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हाथ से फिसला पांचवां मौका सन 1947 से अब तक कश्मीर मसले के स्थायी समाधान के लिए माकूल माहौल कई-कई बार बना, पर किसी न किसी वजह से यह प्रक्रिया पटरी से उतरती रही। इस बार भी ऐसा ही हुआ। अफजल की फांसी के फैसले और क्षमा-याचना की अर्जी के खारिज किए जाने के बाद अपनाई गई प्रशासनिक प्रक्रिया के गुण-दोष पर विचार किए बगैर यहां हम सिर्फ कश्मीर मामले की उलझनों और उसकी ऐतिहासिकता पर बात करेंगे। कश्मीर मामलों के तमाम जानकार आज यह मान रहे हैं कि घाटी में लगातार बेहतर होते माहौल पर इस घटनाक्रम का देर-सबेर असर पड़ सकता है। घाटी में कफ्र्यू का दौर फिलहाल खत्म जरूर हो गया है, पर सेना-सुरक्षा बलों की कड़ी चौकसी जारी है।
पिछले दिनों घाटी में कर्फ्यू और जनाक्रोश का आगाज साथ-साथ हुआ। हिंसक झड़पों और गोलीबारी में कुछ मौतें भी हुईं, जबकि दो साल से घाटी का माहौल लगातार सहजता और शांति की तरफ बढ़ रहा था। बीते ढाई दशकों के दौरान घाटी में इतना बेहतर माहौल पहले कभी नहीं देखा गया। आजादी के बाद अगर इतिहास पर नजर डालें तो कम से कम पांच ऐसे मौके साफ तौर पर दिखाई देते हैं जब कश्मीर मसले के स्थायी समाधान का एक भरोसेमंद रोड-मैप उभरता नजर आया, पर किसी न किसी घटना-दुर्घटना के बाद तस्वीर अचानक बदल गई। सन 2013 के फरवरी महीने में भी ऐसा ही हुआ है। इससे पहले, क्रमश: 1953, 1964, 1987 और 2002 में भी कश्मीर मसले के समाधान की आगे बढ़ती गाड़ी अचानक पटरी से उतर गई थी। इसे संयोग कहें या राजनीतिक प्रक्रिया का नतीजा, सन 53 और सन 87 में जब समाधान की संभावनाएं अचानक बिखरती नजर आईं, तब केंद्र में कांग्रेस की ही हुकूमत थी। सन 2013 में भी हुकूमत कांग्रेस की ही है। देश की सबसे बड़ी पार्टी ने अपने पिछले दोनों फैसलों को देशहित में लिया बताया था और इस बार भी उसने यही कहा कि फांसी का फैसला देशहित में लिया गया। पहला वाकया अगस्त 1953 का है, जब कश्मीर में हालात तेजी से सुधर रहे थे और शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की अगुआई में सरहदी सूबे की जनता का भारत के साथ जुड़ाव पुख्ता हो रहा था, पर कांग्रेस और केंद्र व राज्य की नौकरशाही में एक मजबूती लॉबी शेख को बुरी तरह नापसंद करती थी। जून-जुलाई महीने से ही शेख अब्दुल्ला के खिलाफ यह लॉबी खास तौर पर सक्रिय थी। अंतत: उसे कामयाबी मिली और नेहरू भी शेख से नाराज हो गए। सन 1953 की ईद से ऐन पहले 8 अगस्त को कश्मीर के सदरे रियासत के आदेश पर शेख अब्दुल्ला गिरफ्तार कर लिए गए। यह भारी उलटफेर उस वक्त हुआ जब कश्मीर मसले के स्थायी समाधान के लिए भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों की शिखर वार्ता के लिए दिल्ली और रावलपिंडी में जोरदार तैयारी चल रही थी। शेख इस प्रक्रिया का अहम हिस्सा थे। उनकी गिरफ्तारी के बाद सारी प्रक्रिया पटरी से उतर गई। दूसरा मौका था 1964 में, जब नियति ने कश्मीर का साथ नहीं