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सुधार पुरुष का आखिरी मौका

जागरण मेहमान कोना
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सुधार पुरुष का आखिरी मौका बस यह बजट और !! .. इसके बाद उस शख्सियत की इतिहास में जगह अपने आप तय हो जाएगी जिसने 24 जुलाई 1991 की शाम, फ्रेंच लेखक विक्टर ह्यूगो की इस पंक्ति के साथ भारत को आर्थिक सुधारों की सुबह सौंपी थी कि दुनिया की कोई भी ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती जिसके साकार होने का समय आ गया है, लेकिन सुधारों का वह विचार अंतत: रुक गया और 1991 जैसे संकटों का प्रेत फिर वापस लौट आया। भारत की ग्रोथ शिखर से तलहटी पर आ गई और वह भी उस राजनेता की अगुआई में, जो सुधारों का सूत्रधार ही नहीं, बल्कि अवसरों का अरबपति भी है। आने वाला बजट पी. चिदंबरम के लिए एक और मौका नहीं है, यह तो भारत के सुधार पुरुष के लिए अंतिम अवसर है। यह मनमोहन सिंह का आखिरी बजट है। पांच साल वित्तमंत्री और दस साल प्रधानमंत्री अर्थात् आर्थिक सुधारों के 22 साल में 15 साल तक देश की नियति का निर्धारण। मनमोहन सिंह से ज्यादा मौके शायद ही किसी को मिले होंगे।

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संयोग ही है कि प्रख्यात अर्थशास्त्री और सुधारों के प्रवर्तक ने 1991 में 31 पन्नों के बजट भाषण में भारत के तत्कालीन संकट की जो भी वजहें गिनाई थीं, देश नए संदर्भो में आज उन्हीं को दोहरा रहा है। दहाई की महंगाई, मरियल ग्रोथ, वही भारी घाटा, विदेशी मुद्रा की चुनौती। इस बार के बजट भाषण में चिदंबरम के शब्दों में 1991 के मनमोहन सिंह ही बोलेंगे। 1991 का बजट आर्थिक सुधारों का दार्शनिक घोषणापत्र था। 1996 तक हुए तमाम फैसले इस दर्शन का सैद्धांतिक विस्तार थे, जबकि 2004 तक आई नीतियां इसका व्यावहारिक क्रियान्वयन बनीं। चिदंबरम ने इसमें उदार कर ढांचे का उत्साह भरा और यशवंत सिन्हा ने बुनियादी ढांचे की मजबूती। सुधारों का मूलभूत दर्शन वही रहा जो मनमोहन सिंह छोड़कर गए थे। त्रासदी यह है भारत की ढलान तब शुरू हुई जब सुधारों के सूत्रधार सत्ता व अवसरों के शिखर पर विराज रहे थे और ग्रोथ की पीठ पर बैठी उम्मीदें सातवें आसमान पर उड़ रही थीं। 1991 के बजट भाषण की रोशनी में पिछला एक दशक भारत के अर्श से फर्श पर आने की कहानी बन गया है। भारत की ताजा तरक्की ठीक उन्हीं जगहों से टूटी है जहां मनमोहन सिंह ने सुधारों के खंभे खड़े किए थे। उनका सुधार दर्शन बुनियादी से रूप से निजी उद्यमिता को प्रोत्साहन, बजट के ढांचे में सुधार और अच्छी गवर्नेस पर टिका था। इसके बूते सुधारों के पहले दशक में देश ने तेज उड़ान भरी। 2004 के बाद यह सब बिखर गया। सुधारों के सूत्रधार की सरकार का पहला शिकार था- राजकोषीय अनुशासन। संप्रग के न्यूनतम साझा कार्यक्रम से निकले बजटों ने घाटा कम करने पर पाबंदी आयद कर दी। राजकोषीय उत्तरदायित्व कानून पर अमल रुक गया और मनमोहन सरकार के पहले पांच साल में सब्सिडी का बिल 44000 करोड़ से बढ़कर 2.16 लाख करोड़ रुपये हो गया। भारी खर्च वाली स्कीमों पर टिकी इनक्लूसिव ग्रोथ वास्तविक ग्रोथ को खा गई। देश में कुछ भी नहीं बदला, अलबत्ता आर्थिक सुधारों का मजबूत स्तंभ दरक गया।

