Menu
blogid : 5736 postid : 6838

एक राजनीतिक लेखाकार का बजट

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

डाल पर बैठे पंछी को गिरने का भय नहीं। इसलिए नहीं कि शाखा मजबूत है, विश्वास है उसे अपने पंखों पर। रेल मंत्री पवन बंसल की यह तुकबंदी वस्तुत: गहरे निहितार्थो वाली थी। हमारा रेल बजट पिछले कई सालों से लगातार कविताओं और तुकबंदियों का रोचक मिश्रण प्रस्तुत करता रहा है और बजट प्रस्तावों, रेलवे की स्थिति एवं भावी संभावनाओं की दृष्टि से उसकी प्रासंगिकता भी रही है। ध्यान रखिए कि पवन बंसल ने ये पंक्तियां तब पढ़ीं, जब वे वित्तीय स्थिति व प्रस्तावों का खुलासा करने जा रहे थे। यह एक प्रकार से देश को विश्वास दिलाना था कि रेलवे की जर्जर हालत की चर्चा से निराश होने के बजाय आप उम्मीद रखें कि यह ढहने वाली नहीं है। प्रमाण के तौर पर उन्होंने सूचना दी कि 25 वर्ष में पहली बार रेलवे सरकार से ग्रांट नहीं मांग रहा है और पिछले वित्तीय वर्ष में केंद्र से तीन हजार करोड़ रुपये का जो कर्ज लिया गया था, उसे ब्याज के साथ वापस कर दिया गया है।

Read:फिर सजा-ए-मौत, फिर बहस


यही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि 12वीं योजना के अंत तक रेलवे 30 हजार करोड़ रुपये के लाभ में पहुंच जाएगा। निश्चिय ही रेल मंत्री की ये दोनों सूचनाएं हमारे सामन आए रेलवे के वित्तीय जर्जरता संबंधी आंकड़ों के बीच आश्चर्य में डालने वाली हैं। खुद बंसल ने अपने भाषण में साफ किया कि यात्री यातायात से घाटा 2012-13 के 22,500 करोड़ की तुलना में बढ़कर 24,600 करोड़ हो गया। एक ओर घाटा और दूसरी ओर कर्ज अदायगी के बीच स्वस्थ और स्वीकार्य तार्किक रिश्ता तलाशना कठिन है। फिर इसका अर्थ क्या है? वास्तव में बजट का गहराई से विश्लेषण करें तो यह रेल मंत्री के साथ एक राजनीतिक लेखाकार द्वारा तैयार बजट नजर आएगा। लेखाकार इसलिए क्योंकि वित्त के आंकड़े इस तरह गूंथे गए हैं कि इससे रेलवे का वित्तीय ढांचा मजबूत होने के साथ उसके समक्ष व्याप्त चुनौतियों, आवश्यकताओं के लिए आवश्यक खर्च पूरा हो जाने की उम्मीद कायम हो जाए। यह पिछले वर्ष तब के रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी की सोच से अलग है। दिनेश त्रिवेदी ने साफ तौर पर इस भयानक सच्चाई को स्वीकार किया था कि रेलवे जिस आर्थिक दुर्दशा में पहुंच गया है, उसे आपात कार्य के रूप में कम किए या दूर किए बगैर इसका संचालन संभव नहीं होगा। बंसल कह रहे हैं कि योजनाओं के लिए एक लाख करोड़ रुपये निजी सार्वजनिक भागीदारी से और 1 लाख 5 हजार करोड़ अंदर से पैदा किया जाएगा।


पिछले एक दशक से निजी सार्वजनिक भागीदारी की बात हो रही है, लेकिन यह साकार होता कभी दिखा नहीं। अभी तक निजी कंपनियां रेलवे में धन निवेश करने से कतराती हैं। कारण, उन्हें निश्चित समय में मुनाफा की गारंटी नहीं मिलती। यह स्थिति आज तक कायम है। वैसे पूरी दुनिया में रेलवे में निजी निवेश का रिकॉर्ड निराशाजनक है। 12वीं योजना में 5 लाख 19 हजार करोड़ रुपये निवेश का लक्ष्य है, जिसमें से बजट समर्थन से 1 लाख 94 हजार करोड़ रुपये ही आने हैं। यह कैसे होगा, बिल्कुल स्पष्ट नहीं है। बंसल की घोषणा का अर्थ यही है कि बुरी आर्थिक दशा में केंद्र सरकार रेलवे को बहुत ज्यादा वित्तीय मदद करने की स्थिति नहीं है। बहरहाल, वित्तीय स्थिति किसी भी संगठन का अलग पहलू नहीं होता, बल्कि उसके समग्र ढांचे का ही अंग होता है। रेल बजट पर विचार करते समय हमें यह ध्यान रखना होगा कि वर्तमान आर्थिक ढांचे एवं उससे जुड़ी जीवनशैली में रेलवे सीधे संपूर्ण आर्थिक विकास से जुड़ा है। रेलवे के स्वस्थ होने और विकास की गति में सीधा संबंध है। अगर इस मुख्य तथ्य का ध्यान रखें तो इस समय किसी भी रेल मंत्री की प्राथमिकताएं वित्त के साथ संपूर्ण ढांचे को यात्री एवं माल ढुलाई की दृष्टि से सक्षम, आकर्षक, विश्वसनीय बनानी होनी चाहिए। अगर हम रेलवे के समक्ष चुनौतियों का ध्यान करें तो वित्तीय संकट के साथ यात्रियों की बढ़ती भीड़, सुरक्षा, यात्री सुविधाएं यानी समय पर कन्फर्म टिकट पाने, खान-पान, सफाई, अन्य पेशेवर कार्य संबंधी जरूरतों का अभाव सामने आता है। रेल मंत्री बंसल के बजट में इनकी चर्चा तो की गई है और परिचालन अनुपात 88.8 होने की सूचना का तालियों से स्वागत भी हुआ। अगर यह सही है तो काफी हद तक संतोष का विषय है। किंतु अचानक यह 95 से 6.5 प्वाइंट नीचे कैसे आ गया, इसका सूत्र समझ में नहीं आता। कारण, रेलवे परिचालन का खर्च घटने या खर्च के अनुपात में आय बढ़ने का कहीं से संकेत नहीं है। सच कहें तो राजनीतिक दबाव के कारण ही बंसल ने वित्तीय दुर्दशा की जगह उम्मीद की तस्वीर पेश की है। पिछले महीने ही उन्होंने किराये में बढ़ोतरी करते हुए रेल की खराब माली हालत का जिक्र किया था। अगर समस्या नहीं होती तो यह घोषणा करने के बाद कि यात्री किराया नहीं बढ़ेगा, परोक्ष रूप से ऐसा किया गया है। मसलन, टिकट रद करने का शुल्क बढ़ाना, संवर्धित आरक्षण शुल्क घटाना और आरक्षण शुल्क में बढ़ोतरी, एसी 2 में तत्काल टिकट 100 रुपये महंगा करना, एसी चेयरकार में न्यूनतम किराया 75 रुपये से 100 रुपये किया जाना जैसे कदम आखिर किराया ही तो बढ़ाना है। इसके साथ ईधन अधिभार किराया बढ़ना ही है। इसमें भी दो राय नहीं कि यात्री सुविधाओं और सुरक्षा पर काफी फोकस करने की कोशिश है। सबसे पहले यात्री सुविधाओं पर सरसरी नजर दौड़ाएं। 10 लाख से अधिक आबादी वाले 104 ऐसे स्टेशनों को चिह्नित किया है, जिनको अद्यतन किया जाएगा। मोबाइल से ई-टिकटिंग, उसकी समय सीमा का विस्तार और क्षमता में तीन गुना से ज्यादा वृद्धि, एसएमएस से आरक्षण स्थिति की सुविधा, आधार कार्ड का मैत्री सेवाओं की तरह प्रयोग, कुछ चुनिंदा रेलों में मुफ्त वाईफाई की सुविधा, कुछ शताब्दी एवं राजधानी रेलों में अनुभूति डिब्बों के साथ विशेष सेवाएं, ग्रीन टॉयलेट, खानपान मॉनिटरिंग सेवा, हेल्पलाइन। सुरक्षा के लिए रेलवे सुरक्षा बल की संख्या बढ़ाने, जिनमें महिलाओं को 10 प्रतिशत तथा मेट्रो में महिला स्पेशल में उनकी तैनाती आदि प्रमुख है। रेल यातायात प्राधिकरण की स्थापना रेलवे परिचालन को सुरक्षित एवं विश्वसनीय बनाने की मांग के अनुरूप है। इन सबसे किसी का मतभेद नहीं हो सकता। लेकिन बजट का यह दर्शन और दिशा परंपरागत है, जिनमें अपेक्षित सफलता न मिलने का लंबा अनुभव है। छठे वेतन आयोग और अन्य खर्चो से चरमराई रेल को उबारने के लिए इस समय नए दर्शन और दिशा की आवश्यकता थी।


नए संसाधन पैदा करना, जब आज तक संभव नहीं हुआ तो उन्हीं तरह के कदमों से अब कैसे हो जाएगा? रेलवे की परेशानी का कारण दूर की यात्रा करने वाले नहीं, निकट के यात्री हैं। घाटा सबसे ज्यादा इसमें है। इसलिए इसका भार कम करने के लिए एक्सप्रेस और सुविधायुक्त रेलों की जगह सामान्य स्वच्छ स्थानीय रेलों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए थी। मुंबई में 72 और कोलकाता में 18 नई रेलें उचित हैं, क्योंकि इन दो महानगरों में प्रतिदिन के यात्रियों की संख्या 1 करोड़ से थोड़ा ज्यादा है, लेकिन ऐसी व्यवस्था अन्य क्षेत्रों के लिए भी होनी चाहिए थी। रेलों की दूरी बढ़ाने, ठहराव बढ़ाने, संख्या बढ़ाने के अनुपात में लाइन का दोहरीकरण न होना विलंब का मुख्य कारण है। साथ ही इसका अत्यंत प्रतिकूल असर सारी यात्री सुविधाओं पर पड़ता है। एक रेल आई और फिर उसे वापस जाना है तो उसमें रख-रखाव, सफाई आदि के लिए समय ही नहीं मिलता है। इसे दूर करने की विश्वस्त उम्मीद बजट में दिखाई नहीं देती। यात्री और माल दोनों के लिए विलंब सबसे बड़ा सिरदर्द है। इसे दूर करने के लिए भी यकीनन नई एप्रोच की जरूरत है। कह सकते हैं कि नई रेलों और सुविधायुक्त रेलों के लिए राजनीतिक दबाव इतना होता है कि किसी रेल मंत्री के लिए उन्हें नजरअंदाज करना कठिन हो जाता है। किंतु आप राजनीतिक दबाव के बावजूद अधिभार आदि लगा सकते हैं तो ऐसा क्यों नहीं कर सकते? एसोचैम ने बजट पूर्व के अपने स्मार पत्र (मेमोरेंडम) में दो वर्ष तक नए रेलों की घोषणा न कर, उनके परिचालन, सुरक्षा, रख-रखाव सहित पूर्व घोषणाओं के सुदृढि़करण का उचित सुझाव दिया था। यह सुधार की दिशा में उपयुक्त रास्ता हो सकता है। इसलिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भले इसे विकास की गति देने वाला सुधारवादी बजट कहें, लेकिन इसका तटस्थ मूल्यांकन विपरीत निष्कर्ष सामने लाता है।


इस आलेख के लेखक अवधेश कुमार हैं


Read:नाजुक दौर में देश

दरार पाटने की कोशिश


Tags:budget 2013, budget live, बजट, परिचालन, सुरक्षा

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh