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भारत में भ्रष्टाचार का व्यापक फैलाव देश की राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डाल रहा है। रक्षा सौदे भारत में घूसखोरी के सबसे बड़े एकल स्रोत हैं। ऐसे में रक्षा सौदों में एक और घोटाला उजागर होते देख हैरत नहीं होती। इस घोटाले के भंडाफोड़ का श्रेय इटली के जांचकर्ताओं को जाता है। यह भारी-भरकम रिश्वत का ही कमाल था कि इटली की इस कंपनी को ब्रिटेन में बने 12 हेलीकॉप्टरों की आपूर्ति का ऑर्डर मिला था। ये वही ऊंची कीमत वाले हेलीकॉप्टर हैं, जिन्हें अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने बेहद महंगे बताकर अपने इस्तेमाल के लिए खरीदने से इन्कार कर दिया था। जो सौदा धनाढय अमेरिका को बहुत महंगा लगा था, उस पर गरीब भारत पैसे लुटाने में कोई हिचक नहीं दिखाई।
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भारत हथियारों और अन्य रक्षा उपकरणों का विश्व का सबसे बड़ा आयातक बन चुका है। हथियारों के वैश्विक व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 10 फीसद पहुंच गई है। भारत में हथियारों का आयात चीन और पाकिस्तान के सम्मिलित आयात के बराबर पहुंच गया है। इससे किसी को भ्रम हो सकता है कि इतने बड़े पैमाने पर आयात एक सुनियोजित, संगठित सैन्य ढांचे के निर्माण के लिए किया जा रहा है। असलियत यह है कि हथियारों का आयात बिना किसी सामरिक दिशा के ऊटपटांग तरीके से किया जा रहा है। इसका परिणाम यह है कि इस खरीदारी से भारत की सुरक्षा मजबूत होने के बजाय इसमें दरारें पड़ रही हैं। किसी भी हथियार या सैन्य प्रणाली के आयात से भारत उस आपूर्तिकर्ता देश का तब तक के लिए बंधक बन जाता है जब तक वह रक्षा उपकरण या हथियार प्रणाली इस्तेमाल हो रही है। स्पेयर पार्ट्स और मरम्मत आदि के लिए भारत हथियार की आपूर्ति करने वाले देश पर निर्भर हो जाता है। इसके बावजूद बुनियादी रक्षा जरूरतों के लिए भी भारत अन्य देशों पर निर्भर है और इस प्रकार आसानी से बाहरी दबाव में आ सकता है, खासतौर पर युद्ध जैसे आपात स्थिति में। भारत बड़ी बेतरतीबी के साथ, बिना किसी सामरिक लक्ष्य के खुद को हथियारों से सुसज्जित कर रहा है। रक्षा सौदों में घूस का मोटा माल राजनेताओं, बिचौलियों और नौकरशाहों के खाते में जाता है। बचा हुआ हिस्सा सैन्य अधिकारी झटक लेते हैं। असलियत यह है कि हथियारों का आयात भारत को असुरक्षित और गरीब रखने में योगदान देता है। इस प्रकार रक्षा आयात भारत के भ्रष्टाचारियों के लिए तो अच्छा है, किंतु राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए नहीं। अगर आज भारत को नरम राष्ट्र के रूप में देखा जाता है तो इसका बड़ा दोष उन लोगों पर जाता है जो राजनीतिक प्रतिष्ठान में शीर्ष पदों पर आसीन हैं। यही नहीं इसके लिए वह विपक्ष भी जिम्मेदार है जो केंद्र में सत्ता में रह चुका है। इस प्रकार की नरमी के कारण भारत उन देशों के निशाने पर आ गया है जो उसकी सुरक्षा को कमजोर रखना चाहते हैं। चाहे ये क्षेत्रीय शत्रु हों या फिर संदिग्ध हथियार प्रणाली बेचने वाले। अब भारत भ्रष्टाचार का नहीं, बल्कि लूट का सामना कर रहा है। असल में दो दशकों के आर्थिक निजीकरण और उदारीकरण के बाद आज के मुकाबले तब भारत अपने हितों और सीमाओं की रक्षा बेहतर ढंग से कर रहा था जब वह आर्थिक रूप से कमजोर था, जैसे इंदिरा गांधी के कार्यकाल में। इस भारी-भरकम भ्रष्टाचार के युग में भारत की राजनीतिक नियति के जिम्मेदार लोगों का लालच तमाम हदें पार कर चुका है।