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राजकोषीय अनुशासन के फायदे लुट गए और संकट लौट आया। भारत के आर्थिक सुधारों का सफर सूचना तकनीक सुपर पावर बनने से शुरू हुआ था। तब ज्ञान व शिक्षा पर आधारित युवा कंपनियां नेतृत्व कर रही थीं, लेकिन दूसरे दशक में कोयला, जमीन और स्पेक्ट्रम पर इतराने वाली कंपनियां आगे आ गईं। सुधार पुरुष अच्छी गवर्नेस को ग्रोथ की बुनियाद मानते रहे और दूसरी तरफ भारत का निजीकरण क्रोनी कैपिटलिज्म में बदल गया। राजनेताओं की चहेती कंपनियां, प्राकृतिक संसाधनों की लूट और घोटाले भारत के उदार बाजार का नया सच हैं। उद्यमिता का चेहरा दागदार हो गया है। भारत में अब एक नए किस्म का लाइसेंस परमिट राज है। निजी व विदेशी निवेश मनमोहन सिंह के सुधार के दर्शन का सबसे चमकता पहलू था। निवेश के दरवाजे खोलते ही उद्यमिता को पंख लग गए थे। सुधारों के दो दशकों में तमाम सियासी उठापटक के बावजूद मनमोहन सिंह के उत्तराधिकारियों ने निजी उद्यमिता को प्रोत्साहन का रास्ता नहीं छोड़ा। नीतियां व फैसले होते रहे, बाजार क्रमश: खुलता गया और पूंजी आती गई। टैक्स हो या पूंजी बाजार, ज्यादातर सुधार इस उद्यमिता को सहारा देने के लिए हुए। नतीजतन ग्रोथ व रोजगारों का टोटा नहीं पड़ा। पिछले छह साल में यह भी बंद हो गया। ऊर्जा आत्मनिर्भरता मनमोहन सिंह की जिद थी, जो एनरॉन से लेकर नाभिकीय ऊर्जा तक विफलताओं के मिथकों में बदल गई। अब कोयले व तेल के आयात ने विदेशी मुद्रा सुरक्षा को खतरे में फंसा दिया है। बुनियादी ढांचे के लिए पांच साल में देश को 51.47 लाख करोड़ रुपये चाहिए। जिसमें 47 फीसद निवेश निजी क्षेत्र से आएगा, लेकिन फैसलों की फाइलें रुकने से सुधारों का यह फायदा भी खेत रहा। यह मनमोहन युग की ही देन है कि निजी कंपनियां या तो नकदी पर बैठी हैं या विदेश में निवेश कर रही हैं।


जुलाई 1991 की शाम जब मनमोहन सिंह बजट पेश कर रहे थे तब देश में मोबाइल, इंटरनेट, एटीएम, शॉपिंग मॉल, ढेर सारे मकान, क्रेडिट कार्ड नहीं थे। 22 साल बाद अगले सप्ताह चिदंबरम जब डॉ. सिंह का आखिरी बजट पेश करेंगे तो देश में यह सब कुछ सिर्फ इसलिए होगा, क्योंकि 91 के मनमोहन सिंह को, बकौल विक्टर ह्यूगो, सुधार के उस विचार की ताकत पर भरोसा था, जिसका समय आ गया था। लेकिन ह्यूगो ने यह भी कहा था कि ठहराव सबसे बड़ी क्रूरता है और अभाव ताकत का नहीं, बल्कि इच्छाशक्ति का होता है। क्या यही अभाव था जिसके कारण सुधारों के पोस्टर पुरुष के नेतृत्व में ही देश ठहर गया? मनमोहन सिंह के पास अब खोने के लिए कुछ भी नहीं है, मगर इस बजट के तौर पर एक आखिरी मौका फिर भी है। 28 फरवरी को तय हो जाएगा कि भारत की दूसरी आजादी के सूत्रधार किस तरह विदा होंगे। इतिहास उनकी प्रतीक्षा कर रहा है।


इस आलेख के लेखक अंशुमान तिवारी हैं !


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Tags: economics and law, economics and politics, economics value added, some facts in economy, अर्थशास्त्री, बजट भाषण

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