य खाद्य सुरक्षा योजना को लागू करने से पहले सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरुस्त करने की मांग कर रहे हैं। यह मांग उचित भी है। देखना दिलचस्प होगा कि राज्यों के विरोध के बीच केंद्र सरकार इस महत्वाकांक्षी योजना को किस तरह परवान चढ़ाती है। बताते चलें कि 22 दिसंबर 2011 को खाद्य सुरक्षा विधेयक लोकसभा में पेश किया गया और उसके कुछ बिंदुओं को लेकर राज्यों ने ऐतराज जताया। परिणामत: विधेयक को संसद की स्थायी समिति के हवाले कर दिया गया। समिति ने देश भर से समाज के विभिन्न वर्गो से मिले एक लाख पचास हजार सुझावों पर विचार किया है। साथ ही समिति ने खाद्य सुरक्षा मसौदे में कुछ बदलाव की सिफारिश भी की है। मसलन, लाभार्थी परिवारों की एकमात्र श्रेणी तय की जाए और सभी को समान कीमत पर समान मात्रा में खाद्यान्न मुहैया कराया जाए। सरकार द्वारा जो खाका खीचा गया है, उसके मुताबिक प्रत्येक परिवार को हर माह तकरीबन 25 से 35 किलो अनाज दिया जाना है, लेकिन राज्यों को समिति के कई प्रावधान रास नहीं आ रहे हैं। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि सरकार इस योजना को जमीनी रूप कैसे देगी? क्या वह राज्यों की आपत्तियों का निस्तारण करने में समर्थ होगी? अगर इस योजना पर खर्च होने वाली अतिरिक्त धनराशि का बोझ वह उठाने को तैयार हो जाती है तो भी उसकी मुश्किलें कम होने वाली नहीं हैं। वजह सरकार के पास इस योजना को फलीभूत करने के लिए कोई रोडमैप ही नहीं है। मजबूरन उसे उस सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर निर्भर रहना होगा, जो आज भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा अड्डा बन चुकी है।

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सुप्रीम कोर्ट भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली की खामियों से चिंतित है और उसने सुझाव दिया है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत खाद्यान्न के वितरण के लिए निजी उचित दर की दुकानों की व्यवस्था खत्म की जानी चाहिए और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बनने का इंतजार किए बगैर राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक में दर्शायी गई व्यवस्था को अमल में लाने के लिए संभावनाएं तलाशनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कोई एक उत्तम व्यवस्था नहीं हो सकती है और वधवा समिति की सिफारिशों के अनुरूप इसे राज्य स्तर पर निगमों, पंचायती राज संस्थाओं, सहकारिता और महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों के जरिये इनके संचालन का विकल्प खोजने के लिए राज्य सरकारों पर छोड़ देना चाहिए। सवाल उठना लाजिमी है कि क्या केंद्र सरकार और राज्य सरकारें इस सुझाव पर अमल करेंगी? कहना कठिन है। फिलहाल सरकार के पास इस योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस प्रणाली की मदद से योजना को साकार किया जा सकेगा? आशंका स्वाभाविक है। क्योंकि इस योजना में जबरदस्त लूट और भ्रष्टाचार है। ऐसे में सरकार से पूछा जाना चाहिए कि फिर वह खाद्य सुरक्षा के तहत देश की एक बड़ी आबादी को कैसे संतृप्त करेगी? सरकार को इस सवाल का जवाब ढूंढ़ना ही होगा। सिर्फ वोटयुक्ति के लिए योजना को लागू करने की जल्दबाजी दिखाना न तो गरीबों के हित में है और न ही देश के।

इस आलेख के लेखक अभिजीत मोहन हैं !


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Tags: food safety bill, food safety act, food safety and standards act, खाद्य सुरक्षा एक्ट,सुरक्षा कानून, योजना

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