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नाकाम क्‍यों हो जाता है हमारा खुफिया तंत्र

जागरण मेहमान कोना
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आतंकवाद के रंग को लेकर जारी बहस के बीच हैदराबाद में बम विस्फोरट से यह साबित हो गया कि हमारी सुरक्षा तैयारियों पर आतंकवादी भारी पड़ते हैं। जिस ढंग से भीड़ भरे इलाके में बम विस्फोट को अंजाम दिया गया, उससे यही स्पष्ट होता है कि आतंकवादी बड़े पैमाने पर तबाही मचाना चाहते थे। घटना के बाद हमेशा की तरह इस बार भी मुआवजा, राजनीतिक बयानों, दोषारोपण आदि का दौर शुरू हो गया, लेकिन किसी के पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि खुफिया जानकारी के बावजूद आखिर आतंकवादी अपने मकसद में कामयाब कैसे हो गए। गौरतलब है कि खुफिया एजेंसियों ने पहले ही आगाह कर दिया था कि अजमल कसाब और अफजल गुरु को फांसी देने तथा राष्ट्रीय जांच एजेंसी द्वारा लश्करे तैयबा के 12 आतंकियों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल करने का बदला लेने के लिए आतंकवादी बम धमाका कर सकते हैं।


आतंकवादी हों या नक्सलवादी, अक्सर यह देखा जाता है कि वे कहीं भी और कभी भी अपने मकसद में कामयाब हो जाते हैं। इसका कारण यह है कि आंतरिक सुरक्षा की हमारी कडि़यां अब भी कमजोर बनी हुई हैं। 9/11 के बाद अमेरिका पर दोबारा आतंकवादी हमला नहीं हुआ तो इसका कारण यही है कि उसने आंतरिक सुरक्षा की खामियों को दूर करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है, लेकिन हम अपने ही ढर्रे पर चल रहे हैं। उदाहरण के लिए वर्ष 2002 में ही मंत्रियों के समूह ने अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ होमलैंड सिक्युरिटी की तर्ज पर राष्ट्रीय जांच एजेंसी बनाने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी थी, लेकिन सरकार इस पर कुंडली मारे बैठी रही। 26/11 को मुंबई पर आतंकी हमले के बाद हरकत में आई केंद्र सरकार ने 31 दिसंबर 2008 को नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी यानी एनआइए के आनन-फानन गठित करने की अधिसूचना जारी कर दी। संसाधनों की कमी एनआइए के गठन के समय कहा गया था कि यह अमेरिकी खुफिया एजेंसी एफबीआइ की तरह होगी, लेकिन इसका सालाना बजट एफबीआइ की तुलना में महज 0.07 फीसद है। मानव संसाधनों के मामले में भी यह कमजोर है।


एनआइए के पास अपना कोई कैडर नहीं है। इसमें अन्य विभागों से प्रतिनियुक्ति पर अधिकारी आते हैं। राज्य सरकारें एनआइए में अधिकारियों की प्रतिनियुक्ति की अनुमति देने में दिलचस्पी नहीं दिखाती हैं। तकनीकी दक्षता के मामले में भी यह एजेंसी कमजोर है। इसके तहत केंद्रीय गृह मंत्रालय की निगरानी में एक राष्ट्रीय सूचना चक्र (नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड या नेट ग्रिड) का गठन किया जाना था, जिसका समेकित डाटाबेस देश के बैंकिंग, रेलवे और आव्रजन सरीखे विभागों 21 डाटा बैंकों को एक साथ गूंथ देता। लेकिन संसाधनों की कमी और ठोस राजनीतिक पहल के अभाव में नेट ग्रिड योजना अभी फाइलों में कैद है। इसी प्रकार नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर यानी एनसीटीसी के गठन का काम अधर में लटका हुआ है, क्योंकि राज्य सरकारें इसे अपने अधिकार क्षेत्र में दखल मानती हैं। यही हाल हमारे खुफिया तंत्र का भी है। खुफिया तंत्र के बेहतर तालमेल के लिए केंद्र में मल्टी एजेंसी सेंटर (मैक) और राज्यों में एसमैक भले ही गठित हो गए, लेकिन अब तक ये शायद ही कोई ठोस खुफिया सूचना दे सके हैं, जिस पर कार्रवाई की जा सके। आंतरिक सुरक्षा प्रबंधन का सिद्धांत है कि स्थानीय पुलिसकर्मी या बीट कांस्टेबल को मजबूत बनाकर ही आतंकवाद का मुकाबला किया जा सकता है। प्रधानमंत्री भी कई बार इसे दोहरा चुके हैं। इसके बावजूद कांस्टेबल के अधिकार, उसकी क्षमता और दक्षता में कोई सुधार नहीं हुआ है। हमारी खुफिया एजेंसियां बार-बार असफल होती हैं तो इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि न तो स्थाीनीय स्तर पर पूरा स्टाफ है और न ही उन्हें इस महत्वपूर्ण काम के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है। फिर स्थानीय स्तर पर पुलिस आम जनता का विश्वास हासिल नहीं कर सकी है। लोग पुलिस थाने में जाने, शिकायत करने, सूचना देने, सच्चाई बताने में डरते हैं। आम आदमी और पुलिस के बीच संवाद के अभाव के कारण ही आतंकी अपने मंसूबों को अंजाम देने में कामयाब हो जाते हैं। बीट कांस्टेबल की परंपरा पहले बीट कांस्टेबल की परंपरा थी, जो सूचना के लिहाज से काफी उपयोगी थी, क्योंकि उसे अपने इलाके के लोगों की जानकारी रहती थी। लेकिन धीरे-धीरे बीट कांस्टेबल की परंपरा खत्म-सी हो गई। जो हैं भी, वे खुफियागीरी के बजाय कानून-व्यवस्था और अन्य कामों में लगे रहते हैं। स्थानीय स्त्रोतों से पुख्ता जानकारी हासिल करने के लिए बीट कांस्टेबल के साथ-साथ सोशल पुलिसिंग का तंत्र अपनाना पड़ेगा। हर समाज, हर वर्ग, हर धर्म से जब तक पुलिस का संबंध ज्यादा से ज्यादा नहीं होगा, तब तक उसे समाज के अंदर से जानकारियां नहीं मिल पाएंगी। यह काम कांस्टेबल ही कर सकता है। लिहाजा, बड़ी संख्या में पुलिस के जवानों, स्थानीय स्तर के अधिकारियों की भर्ती के साथ-साथ पुलिस के कामकाज के तरीके में सुधार लाने की जरूरत है। ऐसा करके ही सीसीटीवी कैमरे से लेकर सर्विलांस के उपकरणों को जमीनी सूचनाओं से जोड़ा जा सकेगा। दोनों के तालमेल से ही आतंकी घटनाओं को कम करने में मदद मिलेगी। फिर खुफिया तंत्र को कामयाब बनाने के लिए उसे आम आदमी से जोड़ना होगा। कुली, वेंडर, सफाई कर्मचारी, मछुआरे, दुकानदार, प्रॉपर्टी डीलर, होटल कर्मचारी आदि के रूप में हमारे पास मानव संसाधनों का विशाल नेटवर्क है, लेकिन हमारी खुफिया एजेंसियों और पुलिस की उन तक पैठ नहीं है। अब इस प्रवृत्ति को उलटना होगा। देखा जाए तो अब तक सरकार का पूरा जोर सीसीटीवी, एनआइए और इसी तरह के हाई-फाई सुरक्षा इंतजामों तक सीमित है। लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि जब तक गांव और छोटे कस्बों से लेकर महानगरों की तंग बस्तियों तक बीट कांस्टेबल की तैनानी और उन्हें आधुनिक उपकरणों से लैस नहीं किया जाएगा, तब तक हम आतंकी घटनाओं को नहीं रोक सकते। दुर्भाग्यवश संसाधनों और सुविधाओं के मामले में पुलिस की 87 फीसद ताकत यानी कांस्टेबल उपेक्षित हैं। जरूरत के मुताबिक कम संख्या के चलते एक तो उन पर काम का भारी बोझ होता है। दूसरे, उनसे कई दूसरे काम भी लिए जाते हैं। फिर उनके आवास, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, चिकित्सा आदि सुविधाओं का घोर अभाव है। उत्तर भारत के राज्यों में एक और बुराई है जाति का खुला खेल। यहां भर्ती से लेकर तैनाती तक में जाति के नाम पर भेदभाव बरता जाता है।

इस आलेख के लेखक रमेश दुबे हैं


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