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भरोसेमंद जांच का सवाल

जागरण मेहमान कोना
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सांच पर आंच नहीं-पर इसकी जांच हो कैसे? यजुर्वेद में सत्य का मुख स्वर्ण आवरण से ढका बताया गया है। अब सत्य पर करोड़ों की नकदी का पर्दा है। जीप घोटाला के बावजूद कृष्णामेनन के मंत्री बने रहने, फिर मूंदडा कांड में तत्कालीन वित्तमंत्री के आरोपी होने, नागरवाला कांड, शेयर घोटाला, चीनी घोटाला, यूरिया घोटाला होते हुए बोफोर्स तोप खरीद का घोटाला और अब वीवीआइपी हेलीकॉप्टर में करोड़ों की दलाली तक भ्रष्टाचार की अनंत कथाएं हैं। मनमोहन सरकार भी अपनी ही राह पर है- कामनवेल्थ, 2जी स्पेक्ट्रम और कोयला घोटाला आदि अनेक किस्से हैं। केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) भरोसेमंद नहीं। वह केंद्र सरकार के कहे अनुसार ही चलती है। केंद्र इस जांच एजेंसी का मनमोहन सदुपयोग करता है। संप्रग के समर्थक दल भी अक्सर सीबीआइ के दुरुपयोग का आरोप लगाते हैं। सीबीआइ राजीव गांधी के समय से ही संदेह के घेरे में है। वह बोफोर्स जांच के समय ही सरकारी बचाव की मुद्रा में थी। हेलीकॉप्टर घोटाले में भी केंद्र सीबीआइ जांच को तत्पर है और संयुक्त संसदीय समिति की जांच को तैयार है।

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केंद्र ने जेपीसी जांच की तैयारी की घोषणा की है। केंद्र दोनों की जांच प्रणाली से आश्वस्त है। प्रधानमंत्री संसद में बहस के लिए तैयार हैं। संसदीय बहसें जांच एजेंसी का विकल्प नहीं होतीं। मूलभूत प्रश्न यह है कि देश के शासकों के भ्रष्टाचार की जांच हो कैसे? संयुक्त संसदीय समिति की जांच निष्पक्ष और पारदर्शी जान पड़ती है। बोफोर्स तोप घोटाले की जांच में जेपीसी से तमाम उम्मीदें थीं। बी. शंकरानंद के सभापतित्व वाली इस समिति ने 50 बैठकों के बाद रिपोर्ट पेश की। विपक्ष ने इसे खारिज कर दिया। बोफोर्स का भूत देशव्यापी हो गया। वीपी सिंह ने अभियान चलाया। राजीव-सोनिया के निकटवर्ती लोगों को बोफोर्स सौदे से लाभ पहुंचा था। राजीव सरकार ने सत्य से सोने का ढक्कन नहीं हटाया। सीबीआइ और जेपीसी का दुरुपयोग सच पर पर्दा डालने के लिए हुआ, लेकिन आम जनता ने तोप दलाली की बात जस की तस स्वीकार की। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में विपक्ष के हंगामे के बाद सरकार जेपीसी जांच को राजी हुई। हेलीकॉप्टर घूस कांड में विपक्ष ने ऐसी मांग भी नहीं की, लेकिन केंद्र ने ऐसी जांच की तत्परता पहले ही प्रकट कर दी? सवाल यह है कि केंद्र 2011 में जेपीसी जांच से क्यों भयभीत था?

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अब हेलीकॉप्टर खरीद घूसकांड में उसे जेपीसी जांच क्यों सुविधाजनक लग रही है? संप्रग ने दरअसल इस बीच जेपीसी जांच की दिशा बदलने, आरोप को प्रत्यारोप में बदलने और सच पर पर्दा डालने की संसदीय तकनीकी विकसित कर ली है। अन्य घोटालों की तरह इस दफा कांग्रेस बहुत लज्जित नहीं है। बेशक वह आत्मरक्षा की तड़प में है, लेकिन जांच की आंच में झुलसने का खौफ नहीं है। सीबीआइ उसके नियंत्रण में है। जेपीसी में सत्तादल के सदस्य अपनी रणनीति चलाएंगे। कांग्रेस को आगामी चुनाव की निकटता का ही खौफ है। वह सुविधाजनक जांच की घोषणा के जरिए वर्तमान असुविधाजनक माहौल का खात्मा चाहती है। दलालों और रिश्वतखोरों की पहचान और सजा संप्रग का एजेंडा नहीं है। संप्रग सरकार का उद्देश्य विषयांतर करना है। बीबीसी से 1986 में प्रसारित यस प्राइम मिनिस्टर सीरियल के एक पात्र हम्फ्री एप्पलबी ने प्रधानमंत्री से यही कहा था कि जांच का उद्देश्य प्रेस में जारी कहानियों को खत्म करना ही होता है। संप्रग सरकार की जांच घोषणा का भी यही उद्देश्य है। भ्रष्टाचार और संप्रग परस्पर निर्भर व पूरक हैं। पारदर्शी जांच दोनों का सहअस्तित्व तोड़ती हैं। सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सीबीआइ ठीक काम करती है, लेकिन केंद्र निर्देशित जांच करते समय यही सीबीआइ सच पर पर्दा डालने का काम करती है। असली बात है केंद्र की नीयत। प्रकाशमणि त्रिपाठी के सभापतित्व में गठित जेपीसी ने स्टाक मार्केट के विनियमन पर महत्वपूर्ण सिफारिशें की थीं, लेकिन वे लागू नहीं हुईं। इसी तरह फलों के रसों व शीतल पेयों में जहरीले रसायनों की जांच के लिए शरद पवार के सभापतित्व में बनी जेपीसी ने फरवरी 2004 में सौंपी रिपोर्ट में शीतल पेयों में जहरीले रसायनों की पुष्टि की। शुद्ध पेयजल के लिए सख्त उपाय भी सुझाए, लेकिन निष्कर्षो पर कुछ नहीं हुआ। जेपीसी संसदीय कार्य का ही भाग है। तमाम राजनीतिक कारणों से संसदीय कार्य की गुणवत्ता में Oास हुआ है। इसका प्रभाव संयुक्त संसदीय समितियों पर भी पड़ रहा है। लोक लेखा समिति संसद का प्रतिष्ठित निकाय है। यह लोकधन का पहरेदार है। इसमें भी दोनों सदनों के प्रतिनिधि होते हैं, लेकिन 2जी मामले में लोक लेखा समिति में भी कांग्रेस और उसके समर्थक दलों का आचरण आहतकारी रहा है। बीते एक दशक में भ्रष्टाचार संस्थागत हुआ है। भारत का संवैधानिक जनतंत्र नई चुनौतियों का सामना करने में विफल रहा है।


संसदीय जनतंत्र भ्रष्टाचार से जूझने का प्रभावी तंत्र नहीं बना पाया। संसद और संसदीय समितियां बेशक सम्मानीय संस्थाएं हैं, लेकिन भ्रष्टाचार की चुनौतियों से जूझने में वे भी नाकामयाब हो रही हैं। संसदीय जनतंत्र ने निराश किया है, भ्रष्टाचार का आकार बढ़ा है, घटनाओं की आवृत्ति बढ़ी है। संसदीय संस्थाओं में आरोप-प्रत्यारोप और शोर बढ़ा है, लेकिन भ्रष्टाचार की पारदर्शी जांच वाली भरोसेमंद संस्था सिरे से गायब है। सत्ताजनित भ्रष्टाचार पंख फैलाकर उड़ा है। बुनियादी सवाल यह है कि सत्ताधीशों के भ्रष्टाचार की जांच हो तो कैसे हो? चुनौती बड़ी है। देश को एक अदद पारदर्शी, अधिकार संपन्न, स्वतंत्र व भरोसेसमंद जांच अधिकरण की दरकार है। संयुक्त संसदीय समितियां स्वतंत्र हैं, विशेषाधिकार से युक्त हैं, उन्हें किसी को भी साक्ष्य के लिए बुलाने के अधिकार हैं। उनकी कार्यवाही संसदीय विशेषाधिकार से लैस है, लेकिन वे भी राष्ट्रीय आकांक्षा को पूरा नहीं कर पातीं। सीबीआइ विशेष प्रशिक्षित अधिकारियों से लैस है। अधिकारियों की निष्ठा भी प्रशंसनीय है, लेकिन केंद्र के नियंत्रण ने उसे नखदंतविहीन बनाया है। सत्ताधीशों पर प्राय: कार्रवाई नहीं होती। न्यायालय में केस कमजोर हो जाते हैं। न्यायालयों ने सीबीआइ को बहुधा फटकार लगाई है। प्रश्न है कि तब विकल्प क्या है? क्या सीबीआइ स्वतंत्र जांच एजेंसी की भूमिका का निर्वाह कर सकती है? क्या संयुक्त संसदीय समितियां जांच एजेंसी का विकल्प हो सकती हैं? समिति की अपनी संसदीय कार्यप्रणाली है। उसके अधिकार बड़े हैं तो भी उसकी क्षमता की सीमा है। संप्रग सरकार ने भ्रष्टाचार को धारावाहिक बनाया है। देश भ्रष्टाचारियों की सजा को भी धारावाहिक देखने का इच्छुक है। संप्रभु संसद विचार करे कि भ्रष्टाचार की भरोसेमंद जांच हो तो कैसे हो और किससे हो?

इस आलेख के लेखक हृदयनारायण दीक्षित हैं


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Tags: संसद और संसदीय, तंत्र,संसदीय जनतंत्र, केंद्र सरकार,2जी स्पेक्ट्रम


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