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भारत इस बात का जीता-जागता सुबूत है कि कोई व्यवस्था जितनी भ्रष्ट होती है उसमें सत्ता उतनी ही अधिक भ्रष्टाचार में लिप्त होती है। जब भारत में परिभाषित रक्षा नीति ही नहीं है तब वह रक्षा खरीद की सामरिक रूपरेखा का निर्धारण कैसे कर सकता है? यह हैरत की बात नहीं है कि भारत ऐसे विदेशी हथियारों का कबाड़खाना बन गया है, जिनके बिना इसका काम आसानी से चल सकता था। नियंत्रक एवं महा लेखापरीक्षक (कैग) सरकार पर बार-बार लांछन लगा चुका है कि वह हथियारों के आयात में जवाबदेही से बचती है और इस वजह से भारतीय सुरक्षा में बड़ी-बड़ी दरारें बन गई हैं। हथियारों के आयात पर पूरे विश्व में सबसे अधिक धन खर्च करने के बाद भी हालत यह है कि खुद सरकार ने स्वीकार किया है कि वह पाकिस्तान के खिलाफ भी परंपरागत सैन्य बढ़त को गंवा चुकी है। सरकार इस हद तक बेदम हो चुकी है कि पाकिस्तानी टुकड़ी द्वारा भारतीय सैनिकों के सिर कलम कर लिए जाने के बाद वह उन्हें हासिल भी नहीं कर पाती, जबकि पिछले सप्ताह भारतीय सीमा में घुसपैठ करने वाले जिस पाकिस्तानी सैनिक को मार गिराया गया था उसका शव लौटाने में जरा भी देरी नहीं करती। बुनियादी रक्षा जरूरतों के लिए दूसरों पर निर्भर कोई भी देश प्रमुख शक्ति नहीं बन सकता है। माओ के कार्यकाल से ही चीन की रक्षा नीति एक सरल सिद्धांत पर टिकी है-अपने संसाधनों से ही अपनी रक्षा की जा सकती है और एक महाशक्ति बनने का यही पहली परीक्षा है। जब चीन गरीब था, तब भी वह लगातार राष्ट्रीय शक्ति के निर्माण में जुटा था। इसके विपरीत भारत अभी तक राइफल तक आयात कर रहा है, क्योंकि आयात लॉबी देश में हथियार उत्पादन का आधार विकसित होने नहीं देती। बड़ा सवाल है कि इस भयावह स्थिति को कैसे उलटा जा सकता है? पहला, भारत को नए रक्षा खरीद सौदों को तत्काल प्रभाव से स्थगित कर देना चाहिए। इस स्थगनकाल का भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा, बल्कि इससे हर साल अरबों डॉलर की बचत होगी। इस राशि का निवेश घरेलू हथियार उत्पादन आधार बनाने में किया जा सकता है। दूसरे, रक्षा संबंधी भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए जांच एजेंसियों को स्वतंत्र शक्तियां देनी होंगी। आज इन एजेंसियों पर नियंत्रण उन लोगों का है जिनकी तरफ संदेह की सुई घूमती है। इसी का नतीजा है कि 1980 के बाद से सीबीआइ एक भी मामले में घूस लेने वाले को चिह्नित नहीं कर पाई है और रक्षा घोटाले में किसी भी व्यक्ति के खिलाफ दर्ज मामले में सफलता हासिल नहीं कर पाई है। बोफोर्स मामले में सीबीआइ की विफलता एक नजीर बन चुकी है। भारत की सुरक्षा को सबसे बड़ा खतरा चीन या आतंकवाद से नहीं, संस्थागत भ्रष्टाचार से है। भ्रष्टाचार भारत को खोखला कर रहा है। भारत उन देशों में शीर्ष पर है जिनकी चुराई हुई संपदा स्विस बैंकों में जमा है। रक्षा सौदों में घूसखोरी देश के खिलाफ युद्ध अपराध सरीखी है। जो रक्षा सौदों में रिश्वत लेते हैं वे अफजल गुरु से भी अधिक घृणित हैं। फिर भी रक्षा सौदों में घूसखोरी पर आज तक किसी भी राजनेता को सजा देने की बात तो दूर, दोषी तक नहीं ठहराया जा सका है।
इस आलेख के लेखक ब्रह्मा चेलानी हैं
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