दिया। शेख अब्दुल्ला की 1964 में जब जेल से रिहाई हुई तो उन्हें संदेश मिला कि प्रधानमंत्री नेहरू उनसे शीघ्र मिलना चाहते हैं। रिहाई के कुछ ही दिनों बाद वह अपने विश्वस्त सहयोगी मिर्जा अफजल बेग के साथ दिल्ली के लिए रवाना हो गए। नेहरू के साथ उनकी लंबी बातचीत का समापन इस नतीजे के साथ हुआ कि कश्मीर मसले के स्थायी समाधान की टूटी हुई प्रक्रिया को फिर शुरू कर इसे मंजिल तक पहुंचाया जाए।
नेहरू का सुझाव था कि शेख पाकिस्तान जाकर राष्ट्रपति अयूब खां को ठोस फार्मूले के साथ भारत-पाक शिखर वार्ता के लिए तैयार करें। पाकिस्तान को मालूम था कि वह नेहरू के दूत बनकर वहां आए हैं। अयूब खां, जुल्फिकार अली भुट्टो सहित कई पाक नेताओं से उनकी बातचीत हुई। भुट्टो उस वक्त विदेश मंत्री थे। बातचीत के बाद शिखर वार्ता का रास्ता साफ हो गया। अब शेख को दिल्ली लौटकर नेहरू से शिखर वार्ता के प्रारूप आदि पर बातचीत करनी थी। रावलपिंडी से वह अपने कुछ पुराने दोस्तों और वहां के कश्मीरी सियासतदानों से मिलने मुजफ्फराबाद गए। 27 मई को जब वह मुजफ्फराबाद से वापस लौट रहे थे, रास्ते में खबर मिली कि नेहरू नहीं रहे। इस तरह कश्मीर मसले के समाधान की एक महान संभावना की असमय मौत हो गई। तीसरा मौका था सन 75-80 के दौर में। सन 72 के शिमला समझौते के बाद दोनों देशों के बीच माहौल कुछ सामान्य हुआ। सन 75 में ही शेख की सत्ता में वापसी हुई, पर सरकार कांग्रेस के भरोसे बनी थी। ज्यादा दिनों का साथ नहीं था। सन 77 में शेख अपने बल पर भारी बहुमत से जीतकर सत्ता में आए। यह बेहतरीन वक्त था जब कश्मीर की शांति और सहजता को स्थायी बनाने का कोई सर्वमान्य फार्मूला उभर सकता था, पर राज्य और केंद्र के बीच इसके लिए जिस तरह के परस्पर भरोसे की जरूरत थी वह नहीं बन सका। अंतत: 8 सितंबर, 82 को उनका इंतकाल हुआ और घाटी के पास ऐसा कोई कद्दावर नहीं बचा जो अवाम की तरफ से बड़े फैसले लेता। चौथा मौका था 2002 में आगरा का शिखर सम्मेलन, जब प्रधानमंत्री वाजपेयी और राष्ट्रपति मुशर्रफ के बीच समस्या के समाधान के फार्मूले पर लगभग सहमति बन रही थी, पर सत्तारूढ़ गठबंधन और नौकरशाही के कुछ ताकतवर किरदारों ने आगरा शिखर वार्ता को एक नाकाम कवायद में तब्दील कर दिया। और पांचवां ताजा घटनाक्रम यह है। फांसी को कोई सही या गलत मान सकता है, पर इस बात पर कोई विवाद नहीं हो सकता कि इस घटनाक्रम से कश्मीर के हालात अचानक खराब हो गए। पिछले दो-ढाई सालों से कश्मीर की राजनीतिक-सामाजिक स्थिति में गुणात्मक बदलाव दिख रहा था। दिलचस्प यह है कि इसके लिए कोई बड़े राजनीतिक कदम नहीं उठाए गए थे, पर ताजा घटनाक्रम ने घाटी के सुधरते हालात को एक बार फिर उथलपुथल की तरफ धकेल दिया है। क्या कश्मीर की यही नियति है!
इस आलेख के लेखक उर्मिलेश हैं
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Tags: कर्फ्यू और जनाक्रोश , सत्तारूढ़ गठबंधन और नौकरशाही, गठबंधन
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