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भारत पिछले तीन दशकों से घरेलू और सीमापार के आतंकवाद का निशाना बना हुआ है। हम पंजाब में आतंकवाद से सफलतापूर्वक निपट चुके हैं। जम्मू-कश्मीर में भी हालात में सुधार हुआ है, किंतु जरा से उकसावे से इसके फिर से भड़क जाने की आशंका हमेशा बनी रही है। फिलहाल, विद्रोह के कारण पूर्वोत्तर का एक बड़ा भाग अशांत बना हुआ है। एक दशक पहले तक हम गर्व से घोषणा करते थे कि भारत में घरेलू जिहादी आतंकवाद का तंत्र नहीं है, बल्कि इसका सीमापार से आयात होता है। अब यह स्थिति बदल गई है। सरकारी और गैरसरकारी तत्वों के माध्यम से भारत को विपत्ति में डालना हमारे पश्चिमी पड़ोसी का इतिहास रहा है।
अब भारत को आतंक के खिलाफ प्रतिबद्धता दिखानी होगी। आतंक के खिलाफ युद्ध जारी रहना चाहिए और ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि इसमें कोई बाधा न आने पाए। हालिया इतिहास के कुछ दिलचस्प अध्यायों से पता चलता है कि आतंक पर संप्रग सरकार का रवैया नरम रहा है। जब राजग सरकार ने प्रिवेंशन ऑफ टेररिज्म एक्ट (पोटा) लागू करना चाहा तो कांग्रेस ने यह कहकर इसका विरोध किया कि यह आतंकवाद के बजाय अल्पसंख्यकों के खिलाफ है। जबकि असलियत यह है कि आतंकवादियों की जांच और उन्हें दंडित करने के लिए पोटा एक प्रभावी औजार था। संप्रग के चुनावी घोषणापत्र में पोटा को रद करने का वादा किया गया था। भाजपा के साथ-साथ भारत का सुरक्षा प्रतिष्ठान भी पोटा के निरस्तीकरण से असहज महसूस कर रहा था। इस कारण संप्रग गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम में बदलाव करने को मजबूर हुआ। इसमें पोटा के दो प्रावधानों को छोड़कर अन्य सभी प्रावधान शामिल किए गए। जिन दो प्रावधानों को इसमें शामिल नहीं किया गया वे जमानत और अपराध के कुबूलनामे से संबंधित हैं। जब पी चिदंबरम ने गृह मंत्रालय का कार्यभार संभाला तो माओवादी हिंसा को लेकर उनके शुरुआती बयान उत्साह बढ़ाने वाले थे, किंतु जब कांग्रेस के मुखपत्र में संप्रग अध्यक्ष का एक लेख छपा तो उनका उत्साह ठंडा पड़ गया। उन्होंने रास्ता बदल लिया। इसके बाद उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया कि माओवाद से लड़ाई राज्यों की जिम्मेदारी है और केंद्र राज्यों की खुफिया क्षमता बढ़ाने और सुरक्षा बल उपलब्ध कराने तक ही सीमित है। असल में, आतंकवाद से युद्ध केंद्र और राज्यों की सम्मिलित जिम्मेदारी है। आतंकवाद भारत की संप्रभुता के लिए खतरा है। यह व्यवस्था के लिए भी खतरे की घंटी है। हमारी संवैधानिक योजना में भारत की रक्षा की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है। प्रशासन और पुलिस राज्यों के अधीन आते हैं। आतंकवाद के खिलाफ जंग का हर सूरत में संघीय ढांचे के साथ सह-अस्तित्व है। काल्पनिक संघीय ढांचे बनाम आतंकवाद की बहस का कोई मतलब नहीं है।
खाद्य सुरक्षा एक्ट की राह में रोड़े
राष्ट्रीय आतंकवाद रोधी केंद्र के गठन पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए, किंतु इसकी शक्तियां और जिम्मेदारी संवैधानिक दायरे में आनी चाहिए। सीमापार से खुफिया जानकारी जुटाना और विदेश से भारत को विपत्ति में डालने वालों पर नजर रखना केंद्र सरकार के दायरे और क्षमता में आता है। आतंकी तत्व अंतरराज्यीय स्तर पर सक्रिय हैं। राष्ट्रीय खुफिया जानकारी जुटाना और प्रासंगिक सूचनाओं को राज्यों तक पहुंचाना भी केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है। केंद्र सरकार के पास पहले ही राष्ट्रीय जांच एजेंसी की ताकत उपलब्ध है, जो गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम के साथ-साथ अन्य कानूनों से संबंधित अपराधों की पड़ताल करती है। सूचनाओं का समुचित संग्रहण और प्रेषण तो समझ में आता है। केंद्र सरकार एनसीटीसी को पुलिस की शक्तियां क्यों प्रदान करना चाहती हैं, जो राज्य पुलिस अथवा एनआइए के अधिकार क्षेत्र में होती हैं। एनसीटीसी का गठन इंटेलीजेंस ब्यूरो के तहत प्रस्तावित है। इसका निदेशक इंटेलीजेंस ब्यूरो के निदेशक को रिपोर्ट करेगा। खुफिया एजेंसियों को पुलिस बल की शक्तियां नहीं मिलनी चाहिए। अमेरिका में जो एनसीटीसी कार्यरत है वह केवल सामरिक योजना और खुफिया जानकारी की पड़ताल का अधिकार रखता है। उसे इन मामलों में परिचालन का अधिकार नहीं है। अमेरिका में समन्यवय की भूमिका संयुक्त आतंकवाद विश्लेषण केंद्र निभाता है। भारतीय एनसीटीसी का प्रस्ताव ऐसी एजेंसी के गठन से संबंधित है जो खुफिया कार्रवाई को अंजाम देने के साथ-साथ ऑपरेशन भी चलाएगी। खुफिया एजेंसी को यह शक्ति देना राज्य के पास मौजूद कानून एवं व्यवस्था की शक्तियों में दखलंदाजी है और राज्य सरकारें इसका बिल्कुल सही विरोध कर रही हैं। केंद्र सरकार राज्य सरकारों पर भरोसा क्यों नहीं करती है? परिचालन की गतिविधियों में समन्वय के लिए एनसीटीसी का साथ देने के लिए राज्य पुलिस तत्पर है। क्या इस पर संदेह व्यक्त करना उचित है कि आतंकरोधी कार्रवाइयों में राज्यों की पुलिस पर भरोसा नहीं किया जा सकता? विशेष मामलों में एनआइए इन कार्रवाइयों में शामिल हो ही सकती है। खुफिया एजेंसी को तलाशी, जब्ती और गिरफ्तारी जैसी परिचालन की शक्तियां देना सर्वथा अनुचित है। इंटेलीजेंस ब्यूरो की गतिविधियां गोपनीय होती हैं। यह गैर संवैधानिक इकाई है। इसका बजट और खर्च लेखा परीक्षण के दायरे से बाहर है। एनसीटीसी के मौजूदा प्रस्ताव को अगर लागू किया जाता है तो एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय संसाधन आइबी का ध्यान सुरक्षा संबंधी गतिविधियों से हटकर राजनीतिक गतिविधियों में लग जाएगा। इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगना चाहिए। आइबी की गतिविधियां राजनीतिक या तहकीकात संबंधी नहीं होनी चाहिए। इस एजेंसी को खुफिया जानकारी के संग्रहण, संवर्द्धन और प्रेषण तक सीमित रखना चाहिए। एनसीटीसी भी इसी सिद्धांत के अनुरूप होना चाहिए।
इस आलेख के लेखक अरुण जेटली हैं
Tags: इंटेलीजेंस ब्यूरो, खुफिया एजेंसी, भारतीय एनसीटीसी, अरुण जेटली
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