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आस्था और आजीविका का सवाल

जागरण मेहमान कोना
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दुनिया को भूमंडलीय उदारवादी दौर में विश्व ग्राम में बदलने की परिकल्पना का दावा किया गया था, उस तथाकथित विश्व ग्राम में परस्पर सहभागिता को दरकिनार कर केवल व्यापार के लिए औद्योगिक-प्रौद्योगिक रास्ते तलाशे जाने की कवायद की जा रही है। जबकि होना यह चाहिए था कि आस्था का अस्तित्व बनाए रखते हुए रामसेतु और उसके समुद्रतटीय इलाके की विशाल आबादी की आजीविका के स्त्रोत सुरक्षित रखने की कोशिशें होतीं। आरके पचौरी समिति ने सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश के पालन में सेतु समुद्रम परियोजना से जुड़े विभिन्न पहलुओं के विश्लेषण के आधार पर जो रिपोर्ट दी है, उसके अनुसार रामसेतु को सुरक्षित रखते हुए वैकल्पिक मार्ग व्यावहारिक दृष्टि से संभव नहीं है। इस परियोजना का उद्देश्य रामसेतु के बीच से मार्ग बनाकर भारत के दक्षिणी हिस्से के इर्द-गिर्द समुद्र में जहाजों की आवाजाही के लिए रास्ता बनाना है।


यह रास्ता नौवहन मार्ग (नॉटिकल मील) 30 मीटर चौड़ा, 12 मीटर गहरा और 167 किलोमीटर लंबा होगा। इतनी बड़ी परियोजना को वजूद में लाने से पौराणिक काल में अस्तित्व में आए रामसेतु को क्षति तो पहंुचेगी ही, करोड़ों मछुआरों की आजीविका भी प्रभावित होगी और समुद्री क्षेत्र का प्र्यावरण भी प्रभावित होगा। इस लिहाज से सेतु समुद्रम परियोजना के सिलसिले में केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में शपथपत्र देकर जो दलील दी है कि एडम ब्रिज यानी राम सेतु हिंदू धर्म का आवश्यक हिस्सा नही है। इसलिए इसे बनाए जाने में हिंदू धर्मावलंबियों की आस्था आहत नहीं होती। पर्यावरणीय क्षति रामसेतु क्षेत्र का समुद्र प्राकृतिक संपदा का अथाह भंडार होने के कारण लाखों मछुआरों की रोजी और समुद्री जल-जीवों की जैविक विविधता से भी जुड़ा है। इसलिए सेतु समुद्रम परियोजना को कुछ नॉटिकल मील घट जाने और ईधन की बचत की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए। पहले तो आर्थिक उदारीकरण के चलते बहुराष्ट्रीय कंपनियों को समुद्र का दोहन करने की छूट देकर मछुआरों की आर्थिक स्वतंत्रता छीनी गई और अब पर्यावरणीय हलचल पैदा करके मछुआरों के जीवन का आधार ही उनसे छीना जा रहा है। आस्था और व्यापार के वनिस्पत रोटी और पर्यावरण की चिंता बड़ी और अहम होती है।


हालांकि दुनिया के किसी भी देश में ऐसा उदाहरण नहीं है कि उसने अपनी पुरातन व पुरातत्वीय महत्व के विशाल और अनूठे स्मारक को तोड़कर कोई रास्ता बनाया हो? इसलिए यह हैरानी में डालने वाली बात है कि आरके पचौरी की रिपोर्ट खारिज करते हुए सरकार धार्मिक आस्था, पुरातत्वीय स्मारक, आजीविका और पर्यावरण के महत्व को एक साथ दरकिनार कर रही है। भारतीय सागर के विशाल तटवर्ती क्षेत्र के मुहाने पर रहकर मछली आदि बेचकर गुजर-बसर करने वाले मछुआरों की तादाद करीब 6.5 करोड़ है और करीब 2.5 करोड़ मछुआरे बड़ी नदियों से मछली पकड़ने के व्यवसाय से जुड़े हैं। इनके परिवार के सदस्यों की जीविका को इन्हीं की आजीविका से जोड़ दिया जाए तो इनकी आबादी बैठती है करीब 16 करोड़। इतनी बड़ी आबादी भारत के किसी राज्य में नहीं है। महज एक परियोजना के लिए इतनी बड़ी आबादी के रोजगार, रोटी और पर्यावरण को संकट में डालकर पारिस्थितिकी तंत्र को बिगाड़ने का औचित्य समझ से परे है। इससे पारिस्थितिकी तंत्र पर विपरीत असर पड़ेगा और प्राकृतिक संपदा नष्ट होने की बुनियाद पड़ जाएगी। भारतीय समुद्र की तटवर्ती पट्टी 5 हजार 660 किमी लंबी है। गुजरात, महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और केंद्र शासित राज्य गोवा, पांडिचेरी, लक्षद्वीप तथा अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के तहत ये विशाल तटवर्ती क्षेत्र फैले हैं। रामसेतु की विवादित धरोहर रामेश्वरम को श्रीलंका के जाफना द्वीप से जोड़ती है। यह मन्नार की खाड़ी में स्थित है। यहीं जो रेत, पत्थर और चूने की दीवार-सी 30 किलोमीटर लंबी सरंचना है, उसे ही रामसेतु का अवशेष माना जा रहा है। नासा ने इस पुल के उपग्रह से चित्र लेकर अध्ययन करने के बाद दावा किया था कि मानव निर्मित यह पुल दुनिया की सबसे पुरानी सेतु संरचना है। इस नाते भी राम ने यदि इस सेतु का निर्माण नहीं भी किया है तो भी इस धरोहर को सुरक्षित रखने की जरूरत है। आस्था पर चोट वाल्मीकि रामायण, स्कंद पुराण, ब्रह्म पुराण, विष्णु पुराण और अग्नि पुराण में इस सेतु के निर्माण और इसके ऊपर से लंका जाने के विवरण हैं। इन ग्रंथों के अनुसार राम और उनके खोजी दल ने रामेश्वरम से मन्नार तक जाने के लिए वह मार्ग खोजा, जो अपेक्षाकृत सुगम होने के साथ रामेश्वरम के निकट था। जहां से राम व उनकी बानर सेना ने उपलब्ध सभी 65 रामायणों के अनुसार लंका के लिए कूच किया। नल और नील ने जिन पत्थरों का उपयोग सेतु निर्माण में किया था, शायद ये उन्हीं पत्थरों के अवशेष हों, जो आज भी धार्मिक स्थलों पर देखने को मिल जाते हैं। इन सबके आधार पर इसके संरक्षण के लिए जनहित याचिकाएं शीर्ष न्यायालय में दायर की गई, जिससे इस सेतु को हानि न हो। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे जयललिता ने इस परियोजना को रोकने का प्रस्ताव लाकर इस सेतु को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने की मांग तक केंद्र सरकार से की है। यदि रामसेतु के प्रसंग को छोड़ भी दिया जाए तो जैव संसाधनों की दृष्टि से विश्व बाजार में इस क्षेत्र को सबसे ज्यादा समृद्ध क्षेत्र माना जाता है। इसकी जैविक और पारिस्थिकी विलक्षणता के चलते ही इसे जैव मंडल आरक्षित क्षेत्र संयुक्त राष्ट्र ने घोषित किया हुआ है। इस क्षेत्र का रामसेतु के बहाने पुरातत्वीय दृष्टि से ही नहीं, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक महत्व भी है। मोती के लिए प्रसिद्ध रहा यह क्षेत्र शंख के उत्पादन के लिए भी जाना जाता है। यहां लगभग 3,700 प्रकार के जीव व वनस्पतियों की जीवंत हलचल है। बड़ी मात्रा में प्रबाल (शैवाल) भित्ति भी हैं। इसी विविधता के कारण भारत को जैविक दृष्टि से दुनिया में संपन्नतम समुद्री क्षेत्र माना जाता है। यदि मालवाहक जहाजों के लिए परियोजना अमल में लाई जाती है तो यहां ध्वनि प्रदूषण जल में हलचल पैदा करेगा, जिससे हमारी समुद्र संपदा भी प्रभावित होगी। सेतु समुद्रम परियोजना के प्रभाव में आने वाले पांच जिलों की करीब दो करोड़ की आबादी के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो जाएगा, क्योंकि मन्नार की खाड़ी एवं पाक जल डमरू मध्य के किनारों पर आबाद मछुआरों के परिवार मुख्य रूप से मछलियों के कारोबार पर ही जिंदा हैं। कुछ मछुआरे समुद्री शैवाल, शंख और मूंगे के व्यापार से भी जीवनयापन करते हैं। इसलिए जरूरी हो गया है कि मछुआरों और तटवर्ती किसानों को पुश्तैनी व्यवसायों से जोड़े रखने के लिए समुद्री जीव-जंतुओं के भंडार को बचाए रखा जाए। लेकिन केंद्र सरकार का तर्क है कि इस परियोजना पर अब तक 832 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। इसलिए इसे आगे बढ़ाया जाना जरूरी है। लेकिन ऐसी तमाम परियोजनाएं हैं, जो पर्यावरण हितों के मद्देनजर रोकी गई हैं। उत्तराखंड में तो ऐसी परियोजनाओं की पूरी एक श्रृंखला है। इसलिए धर्म के बहाने ही सही, इस परियोजना को आजीविका और पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रतिबंधित किया जाना जरूरी है।

इस आलेख के लेखक प्रमोद भार्गव हैं

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