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आर्थिक विवेका पर सियासी ग्रहण

जागरण मेहमान कोना
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आदरणीय वित्त मंत्रीजी, कुछ ही घंटों में आप देश का बजट पेश कर रहे होंगे। उम्मीद के मुताबिक, ढेर सारी बौद्धिकता के साथ आप एक दीन-हीन राष्ट्र के गले अनुदान की खुराक उतारने की अपनी पुरजोर कोशिश करेंगे। चुनाव पूर्व के बजट में, ये अनुदान और तमाम तरह की सब्सिडी किसानों के उस 60,000 करोड़ रुपये के कर्ज से कहीं अधिक हैं, जो आपने अपने इसी पुराने अवतार के दौरान उदारतापूर्वक माफ किया था। इनमें खाद्य सब्सिडी और केंद्र प्रायोजित मनरेगा जैसी अनेक व्यर्थ योजनाओं के तहत दी जाने वाली सब्सिडी शामिल हैं। कैग की रपट देखें तो कर्ज माफी का एक बड़ा हिस्सा निजी लघु वित्तीय संस्थानों, उनका साथ दे रहे बैंकों और दूसरे साझेदारों को, जिनका उल्लेख शायद उन रिपो‌र्ट्स में नहीं है, विवेकहीन तरीके से जाता है। यह तथ्य आश्चर्यजनक नहीं कि आपके दूसरी बार वाले आर्थिक विवेक को राजनीतिक उपयोगिता का ग्रहण लग गया है, जो उन शक्तियों द्वारा निर्देशित है जिनके सामने आप नि:शक्त हो जाते हैं।

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आपके या हमारे विद्वान प्रधानमंत्री जैसे लोग, जिनकी आर्थिक और विकास संबंधी समझ कहीं बेहतर है, की आवाज ऐसे लोगों के सामने दब जाती है, जो न तो वोट बैंक की संकीर्ण राजनीति के अलावा कुछ देख सकते हैं और न जिनके पास वैसी शिक्षा है और न ही समझ। लिहाजा, यह राष्ट्र आपसे प्रगतिशील बजट पेश करने की उम्मीद नहीं करता। वैसा साहसी बजट, जैसा आपने 1997 में पेश किया था। ऐसा बजट, जो इक्विटी और ग्रोथ में संतुलन और ऐसा वातावरण बनाने वाला हो, जिसमें हमारी अर्थव्यवस्था में उत्पादक आर्थिक गतिविधियां बढ़ाने की क्षमता विकसित हो और लंबे समय से उपेक्षित आधारभूत संरचना में जान फूंकने वाला हो। हमारे विकास की इठलाती दास्तां और उसकी गिरावट के गवाह रहे पिछले कुछ वर्षो के बजट गरीब के नाम पर लुटाई जाने वाली सब्सिडी और राज्यों को दिए जाने वाले अनुदान के घोषणापत्र मात्र बनकर रह गए हैं, लेकिन यह बजटों के जरिये नहीं हुआ। अनुदान की घोषणाएं इसलिए की जाती हैं ताकि उनका लेखा-जोखा सरकारी खर्च से बाहर हो जाए। उन पर वित्तीय और विधायी नियंत्रण न रहे और भ्रष्टाचार की धारा इसी तरह बहती रहे। 2011-12 के अंत में हमारे पास 147 ऐसी योजनाएं थीं, जिनमें 11वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 6.6 लाख करोड़ रुपये फूंक दिए गए। यह 2जी, कॉमनवेल्थ, आदर्श, कोलगेट और चोपरगेट जैसे घोटालों की कुल रकम से भी ज्यादा है। मनरेगा, सर्व शिक्षा अभियान और एनआरएचएम जैसी नौ प्रमुख योजनाओं में ही 5.24 लाख करोड़ रुपये खर्च हो गए। केंद्र की ओर से राज्यों को दिए जाने वाले अनुदान का 50 फीसद से भी ज्यादा इन योजनाओं को लागू करने वाली एजेंसियों पर खर्च किया जाता है, जिसका बजट में कोई जिक्र नहीं होता। पिछले साल आपके पूर्ववर्ती ने राज्य सरकारों के बजट के जरिये राज्यों की योजनाओं में केंद्र सरकार की मदद के रूप में जाने वाले 1.30 लाख करोड़ की तुलना में 1.33 लाख करोड़ रुपये का सीधे हस्तांतरण किया।

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क्या आप इन योजनाओं के पीछे के सामाजिक-आर्थिक तर्क को तार्किक ढंग से समझ सकते हैं? आम आदमी इन खर्चो के लिए अपनी जेब से टैक्स क्यों दे? क्या आप इस पैसे को उद्योग, शिक्षा और आधारभूत संरचना पर खर्च करने के अवसर के बारे में सोच सकते हैं? अनुदान का भार कर्ज और ब्याज सेवाओं, राज्य सरकारों को दिए जाने वाले अनुदान, संवैधानिक प्राधिकरणों के खर्च और दूसरी संस्थाओं पर होने वाले खर्च के कारण है। यह गरीबों के नाम पर चलाई जाने वाली योजनाओं के लिए आपके समर्थ पूर्ववर्ती और उनके भी समर्थ पूर्ववर्तियों द्वारा लिए गए कर्ज के कारण है। गरीबों को लाभ किससे मिला, 1991 में शुरू की गई आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया से, जिसने दहाई की ग्रोथ देखी या उन योजनाओं से, जिन्होंने सुधारों की कमर तोड़कर रख दी और विकास दर को वापस पुरातन काल में डाल दिया? यह अब बहस का मुद्दा नहीं रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आपको अपनी पार्टी के सबसे मुश्किल दौर में अर्थव्यवस्था का रथ हांकना पड़ रहा है। ऐसे समय में जब पार्टी की विश्वसनीयता गिर रही है, घोटाले-दर-घोटाले सामने आ रहे हैं, यह आप पर छोड़ दिया गया है कि चुनाव से एक साल पहले जो कुछ बचा है, उसे बचा लिया जाए। लोकप्रियता बटोरने की आपकी मजबूरियां समझ में आती हैं, फिर भी भारत की रेटिंग को बचाने के लिए जब आपने सरकारी विभागों के खर्चो में कटौती की और 1200 करोड़ रुपये का कर्ज लेने का फैसला टाल दिया गया तो आपकी तारीफ भी हुई। आपने अपनी सरकार के लिए पहले ही काफी कुछ बचा लिया होता यदि आप कुछ मंत्रालयों के लिए बजट न रखते, जिनका संघीय ढांचे में कोई काम नहीं है। कृषि, ग्रामीण विकास और स्वास्थ्य जैसे मंत्रालय राज्यों के विषयों से संबंधित काम कर रहे हैं। पिछले साल इन तीन मंत्रालयों ने ही अकेले 1.91 लाख करोड़ रुपये खर्च कर दिए, जो संपूर्ण बजट खर्च का 13 फीसद है। ये मंत्रालय केंद्र प्रायोजित योजनाओं को राज्यों की ओर से लागू किए जाने के मामले में सबसे बड़े हैं। यही वे मंत्रालय हैं जो इन अतर्कसंगत योजनाओं को खत्म करने का विरोध करते आए हैं, क्योंकि इन योजनाओं के जरिये ये ग्रामीण मतदाताओं को असीमित अनुदान बांटने और अपने राजनीतिक आकाओं की जमीन तैयार करने का काम कर सकते हैं। निश्चित रूप से कोई भी सरकार ऐसे विशेषाधिकार नहीं छोड़ना चाहेगी, लेकिन एक वित्त मंत्री होने के नाते क्या आपको राजनीति से ऊपर नहीं उठना चाहिए? क्या आप इस प्रक्रिया को और आगे ले जाना चाहते हैं?


आप वाणिज्य, नागरिक उड्डयन जैसे मंत्रालयों और अपने स्वयं के मंत्रालय के वित्तीय सेवाओं के विभाग को दिए जाने वाले अनुदान खत्म कर सकते हैं। आपको हमारी कंपनियों, एयरलाइंस और बैंकों के संचालन के लिए उनके दखल की जरूरत नहीं है। आपको सिर्फ इन क्षेत्रों के लिए मजबूत नियामक गठित करने की आवश्यकता है। जिस तरीके से कंपनियां और कॉरपोरेशन काम करते हैं, उनमें हस्तक्षेप कर मंत्रालय बहुत-सा निवेश देश में आने ही नहीं देते और निवेश के देश से बाहर जाने का असर हमारी विकास दर, बढ़ती बेरोजगारी और महंगाई पर दिखाई देता है। वित्त मंत्री महोदय, क्या आप अपने नेताओं के संकीर्ण दृष्टिकोण से ऊपर उठ सकते हैं, सिर्फ एक दिन के लिए ही?


इस आलेख के लेखक गोविंदो भट्टाचर्जी हैं


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Tags: बेरोजगारी, महंगाई, ग्रामीण विकास, स्वास्थ्य, सब्सिडी

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