Menu
blogid : 5736 postid : 6860

चिदंबरम की दावेदारी

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

अधिकांश भारतीयों या यह कहें कि हिंदुओं की परंपरा की तरह ही बजट की भी अपनी कुछ परंपराएं हैं। बजट पेश करने वाले अनुभवी शख्स वित्तमंत्री पी. चिदंबरम के लिए बजटीय सुर-ताल का पहले से तय एक हिस्सा शायद संत तिरुवल्लुवर का कोई छंद अनिवार्य रूप से पढ़ा जाना होता है। आर्थिक सर्वेक्षण लिखने वालों के लिए यह पिछले साल के उस भरोसे की पुनरावृत्ति में निहित हो सकता है कि हर रात के बाद सुबह आती है। और उनके लिए जो कारपोरेट नेताओं के तौर पर पहचाने जाने लगे हैं हर बजट परिणाम देने वाला या फिर लीक से हटकर होता है। बहरहाल, जिस तरह मंत्र चेहरा देखकर नहीं पढ़े जाते उसी तरह स्तुतिगान के लिए भी चेहरा देखने की जरूरत नहीं होती।


चिदंबरम की छाप वाले बजट पर यह बात खास तौर पर लागू होती है। उनकी कम बर्दाश्त करने वाली छवि और सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति के रूप में उनके आत्म-प्रस्तुतीकरण ने यह सुनिश्चित कर दिया कि बजट पर खरी-खरी बहस बंद दरवाजों के पीछे हो। विशेष सुरक्षा प्राप्त राजनीतिक वर्ग के अलावा अपने दिमाग में चल रही बातें उगलने को बेताब कुछ अर्थशास्ति्रयों की चिदंबरम की छाप वाले बजट के पूर्वानुमान की प्रतिक्रिया में उतनी ही मधुरता छलकती है जितनी इंग्लैंड का संरक्षण पाने पर बसुतोलैंड के राजा द्वारा महारानी विक्टोरिया को जताए गए आभार में छलक रही थी। राजा ने यह कहते हुए आभार जताया था कि मेरा देश आपका कंबल है और मेरे लोग उस पर खटमल के समान हैं। जाहिर तौर पर मैं उन कारपोरेट विशिष्ट लोगों की बात नहीं कर रहा हूं जो इस दावे को लेकर भ्रम में थे कि वर्तमान राजस्व घाटा जीडीपी का 5.2 प्रतिशत है। फिर भी वे बजट को अच्छा या बहुत अच्छा बता रहे थे। मैं इस विश्वास का भी विरोध नहीं कर रहा हूं कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर बात करने की जरूरत है, जैसा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तब करने की कोशिश की थी जब उन्होंने सुझाव दिया था कि जीडीपी में आठ फीसद की रफ्तार कपोल-कल्पना नहीं है।


