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हमारे हिस्से की राहत

जागरण मेहमान कोना
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पिछले कई वर्र्षो से बजट के प्रति उत्सुकता लगभग समाप्त हो रही है, क्योंकि सरकार बजट से पहले ही कई ऐसे फैसले ले लेती है, जो समान्यत: आम आदमी को हैरत और मुश्किल में डालने वाले होते हैं। बजट सरकार के लेखे-जोखे का मात्र एक दस्तावेज ही बन कर रह जाता है। इस साल भी कुछ ऐसा ही होता दिख रहा है। सरकार ने पेट्रोलियम पदाथरें की कीमतों पर अपना रहा-सहा नियंत्रण भी खत्म करते हुए तेल कंपनियों को डीजल और एलपीजी की कीमतों को निर्धारित करने की छूट दे दी। पेट्रोल, डीजल और एलपीजी की कीमतें ही नहीं बढ़ी, बल्कि सब्सिडी युक्त एलपीजी सिलेंडरों पर राशन भी कर दिया गया और बाद में जनदबाव में राशनयुक्त सिलेंडरों की संख्या 6 से बढ़ाकर 9 कर दी गई। रेल किरायों में भी खासी वृद्धि की गई। यानी कहा जा सकता है कि अलोकप्रिय फैसले बजट से पहले ही ले लिए जाते हैं, ताकि बजट के दिन सरकार की आलोचना न हो। आम आदमी फिर भी सरकार से अपेक्षाएं रखता ही है। महंगाई से जूझ रहा हर आदमी इससे निजात पाना चाहता है। नौकरी-पेशा लोग करों में राहत चाहते हैं। किसान चाहता है कि उसे अपनी फसल की अच्छी कीमत मिले, लागतें घटे और सिंचाई, सड़क और विपणन सुविधाएं बढ़ें। आम आदमी ही नहीं कॉरपोरेट जगत भी बजट से उम्मीदें रखता ही है। कॉरपोरेट जगत चाहता है कि उस पर कम से कम टैक्स लगें, उसकी लागत घटे, ब्याज दरों में कमी हो और कुल मिलाकर बजट निवेशक के अनुकूल हो। अब सवाल यह है कि वित्तमंत्री सबको खुश कैसे रखें? 21 फरवरी को राष्ट्रपति के अभिभाषण में सरकार की नीतियों का बखान तो हुआ, लेकिन साथ ही देश के समक्ष चुनौतियों की चिंता भी प्रकट हुई। देश इस समय महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, बढ़ते राजकोषीय एवं विदेशी भुगतान घाटे इत्यादि कई समस्याओं से जूझ रहा है।

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राष्ट्रपति ने कहा कि देश की घटती ग्रोथ के लिए अंतरराष्ट्रीय कारण जिम्मेदार हैं और इन्हीं कारणों से महंगाई भी हो रही है। सरकार के भारी घाटे के चलते सब्सिडी घटानी पड़ रही है। बढ़ती ईंधन लागतों के चलते देश में महंगाई और भी बढ़ सकती है। ऐसे में सरकार असमंजस में है कि वह कैसे ग्रोथ बढ़ाए और महंगाई थामे, लेकिन उसे कुछ सूझ नहीं रहा। इस समय बढ़ते राजकोषीय घाटे के कारण सरकार को रिजर्व बैंक से भारी उधार लेना पड़ रहा है। औद्योगिक विकास में ग्रोथ लगभग शून्य पर पहुंच गई है। इसे बढ़ाने का एक सही तरीका यह होता है कि ब्याज दरें कम रखी जाएं, लेकिन वर्ष 2010 से लगातार (दो अपवादों को छोड़कर) ब्याज दरें लगातार बढ़ती ही जा रही हैं। बढ़ती ब्याज दरों के चलते निवेश घट रहा है और औद्योगिक ग्रोथ बाधित हो रही है। वित्तमंत्री के बार-बार कहने पर भी रिजर्व बैंक ब्याज दरें घटाने के लिए तैयार नहीं है। उसका कहना है (जो कुछ हद तक सही है) कि ब्याज दरें घटाने से महंगाई और बढ़ सकती है और वह यह जोखिम नहीं उठा सकता। महंगाई ही नहीं रुपये का अवमूल्यन भी इस समय सरकार का असमंजस बढ़ा रहा है।


रुपये के गिरने का मुख्य कारण रिकार्ड विदेशी भुगतान घाटा है। 1990-91 में जब देश सबसे खराब विदेशी भुगतान घाटे से गुजर रहा था, तब भी यह जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का 3 प्रतिशत ही था। जबकि 2012-13 दूसरी और तीसरी तिमाही में यह क्रमश: जीडीपी का 5.4 और 6 प्रतिशत दर्ज किया गया। 1990-91 में भारी भुगतान घाटे के कारण देश को अपना सोना विदेश में गिरवी रखना पड़ा था और इसे अभी तक देश भुला नहीं पाया है। इसी बात को आधार बनाकर देश में भूमंडलीकरण की नीति चलाई गई और विदेशी निवेश एवं विदेशी व्यापार में खुलापन लाया गया। लेकिन, आज लगता है कि देश दोबारा 1990-91 की स्थिति में पहुंच गया है। फर्क केवल इतना है कि उस समय देश के पास विदेशी मुद्रा भंडार नहीं थे, लेकिन अभी लगभग 270 अरब डॉलर के विदेशी मुद्रा भंडार हैं। ऐसी स्थिति बहुत समय नहीं चल सकती, क्योंकि यदि ऐसा चलता रहा तो विदेशी मुद्रा भंडार समाप्त हो सकते हैं। महंगाई, भारी भुगतान घाटे और बड़े राजकोषीय घाटे की छाया में बन रहे बजट के संदर्भ में वित्तमंत्री के पास बहुत अधिक विकल्प नहीं हैं। सरकार पहले ही पेट्रोलियम पदार्र्थो पर सब्सिडी लगभग समाप्त कर चुकी है। गार (जनरल एंटी एवोयडेंस रूल्स) को स्थगित करने के कारण निकट भविष्य में विदेशी निवेशकों से टैक्स वसूलने की संभावनाएं खत्म होती दिख रही हैं। स्पेक्ट्रम बिक्री से बहुत अधिक प्राप्ति संभव नहीं है। औद्योगिक ग्रोथ घटने से आयकर, कंपनी कर और एक्साइज ड्यूटी से प्राप्तियां भी सीमित ही रहने वाली हैं। सरकार का सारा प्रयास सरकारी कंपनियों के शेयर बेचने और सब्सिडी को और ज्यादा घटाने पर ही रहेगा। हाल ही में सरकारी हलकों में सुपर अमीरों पर अतिरिक्त टैक्स लगाने की खुसफसाहट शुरू हुई थी, लेकिन अभी उस पर लगाम-सी लग चुकी है। यानी सरकार के पास आमदनी बढ़ाने और खर्च घटाने के बहुत कम विकल्प बचे हैं। इन सभी परिस्थितियों में, जबकि वित्त मंत्री के पास बजट के जरिये कुछ कर सकने की खास संभावनाएं नहीं दिख रही हैं, एक मानसिक दबाव अवश्य रहेगा कि चुनावी वर्ष में आम जनता को खुशफहमी में कैसे रखा जाए। उसके लिए सरकार ने पहले से ही कैश सब्सिडी का शिगूफा छोड़ दिया है। सरकार का कहना है कि सब्सिडी कई बार सही पात्रों तक नहीं पहुंच पाती है, इसलिए उसे सही हाथों में पहुंचाने के लिए नकद सब्सिडी देना सही रहेगा। इसके लिए आधार कार्ड के माध्यम से लाभार्थियों के बैंक खातों में सीधे सब्सिडी पहुंचाने का काम आगे बढ़ाया जाएगा।


गौरतलब है कि देश के कुछ हिस्सों में यह शुरू भी कर दिया गया है। इस योजना में अभी तक की खास बात यह है कि सरकार ने अपनी ओर से गरीबों की पहचान करते हुए उन तक खाद्य सब्सिडी नकद पहुंचाने का काम स्थगित किया है। यानी खाद्य सब्सिडी को अभी कैश सब्सिडी के दायरे में नहीं लाया गया। इस प्रकार नकद सब्सिडी के माध्यम से वोट बटोरने की कोशिश यह बजट जरूर कर सकता है। इसके साथ ही साथ सरकारी हलकों में किसानों के लिए एक और ऋण माफी की बात भी चल रही है। कैग द्वारा हाल ही में इस संबंध में किए गए खुलासों के बाद शायद इस बात पर कुछ रोक लगेगी। नौकरीपेशा लोग महंगाई के चलते आयकर सीमा बढ़ाने की चाहत रखते हैं, लेकिन उनके लिए सबसे जरूरी बात यह रहेगी कि सरकार महंगाई पर किस कदर रोक लगा पाएगी। सुपर अमीरों पर सुपर टैक्स, खाद्य पदार्र्थो की कीमतों पर नियंत्रण, औद्योगिक ग्रोथ बढ़ाने के लिए एक्साइज ड्यूटी में कमी आदि कुछ ऐसे फैसले हैं, जिन पर आम आदमी की निगाह जरूर रहेगी।

इस आलेख के लेखक अश्विनी महाजन हैं


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Tags: budget 2013, budget live, बजट, परिचालन, सुरक्षा

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