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अधूरी उम्मीदों का लेखा-जोखा

जागरण मेहमान कोना
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अधूरी उम्मीदों का लेखा-जोखा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्तमंत्री पी. चिदंबरम से पूरा देश यह अपेक्षा कर रहा था कि वह इस आम बजट को यादगार बनाने के लिए न तो साहसिक कदम उठाने से परहेज करेंगे और न ही राजनीतिक बाध्यताओं की परवाह करेंगे, लेकिन बजट दस्तावेज के रूप में जो कुछ सामने आया उससे यही स्पष्ट होता है कि सरकार अपनी ही बुनियादी चिंता के समाधान की ठोस कोशिश नहीं कर सकी। चिदंबरम के बजट में वित्तीय घाटे की चिंता स्पष्ट है और बाद में प्रधानमंत्री ने भी उनके इस चिंतन पर मुहर लगा दी, लेकिन इसे कम करने के लिए जो कुछ प्रस्तावित किया गया है उससे यह भरोसा नहीं उत्पन्न होता कि हम अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए वास्तव में गंभीर हैं। साहस की कमी इससे ही स्पष्ट होती है कि सरचार्ज लगाने के लिए एक करोड़ रुपये सालाना कमाई करने वालों को ही चुना गया।

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यह सीमा पचास या बीस लाख रुपये क्यों नहीं रखी गई? अगर बीस लाख रुपये से ज्यादा आय वाले लोगों पर दस प्रतिशत का सरचार्ज लगाया जाता तो यह कहा जा सकता था कि सरकार ने राजनीतिक जोखिमों की परवाह न करते हुए अर्थव्यवस्था की बेहतरी पर ध्यान दिया। यह विचित्र है कि हमारे देश के लोकतंत्र को सामान्य मतदाता नियंत्रित करते हैं, लेकिन नीतिगत फैसलों में अमीर लोग छाए हुए हैं। नि:संदेह वित्तीय घाटे की भरपाई अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए आवश्यक है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सरकार गरीबों की परवाह करती ही नजर न आए। सामाजिक कल्याण, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार जैसे क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर खर्च किए बिना गरीब तबके और मध्यम वर्ग का हित नहीं किया जा सकता। पिछले बजट से तुलना करें तो इन क्षेत्रों से जुड़ी योजनाओं पर या तो खर्च यथावत रखा गया है या फिर जो वृद्धि की गई है वह वास्तविक अर्थ में कोई वृद्धि नहीं है। मनरेगा का ही उदाहरण लें। 2012-13 में इसके लिए चालीस हजार करोड़ रुपये खर्च की व्यवस्था की गई थी, जबकि वित्तीय वर्ष 2013-14 के लिए यह राशि 33000 करोड़ रुपये ही होगी। यही हाल दूसरी सामाजिक योजनाओं का भी है। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क परियोजना में सही मायने में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई तो यही स्थिति सर्व शिक्षा अभियान की है। कृषि और ग्रामीण विकास की बात करें तो देखने में यही आ रहा 6ै कि चिदंबरम ने इन क्षेत्रों पर विशेष ध्यान दिया है, लेकिन जो वृद्धि की गई है वह कुल मिलाकर जरूरतों के मुताबिक नहीं है। मनरेगा की तरह खाद्य सुरक्षा को भी संप्रग सरकार की ओर से अपने एजेंडे में शीर्ष पर बताया जा रहा था, लेकिन बजट से तो इस दावे की पुष्टि नहीं होती।


तीन दिन पहले ही खाद्यमंत्री ने खाद्य सुरक्षा के लिए 25000 करोड़ रुपये की जरूरत जताई थी, लेकिन चिदंबरम के बजटीय पन्नों से इस योजना के लिए महज दस हजार करोड़ रुपये निकले। महिलाओं की सुरक्षा के लिए एक हजार करोड़ रुपये का नया कोष स्थापित कर यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि सरकार ने हाल में महिलाओं की सुरक्षा पर उठे सवालों को गंभीरता से लिया है, लेकिन हो सकता है कि आने वाले समय में यह सामने आए कि इस कोष को खर्च ही नहीं किया जा सका। ऐसा ही महिलाओं के लिए विशेष बैंक स्थापित करने के प्रस्ताव के मामले में भी हो सकता है। ग्रोथ दरअसल बहुत सारी बातों पर निर्भर करती है। नीतियों का अपना महत्व है, लेकिन सारा दारोमदार डिलेवरी सिस्टम पर टिक जाता है और यह डिलेवरी सिस्टम नौकरशाही के रुख पर निर्भर है। हर कोई इससे परिचित है कि अपने देश में नौकरशाही के कामकाज का स्तर क्या है? फिर एक समस्या यह भी है कि एक बड़ी संख्या में योजनाएं विभिन्न मंत्रालयों की मंजूरी के इंतजार में वर्षो तक अटकी रहती हैं। बजट पेश होने के बाद प्रधानमंत्री ने इस ओर इशारा भी किया। ग्रोथ की राह में बाधा बनने वाली इन सभी परिस्थितियों का निवारण अकेले वित्तमंत्री के वश की बात नहीं। इसीलिए यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि हम जिन आर्थिक चुनौतियों से घिरे हैं और अर्थव्यवस्था की तस्वीर जिस तरह निराशाजनक होती जा रही है उससे पार पाने के लिहाज से बजट का महत्व बहुत सीमित है। बजट देश की आर्थिक नीतियों की एक तस्वीर देश-दुनिया के सामने रख सकता है, सरकार के इरादों की झलक दे सकता है, लेकिन निवेशक आकर्षित होंगे या नहीं, औद्योगिक विकास की रफ्तार बढ़ेगी या नहीं अथवा आम आदमी का हित होगा या नहीं, यह सब बहुत सारी परिस्थितियों पर निर्भर करता है। फिलहाल यह कहना कठिन है कि बजट निवेशकों का भरोसा बहाल करने में सहायक सिद्ध होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में दुनिया भर के निवेशकों का मिजाज वही रहेगा। यानी अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों की धारणा में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आने वाला। अगर विदेशी ही नहीं, घरेलू निवेशक अभी भी भारत में निवेश करने से परहेज करते रहें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अच्छा होता कि सरकार घरेलू स्तर पर उत्पादन के मोर्चे पर सही तरह ध्यान देती, जिससे रोजगार के अवसर भी बढ़ते और विकास दर भी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया गया। इसके विपरीत सरकार का ध्यान विदेशी निवेश को आकर्षित करने पर है। इसमें कोई हर्ज नहीं है, लेकिन यह काम घरेलू उत्पादन के मोर्चे की अनदेखी करके नहीं किया जाना चाहिए। बजट से लोगों की उम्मीदें भले ही पूरी न हो पाई हों, लेकिन मनमोहन सिंह के पास अभी भी यह अवसर है कि वह शासन संबंधी खामियों को दूर कर आम जनता और विशेष रूप से गरीबों को लाभान्वित कर सकते हैं। इसके लिए उन्हें राजनीतिक लाभ-हानि की परवाह किए बिना फैसलों की रफ्तार बढ़ानी होगी।

इस आलेख के लेखक एनसी सक्सेना हैं

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Tags: मनमोहन सिंह , वित्तमंत्री पी. चिदंबरम, सामाजिक कल्याण, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार

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