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अंजाम तक कब पहुंचेगी पेट भरने की कवायद लेखक

जागरण मेहमान कोना
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रवि शंकर देश की दो-तिहाई आबादी को भोजन का अधिकार देने वाले प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा बिल के मौजूदा मसौदे को लेकर कई राज्यों ने अपना विरोध प्रकट किया है। खाद्य राज्यमंत्री प्रो. केवी थॉमस की राज्यों के खाद्य मंत्रियों के साथ हुई बैठक में प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक के मौजूदा मसौदे में गरीबों की संख्या के निर्धारण और लाभार्थियों को दिए जाने वाले रियायती खाद्यान्न की मात्रा पर कई राज्यों ने असहमति जताई है। विधेयक के प्रावधानों को अस्पष्ट बताते हुए तमिलनाडु ने खुद को इसके क्रियान्वयन से अलग रखे जाने की मांग रख दी, जबकि बिहार, ओडिशा, केरल, पंजाब और गुजरात जैसे राज्यों ने प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून को जल्दबाजी में लागू करने के बजाय इससे पहले सार्वजनिक वितरण प्रणाली का आधुनिकीकरण करने का सुझाव दिया है। हालांकि केंद्र सरकार ने अपना रुख बदलते हुए तमाम राज्यों की लगभग सारी मांगे मान ली हैं। उम्मीद की जा रही है कि सरकार संशोधित खाद्य सुरक्षा बिल को बजट सत्र में संसद में पेश कर देगी। दरअसल, राज्यों की आपत्तियां मुख्यत: दो मुद्दों पर थीं।

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राज्य नहीं चाहते कि वे केंद्र सरकार की शर्तो पर इस कानून पर अमल करें। वे अपने तरीके से उसमें बदलाव की छूट चाहते थे। इसके अलावा वे अनाज का मौजूदा कोटा बनाए रखना चाहते थे। वे यह भी चाहते हैं कि इस अधिनियम को लागू करने में जो अतिरिक्त खर्च आए, वह केंद्र सरकार उन्हें दे। संसदीय स्थायी समिति द्वारा प्रस्तावित विधेयक में आमूलचूल बदलाव के बाद इस विधेयक में अब देश की 75 फीसद ग्रामीण और 50 फीसद शहरी आबादी को बिना किसी विभेद के एक समान पांच किलोग्राम अनाज मुहैया कराने का कानूनी अधिकार देने का प्रावधान किया गया है। यह अनाज फ्लैट रेट (अपरिवर्तित दर) पर वितरित किया जाएगा। इसमें चावल की दर तीन रुपये, गेहूं की दो रुपये और मोटे अनाजों की एक रुपये प्रति किलोग्राम होगी। अगर समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया जाता है तो खाद्य विधेयक के दायरे में देश की करीब 67 फीसद आबादी आएगी। देश की बड़ी आबादी को खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराना केंद्र की संप्रग सरकार का महत्वकांक्षी कार्यक्रम है। इस संसदीय समिति का सुझाव सरकार के खाद्य विधेयक के उस प्रावधान के खिलाफ है, जिसमें लाभार्थियों को दो श्रेणी- प्राथमिक परिवार और सामान्य परिवार में बांटा गया था। इस विधेयक को लोकसभा में दिसंबर 2011 में पेश किया गया था। अगर स्थायी समिति के इस खास सिफारिश को अपनाया जाता है तो बेशक इसका फायदा एपीएल परिवार को होगा। उन्हें अनाज की मात्रा और कीमत दोनों लिहाज से लाभ मिलेगा, लेकिन बीपीएल परिवारों को बिल के मूल प्रस्ताव की तुलना में कम अनाज मिलेगा। इस समय गरीबी रेखा से नीचे यानी बीपीएल परिवारों को हर माह सात किलो गेहूं और चावल मिलता है। उनके लिए गेहूं की कीमत 4.15 रुपये और चावल की 5.65 रुपये प्रति किलो है। खाद्य सुरक्षा बिल में सरकार ने गेहूं-चावल की मात्रा (सात किलो) में तो बदलाव नहीं किया है, लेकिन इनकी कीमत बदलने का प्रस्ताव रखा था।

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बिल के मुताबिक गेहूं की कीमत दो रुपये और चावल की तीन रुपये प्रति किलो होगी। जबकि गरीबी रेखा से ऊपर यानी एपीएल परिवारों के लिए बिल में तीन किलो अनाज का प्रस्ताव था। उनके लिए कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की आधी होगी। इस हिसाब से एपीएल के लिए अभी गेहूं की कीमत पौने सात रुपये और चावल की 10 रुपये प्रति किलो बैठती है। खास बात यह है कि इस विधेयक में गर्भवती महिला और बच्चे के जन्म के बाद दो वर्ष के लिए प्रति माह पांच किलोग्राम अतिरिक्त खाद्यान्न देने को कहा है। इसके अलावा गर्भवती महिलाओं और शिशुओं को स्तन पान कराने वाली महिलाओं को भी पोषण के लिए छह महीने तक प्रतिमाह एक हजार रुपये देने का प्रावधान किया गया है। हालांकि राज्यों ने इस पर आपत्ति जताई है। उनका कहना है कि इस कानून को लागू करने से पहले यह आकलन किया जाना चाहिए कि राज्यों पर इसका कितना भार पड़ेगा। सचमुच खाद्य सुरक्षा बिल सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार समिति की लोकप्रिय परियोजना है। मनरेगा के बाद यह सप्रंग सरकार की दूसरी बड़ी पहल है। कांग्रेस ने इस कानून को 2009 के चुनावी घोषणा पत्र में लाने का वादा किया था। वर्ष 2009 के चुनावों में किसानों को कर्ज माफी, मनरेगा, सूचना का अधिकार जैसी योजनाओं ने कांग्रेस को 207 सीटे दिला दी थीं। कांग्रेस उसी को एक बार फिर ध्यान में रखते हुए लोकसभा चुनाव से ठीक पहले खाद्य सुरक्षा बिल को अंतिम रूप देकर सियासी फायदा उठाने की फिराक में है। यह सच है कि खाद्य सुरक्षा को अंतिम रूप देने के लिए संप्रग सरकार के भीतर पिछले तीन साल से बहस हो रही थी। फिर भी सरकार खाद्य सुरक्षा कानून पर किसी ठोस नतीजे तक नहीं पहुंच पाई। अहम सवाल यह है कि पांच किलो अनाज भूखा पेट भरने में कितना सहायक होगा, क्योंकि सरकार की इस मुहिम से प्रतिव्यक्ति को प्रतिदिन केवल 167 ग्राम अनाज मिलेगा। क्या ऐसे में हमें सचमुच यह मान लेना चाहिए कि यह अनाज भारत को भुखमरी गरीबी एवं कुपोषण जैसी गंभीर समस्याओं से निजात दिलाने में सहायक होगा? इस तरह के अनेक सवाल इस कानून के साथ जुड़े हुए हैं। सरकार यह कैसे दावा करेगी कि उन्होंने सभी के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर दी। आज भी देश में करीब 32 करोड़ लोगों को एक वक्त भूखे पेट ही सोना पड़ता है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2012 के मुताबिक 81 देशों की सूची में भारत का स्थान 67वां है, जो अपने पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान और श्रीलंका से भी नीचे है। ऐसे में यह अनुमान लगाया जा सकता है कि देश में गरीबी, भुखमरी, कुपोषण और बदहाली की क्या स्थिति है। सबसे बड़ा सवाल यह भी है कि इतनी बड़ी योजना के लिए पैसा कहां से आएगा। इस कानून को लागू करने में सरकार पर पहले साल 1 लाख 20 हजार करोड़ सब्सिडी का बोझ आएगा, जो पिछले वित्त वर्ष की तुलना में 25 से 30 हजार करोड़ की अधिक राशि होगी। साथ ही प्रस्तावित विधेयक को लागू करने के लिए हर साल 6 से 6.5 करोड़ टन अनाज की जरूरत पड़ेगी। फिलहाल 5.5 करोड़ टन अनाज की जरूरत होती है। मौजूदा उत्पादन और बफर स्टाक मिलाकर अगले दो तीन साल तक भले कोई समस्या न हो, लेकिन सवाल दूरगामी असर का है। दूसरी तरफ सार्वजनिक वितरण प्रणाली यानी पीडीएस में जो खामियां हैं, उसे सभी जानते हैं। हर किसी को पता है कि सरकार जिसे खाद्य सुरक्षा के लिए एक अहम माध्यम के तौर पर देख रही है, वह कितनी कामयाब है।

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पीडीएस को लेकर सरकार कितना भी दावा कर ले, लेकिन यह सच है कि गरीबों के अनाज की व्यापक कालाबाजारी हो रही है। जाहिर है, यह कोई नहीं बात नहीं है। वास्तविकता यह है कि सरकार से आया अनाज राज्य के गोदामों तक तो पहुंच जाता है, लेकिन वहां से वह अनाज राशन की दुकान तक नहीं पहुंच पाता। इसलिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरुस्त करना अनिवार्य है, क्योंकि उसका चुस्त-दुरुस्त होना इस कार्यक्रम की सफलता की बुनियाद होगी। पीडीएस में भ्रष्टाचार, कालाबाजारी और लीकेज हमेशा से था, लेकिन पिछले कुछ वर्षो में इसकी उपेक्षा से ये कमियां कई गुना बड़ी हो गई हैं। जाहिर है, इसके लिए सरकार को अपनी इस महत्वाकांक्षी परियोजना पर खास नजर रखनी होगी। प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून को लागू करने के लिए अन्न की उपलब्धता बढ़ाने के साथ-साथ यह भी देखना जरूरी होगा कि वह आम लोगों तक अन्न पहुंच रहा है या नहीं।


इस आलेख के लेखक रवि शंकर हैं !


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