मेरा तो साधारण-सा आग्रह यह है कि चिदंबरम को इस आधार पर एक प्रकार से सुपरमैन की छवि में पेश करना सही नहीं है कि उन्होंने राजकोषीय घाटे पर बड़ी कुशलता से नियंत्रण हासिल कर लिया है और इस लिहाज से वह वित्तमंत्री से बड़ी भूमिका के हकदार हो गए हैं। खुद को छाया में रखने वाले लुटियंस दिल्ली में रहने वाले लोगों की मानें तो बीते गुरुवार को नॉर्थ ब्लॉक में भांति-भांति की व्याकुलता फैली थी, जो एक अंग्रेजी दैनिक में प्रकाशित लेख को लेकर उपजी थी। लेख में वित्तमंत्री को कारपोरेट भारत का एक और प्यादा (एक तरह से नरेंद्र मोदी का कांग्रेस वर्जन, जो पूंजीवादी तबके, सांप्रदायिक शक्तियों और प्रभावशाली मध्यम वर्ग के गठजोड़ की ओर से निराशा के इस माहौल में एक धुंधली उम्मीद के तौर पर पेश किए जा रहे हैं) बताया गया था। यह लेख ऐसे शख्स ने लिखा था जिसके पास कांग्रेस की अथाह समझ है। लिहाजा उसने उस व्याकुलता को बढ़ाने का काम किया। मुझे इस लेख के बारे में एक ऐसे शख्स ने बताया जिसकी प्रधानमंत्री के बारे में भी समझ उतनी ही गहरी थी। इसलिए लगा कि वाकई कुछ उमड़-घुमड़ रहा है। कांग्रेस इस बजट को जनता के बीच खुशी-खुशी स्वीकार करेगी। पार्टी के नेता कहेंगे कि चिदंबरम ने खर्च में कटौती नहीं की, विशेष रूप से कल्याणकारी योजनाओं में। उन्होंने महिलाओं का खास ख्याल रखा, यह और बात है कि यह सांकेतिक था। एक करोड़ रुपये से ज्यादा की आय वाले देश के 42,800 सुपर अमीरों पर टैक्स बढ़ाया और पिछड़ेपन के नए मानक तय किए, जो नीतीश कुमार और भाजपा में खिंचाव बढ़ा सकते हैं। इन उपलब्धियों के साथ उन्होंने भारतीय एसयूवी यानी स्पो‌र्ट्स यूटिलिटी व्हीकल निर्माताओं पर चतुराई से निशाना साधा, गैर-कृषि कमोडिटी के कारोबार पर टैक्स बढ़ाया और हीरा उद्योग को भी निराश किया। पढ़ने-सुनने में ये तमाम प्रस्ताव सहज लग सकते हैं, लेकिन इनमें उनके खिलाफ एक दंडात्मक कार्रवाई का संकेत छिपा है जिनके संबंध गुजरात या मोदी से हैं। इस बजट में वित्तमंत्री इधर-उधर भी देखते दिखे। उन्होंने जो सीमित अवसर बुने वे कांग्रेस के उस धड़े को खुश करेंगे जिसे लगता है कि जिस तरह सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह का चयन किया था उसी तरह राहुल गांधी को भी अपना विकल्प तलाश करना पड़ सकता है। सिर्फ जानबूझकर मूढ़ बने रहने वाले लोग ही इस तथ्य की अनदेखी कर सकते हैं कि इस बजट के साथ एक तरह से पहली बार चिदंबरम की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के पक्ष में संभावित स्वरों की झलक भी मिली है। वर्तमान में 2014 के आम चुनाव के लिए ऐसे आग्रह के संकेत उस समूह की ओर से आ रहे हैं जिसके बारे में कहा जा सकता है कि उसका मुख्यालय रेस कोर्स रोड है। यह कर्नाटक और तमिलनाडु के उद्योगपतियों का एक समूह है, जिनका गुजरात के वैकल्पिक महानायक से या तो बहुत कम संपर्क है या फिर कोई लेना-देना ही नहीं है। इस आग्रह को उन राजनयिक मिशनों का भी समर्थन मिल सकता है, जो जानी-पहचानी सत्ता की जगह अनजाने लोगों के आ जाने के खयाल से ही विचलित हो उठते हैं। आदर्श रूप में देखा जाए तो ऐसे धड़ों के लिए राहुल गांधी को ही सत्ता के शीर्ष पद पर होना चाहिए, लेकिन जाने-पहचाने कारणों से यह साबित हो चुका है कि उन्होंने निराश ही किया है। लिहाजा अहमियत चिदंबरम और समान रूप से उभार पर आते विपक्ष के साथ जोड़ी जा रही है। हाशिये पर चल रहे एक कांग्रेसी ने मुझे पिछले हफ्ते ही बताया कि मनमोहन सिंह वित्तमंत्री बनने के लिए कांग्रेस से जुड़े थे, लेकिन चिदंबरम ने वित्तमंत्री बनने के लिए कांग्रेस छोड़ी थी। उनका इशारा 1996 में चिदंबरम के तमिल मनीला कांग्रेस में शामिल होने के घटनाक्रम की ओर था। भारत में इतिहास को कम ही याद रखा जाता है। चिदंबरम के लिए असली परीक्षा यह नहीं है कि उनका डीएनए कांग्रेस से मेल खाता है या नहीं, बल्कि यह है कि भारत 2014 में मतदान के दिन से पहले नई सुबह की किरणों की गर्माहट महसूस कर पाता है या नहीं? फिलहाल तो अर्थव्यवस्था रामभरोसे है।

इस आलेख के लेखक स्वप्न दासगुप्ता हैं

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh