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हम मूलत: कृषि प्रधान देश हैं। इस प्रधानता का आधार थी हमारी समृद्ध जल विरासत थी यानी नदियां, जिन्हें आज हम स्वार्थपूर्ति के चलते मिटाने की कगार पर हैं। लिहाजा, यह विरासत धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। इसके लिए कोई और नहीं, हम और आप ही जिम्मेदार हैं। देश की कई छोटी-बड़ी नदियों के सामने अस्तिव का संकट छाया है और कुछ तो नष्ट भी हो चुकी हैं, जिनका हमें भान भी नहीं है। प्रकृति ने मानव को हवा, पानी और संसाधनों से परिपूर्ण यह धरती इस अपेक्षा के साथ दी थी कि वह इसके उपयोग के अतिरिक्त बाकी का प्रहरी बना रहेगा, लेकिन अपनी आकांक्षाओं के अतिरेक में हम इस अतिरिक्त को भी अपने उपभोग का मान सभी प्राकृतिक संसाधनों को आज इस दुर्दशा में ले आए कि शुद्ध पानी भी बाजार से खरीदना पड़ रहा है। हजारों रुपये खर्च कर शुद्ध पानी के लिए छोटे उपकरण लगाने पड़ रहे हैं। इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि आने वाले कल में सांस लेने के लिए शुद्ध ऑक्सीजन भी मोल लेनी पड़ेगी। हमारी इन्हीं अक्षम्य गलतियों के चलते गंगा समान पवित्र और उसकी सहयोगी यमुना आज मृतप्राय: स्तिथि में है। किसी वक्त देश के बारह लाख हेक्टेयर से अधिक भूभाग को सिंचित करने वाली यमुना आज प्रदूषण की गिरफ्त में है।
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भारत की उन्नत कृषि के मूल में यमुना का ही लगभग 90 प्रतिशत जल था, लेकिन मानवीय लापरवाहियों के चलते यमुना धीरे-धीरे इतिहास के पन्नों की और अग्रसर है। यमुनोत्री से लेकर इलाहाबाद के संगम तक दिल्ली, एनसीआर, मथुरा और आगरा ने मिल कर ही यमुना को लील लिया है। दिल्ली और आगरा जैसे शहरों में जब यमुना की यह दुर्गति है तो कल्पना की जा सकती है कि शेष अन्य स्थानों पर इस नदी के साथ कैसा सलूक किया जाता होगा। हम देव स्थानों और पूजा अर्चना के लिए तो धर्म के रंग में सराबोर हो मरने-मारने पर आमादा हो जाते हैं, लेकिन नदियों के रूप में विद्यमान साक्षात देवियों को हम नष्ट करते जा रहें हैं। गंगा और यमुना की दुर्दशा से हमने कोई सबक नहीं लिया। यही कारण है कि आज देश की दो अन्य पवित्र नदियां गंगा एवं नर्मदा भी यमुना के पथ पर जाती प्रतीत हो रही हैं। गंगा के समान ही नर्मदा नदी को मध्यप्रदेश और गुजरात में मां का दर्जा प्राप्त है। प्राचीन काल में इसे रेवा के नाम से जाना जाता था, लेकिन नर्मदा भी, गंगा-यमुना की भांति अपनी संतानों से पीडि़त है। अब हालांकि यमुना को बचाने का अभियान भी जोर पकड़ रहा है। एक तरफ अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भाई और बराक एच. फाउंडेशन चलाने वाले मलिक ओबामा यमुना के बचाने के अभियान में शामिल हो रहे हैं, तो दूसरी तरफ पहली मार्च से ही यमुना को प्रदूषण से मुक्ति दिलाने के लिए वृंदावन से एक जत्था रवाना होगा, जो रोजाना 15 किलोमीटर की पदयात्रा कर जागरूकता अभियान चलाएगा, पर उम्मीद कम है कि इससे कुछ हासिल हो सकेगा। असल में इसके लिए व्यापक अभियान की जरूरत है, जो कहीं नहीं दिखता है। पिछली सदी के सातवें दशक में नर्मदा पर 30 बांध बनाने की योजना थी, जिनमें सरदार सरोवर, महेश्वर, इंदिरा सागर और बरगी जैसे अनेक बड़े बांधों के नाम हैं। मध्यप्रदेश व गुजरात के अलावा महाराष्ट्र भी कुछ हद तक नर्मदा का लाभ लेता है। देश के लगभग 23 बड़े जिलों से होकर गुजरने वाली नर्मदा में सबसे बड़ी समस्या सीवेज की है। नगर निगम और नगर पालिकाओं की अक्षमता के कारण शहर और नगरों का सीवेज सीधे-सीधे नर्मदा को समर्पित हो रहा है। नर्मदा के इर्द-गिर्द किसान अपने अधिक उत्पादन के उद्देशय से रसायन, फर्टीलाइजर और कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग कर रहें हैं। किसानों की इस गलती के चलते इन खेतों से गुजरकर ये हानिकारक तत्व सीधे नर्मदा के आंचल को दूषित कर रहे हैं। बची-खुची कसर गुजरात में इसके मुहाने पर बसी औद्योगिक नगरियों ने पूरी कर दी। कुछ स्वयं सेवी संगठनों ने अब प्रयास शुरू किए हैं कि कैचमेंट एरिया में ऑर्गेनिक खेती को प्रोत्साहित किया जाए। देखना होगा कि ये प्रयास यथार्थ के धरातल पर कितने सार्थक होते हैं। ऐसा ही बुरा हाल गंगा का है।
घनी आबादी से घिरे होने के कारण लाखों टन मानव एवं उद्योग अपशिष्ट गंगा में मिल रहे हैं। गंगोत्री से चलने वाली औषधीय गुणों युक्त गंगा का कानपुर पहुंचते-पहुंचते दम निकल जाता है। जिस गंगा स्नान से लोगों के शरीरिक विकार दूर होते थे, आज उसी गंगा का पानी कई शहरों में आचमन के लायक भी नहीं बचा है। मानव अपशिष्ट और सीवेज के चलते पूरी गंगा ही अपवित्र हो चुकी है। इस सबके कारण गंगा का जलीय तंत्र भी बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो रहा है। मछलियों सहित अन्य जलीय जीव एवं जलीय वनस्पति दम तोड़ रहे हैं। ग्लोबल वार्रि्मग के कारण समुद्री जल स्तर लगातार बढ़ रहा है, जिससे नदियों में मीठा पानी कम होता जा रहा है। खारा पानी बढ़ने का सबसे बड़ा साक्ष्य है नदियों में समुद्री मछलियों की प्रजातियों की संख्या का बढ़ना। यह संकट गंगा, नर्मदा के साथ अन्य नदियों पर भी है, क्योंकि समुद्र से हर नदी का वास्ता है। गंगा, नर्मदा से भिन्न ग्लेशियर आधारित नदी है, लेकिन यह ग्लेशियर भी धीरे-धीरे पिघल रहा है, जिसका परिणाम यह हो सकता है कि आने वाले समय में गंगा देश की कुछ अन्य नदियों के समान वर्षा जल पर निर्भर हो जाएगी। वर्तमान परिस्थितियों से जो संकेत मिल रहे हैं, वे गंगा और नर्मदा के लिए शुभ नहीं है। आम आदमी और सरकार दोनों ही स्तर पर नदी को बचाने के बजाय बेचने का खेल चल रहा है। सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें करने से ये स्थितियां नहीं बदलेंगी। हमें और आपको नदियों के प्रति अपनी सोच बदलनी होगी। साथ ही अपनी जरूरतों के अलावा नदी की जरूरतों का भी ध्यान रखना होगा। नहीं तो कुछ वर्र्षो बाद यमुना, गंगा और नर्मदा चित्रों और चलचित्रों के रूप में अभिलेखागार का हिस्सा होंगी।
इस आलेख के लेखक पंकज चतुर्वेदी हैं
Tags: प्राकृतिक संसाधनों, नगर निगम, नगर पालिकाओं, रसायन, फर्टीलाइजर , कीटनाशकों
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