Menu
blogid : 5736 postid : 6858

औरत होने की कसौटी

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

समाज बदला, लोग बदले, विचार बदले। किसी काम को अंजाम तक पहुंचाने का ढंग भी बदला। सब पर नया रंग चढ़ा। नहीं बदली तो वह थी जड़ता। वह अपने मूल रूप में, बिना छेड़छाड़ के जेहन में बनी रही। बस उसकी अभिव्यक्तियां बदल गईं। कहा जा रहा है कि पुरुषों का रवैया महिलाओं के प्रति बदल गया है। स्ति्रयों को पुरुषों ने उनकी स्वतंत्रता के साथ स्वीकार करना शुरू कर दिया है। अब घरों में महिलाओं को सताया नहीं जाता, उन्हें पीटा नहीं जाता, उन्हें प्रताडि़त नहीं किया जाता। इस बात को सच साबित करने के लिए दो तर्क दिए जाते हैं। एक तो यह कि पुरुष शिक्षित और स्ति्रयों के प्रति संवेदनशील हुआ है और दूसरा, अब महिलाएं खुद इतनी जागरूक हो गई हैं कि वे पुरुषों द्वारा किए जाने वाले अन्याय और अत्याचार का प्रतिकार करने लगी हैं। सवाल उठता है कि इन तर्र्को का आधार क्या है और ये इनमें कितनी सच्चाई है। गहराई से देखें तो पता चलता है कि स्ति्रयों का दमन करने की पुरुष-प्रवृत्ति जस की तस है।


सभ्य होने का दिखावा करने के परिणामस्वरूप स्त्री के खिलाफ हिंसात्मक प्रवृत्ति में उल्लेखनीय परिवर्तन दिखाई देता है। पहले पुरुष अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए या अपना दबाव बनाए रखने के लिए या फिर अपना पौरुष दिखाने के लिए स्ति्रयों को पीटता था, लेकिन कानून के दखल देने और महिलाओं के जागरूक होने के बाद कुछ पुरुषों ने घर की स्ति्रयों को मारने-पीटने की अपनी प्रवृत्ति का दमन कर दिया और प्रताडि़त करने के नए तौर-तरीके अपना लिए। मसलन, मानसिक प्राड़ना। मुसलसल सदियों से चली आ रही प्रवृत्ति में आमूलचूल परिवर्तन आसान भी नहीं है। ऐसे परिवर्तन के लिए समझ को बदलना होगा और प्रयास में ईमानदारी लानी होगी। ऐसा न होने के कारण ही पुरुषों ने महिलाओं को मानसिक रूप से प्रताडि़त करना शुरू कर दिया है। खुद को सभ्य और शिष्ट कहलवाने की चाहत रखने वाले पति घर में पत्नियों पर हाथ तो नहीं उठाते, पर उन्हें उनका सम्मान और उनके हिस्से की आजादी भी नहीं देते। पहले पत्नियां अपने ही घर की नागरिक नहीं थीं, अब वे दोयम दर्जे की नागरिक हैं। मानसिक वेदना के निशान शरीर पर तो नहीं दिखाई देते, पर वे आत्मा को क्षत-विक्षत जरूर कर देते हैं। व्यवहार का दोगलापन ऐसा नहीं है कि इस तरह के पुरुषों का मूल स्वभाव ही ऐसा होता है। अपने घर में तो वे किसी क्रूर शासक सरीखा व्यवहार करते हैं, पर घर के बाहर बेहद खुशमिजाज और मिलनसार स्वभाव का चोला ओढ़ लेते हैं। इससे लोगों में यह भ्रम पैदा हो जाता है कि वे निश्चय ही अच्छे पति होंगे और उनका दांपत्य जीवन सुखी होगा, लेकिन यह सिक्के का सिर्फ एक पहलू होता है। दूसरे पहलू के दंश स्त्री ही जानती-अनुभव करती है।


स्ति्रयों को प्रताडि़त करने का यह बारीक तरीका अचूक है और सरल भी। क्योंकि जिस जख्म के निशान नहीं हैं उसके लिए आप किसी को दोषी कैसे ठहरा सकते हैं? ऐसे मामलों में न मायके में शिकायत की जा सकती है और न कानूनी रूप से कुछ साबित किया जा सकता है। कुछ चीजें अपने परिणामों से हैरान कर देने वाली होती हैं, जैसा कि इस तरह के मामलों में होता है। स्ति्रयां उस व्यथा-पीड़ा को भीतर ही भीतर पालने लगती हैं और इसके लिए खुद को ही दोषी मान बैठती हैं। एक बार इस तरह की भावना का बीजारोपण हो जाता है तो उसे पनपते हुए और फलने-फूलने में वक्त नहीं लगता। स्त्री तनावग्रस्त रहने लगती है और उसकी जिंदगी बदरंग होने लगती है। ससुराल में पति के साथ हर हाल में तालमेल बिठाने की शिक्षा लिए स्त्री अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तैयार रहती है। वह सब कुछ भुलाकर घर में प्रेममय माहौल बनाने की आकांक्षा रखती है, लेकिन दंभी पुरुष को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। आत्मकेंद्रत और अहंकारी पुरुष अपने इर्द-गिर्द ऐसी दीवार बना लेता है, जिसे भेदना किसी के लिए आसान नहीं होता। स्त्री उस दीवार को भेदने की कोशिश में बार-बार उससे टकराकर वापस आ जाती है, लेकिन उसका संघर्ष समाप्त होने का नाम नहीं लेता। पति के साथ और प्रेम के लिए वह अपने आत्मसम्मान तक को हर बार ठेस पहुंचने देती है, लेकिन निष्कर्ष शून्य ही रहता है। उल्टे उसकी स्थिति हीनतर होती जाती है। यह पुरुष प्रधान समाज स्त्री को सदियों से चले आ रहे ढकोसलों को परंपरा का नाम देकर उनका आजीवन पालन करने के लिए बाध्य करता है। इस बाध्यता को बिना किसी विरोध के स्वीकार कर लेना स्त्री का महत्वपूर्ण गुण माना जाता है। कहा जाता है कि यह समाज और परिवार को बनाए रखने के लिए जरूरी भी है। इन आडंबरों में बंधी स्त्री के लिए विच्छेद जैसा कठोर निर्णय ले पाना संभव नहीं होता। इसलिए दीवार से खुद का सिर टकराने को वह अपनी नियति मानकर स्वीकारने लगती है। अक्सर स्त्री की संवेदनशीलता भी उसे कठोर निर्णय लेने का साहस नहीं करने देती। पति से, घर से, परिवार से, बच्चों से भावनात्मक लगाव स्त्री को निर्णायक स्थिति में नहीं रहने देता। यह पढ़ने-सुनने में बुरा इसका संबंध स्त्री की शारीरिक संरचना से है, लेकिन इसी के चलते वह इससे परे अपनी सोच को दिशा नहीं दे पाती और चक्के के दूसरे पाट की तरह आजीवन पिसती रहती है। स्ति्रयों के निर्णय पर सिर्फ स्त्री का हक नहीं होता, उसमें दखल देने के लिए समाज, परिवार भी आगे-पीछे लगे रहते हैं। ऐसी स्थिति में स्त्री को अपनी चुप्पी ही ज्यादा हितकारी लगती है। अहंकारी पुरुष इसे अपनी जीत समझता है। उसकी सोच में स्त्री का दमन अनिवार्य रूप से मौजूद रह जाता है। यह दमन स्त्री में आक्रोश भी पैदा करता है, लेकिन चीजों के सही हो जाने की उम्मीद उसे बाहर नहीं आने देती। यहीं स्त्री जाति को यह समझने की जरूरत है कि इस खोखले आक्रोश से समाज नहीं बदलने वाला, विकृत पुरुष मानसिकता में परिवर्तन नहीं आने वाला। स्त्री की सहनशीलता पीढि़यों ने स्ति्रयों को सहनशीलता का गहना पहना रखा है, जो उनकी देह से, मन से अब तक नहीं उतर सका है। लिहाजा, स्ति्रयों ने सहनशीलता को सबसे खूबसूरत गहना माना और इस गहने को बिना फेरबदल किए धारण किया है और इसी को औरत होने की कसौटी मान लिया गया। सहनशीलता ने करोड़ों घरों में अलगाव की नींव नहीं पड़ने दी, लेकिन स्ति्रयों को मानसिक और शारीरिक रूप से कमजोर कर दिया। आक्रामता के खिलाफ चुप्पी उसे बढ़ावा देती है। टाल देने की प्रवृत्ति अथवा ढीला-सा प्रतिकार करना प्रकारांतर से उसे बढ़ावा देने के समान ही है। लिहाजा हिंसा, आक्रामकता या किसी भी गलत व्यवहार का विरोध पहली बार में ही होना चाहिए अन्यथा उस रवैये के घातक होने में वक्त नहीं लगता। एक पुरुष अपना वक्त क्रिकेट मैच देखते हुए काट सकता है या काम के नाम पर देर रात तक बाहर रह सकता है, स्त्री से संवादहीनता को अपनी आदत बनाकर टाल सकता है, लेकिन क्या इन्हीं सबका हक वह स्त्री को भी देता है? वस्तुत: यह आत्मकेंद्रित निरंकुश स्वभाव स्त्री को चोट पहुंचाने का एक तरीका होता है। इस आचरण को बढ़ावा तभी मिलता है जब इसे नजरअंदाज किया जाता है या इस पर सवाल नहीं उठाया जाता। स्त्री के विरोध न करने की स्थिति में पुरुष यह मान बैठता है कि यही वह पत्थर है, जिसे आसानी से जब चाहा ठोकर मारी जा सकती है। शिकायतों की गठरियां खोलते हुए हल नहीं निकाला जा सकता, इसलिए स्त्री को भावनात्मक रूप से ज्यादा मजबूत होने की जरूरत है। भावनात्मक रूप से इसलिए क्योंकि वही उसकी कमजोरी है, जिसे उसको अपनी मजबूती में बदलना है। इसकी शिक्षा जन्म से ही शुरू हो जानी चाहिए। बेटी को विदा करते वक्त मां-बाप को ध्यान रखना होगा कि उसे भावनात्मक संबल की और ज्यादा जरूरत है। स्त्री को अपने अधिकारों के लिए जागरूक और सचेत रहना होगा। उसे यह समझना होगा कि उसका जीवन महज तनावों और दबावों के साथ तालमेल बिठाने के लिए नहीं है और न ही घर-परिवार और समाज उसे इसके लिए मजबूर कर सकते हैं। वह मनुष्य है और उसे मनुष्य की तरह जीने का पूरा अधिकार है।


इस आलेख की लेखिका सीत मिश्रा हैं


Tags: महिलाएं, घर-परिवार और समाज, स्त्री

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh