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छह दशक से ज्यादा समय बीत गया, लेकिन हमारी पुलिस की कार्यप्रणाली में कोई सुधार नहीं हो रहा। भारतीय पुलिस आज भी 1861 में अंग्रेजी सत्ता की ओर से बनाए गए कानूनों के तहत संचालित हो रही है। नागरिकों के प्रति आज भी उसका रवैया औपनिवेशिक जमाने की पुलिस की तरह है। अंग्रेजी हुकूमत पुलिस का इस्तेमाल अपने हित साधने के लिए करती रही तो हमारे देशी हुक्मरान भी कहां पीछे रहने वाले थे। ऐसी कई मिसालें मौजूद हैं, जब पुलिस बल पूरी तरह सत्ताधारियों के व्यवहार से नियंत्रित हुआ। पुलिस की इन हरकतों को हालांकि हमारी अदालतें अक्सर अपने संज्ञान में लेती रहीं। अपनी तरफ से उन्होंने भरसक कोशिशें की कि पुलिस अपना काम सही तरह से करे। पर अदालतों की लाख फटकार के बाद भी पुलिस का चेहरा बदलने का नाम नहीं ले रहा। पुलिस व्यवस्था में व्यापक सुधार हो, अब इसके लिए सीवीसी ने आवाज उठाई है।
हाल ही में सीवीसी ने उसी बात को एक बार फिर दोहराया कि डेढ़ सौ साल पुराने जिस कानून से पुलिस संचालित हो रही है, उसने पुलिस को कानून लागू करने वाली एजेंसी की जगह सरकार का एजेंट बनाकर रख दिया है। सतर्कता आयुक्त ने कहा कि पुलिस राज्य के अधीनस्थ सबसे पहला और अहम साधन है, जिसका गठन विशेष मकसद के लिए किया गया। इसे कानून का शासन लागू करना होता है, लेकिन देश में पुलिस व्यवस्था का वर्ष 1861 का पुलिस कानून आज भी मुख्य सहारा है। उन्होंने इस पर अफसोस जताया कि अधिकांश राज्य, मॉडल पुलिस कानून को लागू करने में पूरी तरह से नाकाम हैं। जबकि राष्ट्रीय पुलिस आयोग द्वारा इसे तैयार किए तीस साल से ज्यादा वक्त बीत गया है। आजादी के छह दशक और राष्ट्रीय पुलिस आयोग द्वारा मॉडल पुलिस एक्ट के तैयार हुए चार दशक बीत जाने, कई कमेटियों और आयोगों द्वारा पुलिस सुधारों की जरूरत बताने के बाद भी देश के तीस राज्यों में से बमुश्किल एक दर्जन राज्यों ने ही इसे बगैर किसी डर और पक्षपात के कानून की सहायता करने और लोकतांत्रिक बनाने के लिए इन कानूनों में बदलाव किया है। यानी स्थिति काफी गंभीर है। कोई भी राज्य और सियासी पार्टी नहीं चाहती कि उसके यहां मॉडल पुलिस एक्ट अमल में आए।
सतर्कता आयुक्त ने इसके साथ ही लोकपाल कानून और सीबीआइ कानून की भी वकालत की ताकि कानून लागू करने वाली एजेंसियां और सशक्त हो सकें। सरकारों की ओर से पुलिस का दुरुपयोग किया जा रहा है, इस निष्कर्ष के बार-बार रेखांकित होने के बावजूद न तो राज्य सरकारें पुलिस सुधारों के लिए इच्छुक हैं और न ही केंद्र सरकार। यही नहीं, पुलिस सुधारों के संबंध में केंद्र और राज्य सरकारें दोनों ही सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों को लागू करने से ना नुकुर करती रही हैं। पुलिस सुधारों से इन्कार किए जाने का यह सिलसिला लंबे अर्से से कायम है। वर्ष 2006 में सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के पहले राष्ट्रीय पुलिस आयोग द्वारा जो मॉडल पुलिस एक्ट तैयार किया गया था, उसे भी किसी ने गंभीरता से नहीं लिया। पुलिस सुधार संबंधी कई समितियों और आयोगों की सिफारिशें भी ठंडे बस्ते में पड़ी हुई हैं। पुलिस महकमे को सियासी हस्तक्षेप से आजाद रखने की तजवीज सुझाने के साथ ही कमेटी की कुछ ऐसी सिफारिशें हैं, यदि उन पर ईमानदारी से अमल किया जाए तो पुलिस का पूरा चेहरा ही बदल जाए। मसलन, पुलिस से अवाम की शिकायतों के निपटारे के लिए मुख्तलिफ स्तरों पर आयोग कायम किए जाएं। पुलिस अफसरों के तबादले, पदोन्नति आदि के लिए एक स्वतंत्र बोर्ड बनाया जाए। आपराधिक मामलों की जांच की जिम्मेदारी पुलिस पर न हो। यानी इसके लिए कोई स्वायत्त एजेंसी कायम की जाए। हमारी सरकारों ने जैसे कसम खा ली है कि कुछ भी हो जाए, लेकिन पुलिस का ढांचा नहीं बदलेगा। जब भी कोई बड़ी घटना घटती है, पुलिस सुधारों की दिशा में आगे बढ़ने को लेकर पूरे देश में आवाजें उठती हैं, लेकिन जिन्हें सजगता और सक्रियता का परिचय देना चाहिए, वे चुप्पी साध जाते हैं। चुप्पी की वजह सबको मालूम है। कोई भी सत्तारूढ़ सियासी पार्टी पुलिस के मनमाने इस्तेमाल की सुविधा को छोड़ना नहीं चाहती। हां, जो सियासी पार्टी विपक्ष में होती है, वह जब-तब पुलिस के रवैये और उसके कामकाज के तौर-तरीकों पर सवाल उठाती है। पुलिस ढांचे में बदलाव की मांग तक करती हंै, लेकिन सत्ता में आने पर यही पार्टियां जैसे सब कुछ भूल जाती हैं। अब वक्त आ गया है कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट खुद आगे आए और सरकार से अपने दिशा-निर्देश सख्ती से लागू करवाए।
इस आलेख के लेखक जाहिद खान हैं
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