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प्रिंट मीडिया के सच

जागरण मेहमान कोना
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हरिवंशराय बच्चन की क्या भूलूं क्या याद करूं ही रचनात्मक उत्कर्ष को प्राप्त कर सकी, क्योंकि इसमें बच्चन ने स्मृति और कल्पना का सहारा लेते हुए अपने जीवन के सच को साहस के साथ दर्ज किया है, लेकिन उनकी आत्मकथा के दूसरे भाग नीड़ का निर्माण फिर में वह बात नहीं, जो क्या भूलूं क्या याद करूं के जरिये उन्होंने सृजित की। आत्मकथा के तीसरे और चौथे भाग तो इस लायक भी नहीं कि उनसे बच्चन की कोई नई छवि निर्मित होती। फिर भी, बच्चन के साहित्यिक जीवन और युग को जानने-समझने के लिए चारों भाग पढ़ने जरूरी हैं। जैसे बच्चन की आत्मकथा का पहला भाग ही उत्कर्ष को प्राप्त कर सका, वैसे ही अज्ञेय का शेखर : एक जीवनी का पहला भाग ही उन ऊंचाइयों को छू सका, जहां आत्मकथा, जीवनी और उपन्यास का भेद मिट गया, लेकिन शेखर : एक जीवनी के स्वाधीनता आंदोलन पर केंद्रित दूसरे भाग में वह बात नहीं आ सकी।


तीसरे भाग की सृजन कामना करते हुए ही अज्ञेय का जीवन रीत-बीत गया। अज्ञेय कहते भी थे कि शेखर का तीसरा भाग लिख लिया है, लेकिन उसे छपाऊंगा नहीं। उन्होंने उसे न छपा कर शायद ठीक ही किया और वरिष्ठ पत्रकार लेखक परितोष चक्रवर्ती ने भी ठीक ही किया, जो बच्चन और अज्ञेय की तरह आत्मकथा, जीवनी और उपन्यास के झमेले में नहीं फंसे। अपने उपन्यास प्रिंट लाइन को बहुखंडीय बनाने के फेर में भी परितोष नहीं फंसे, वह उनका आत्मकथात्मक उपन्यास है तो है। शेखर : एक जीवनी को लेकर उपन्यास, जीवनी और आत्मकथा का विवाद अब तक नहीं सुलझा, क्योंकि अज्ञेय ने उसे कभी आत्मकथा माना ही नहीं। उसे आत्मकथा सिद्ध करने के लिए पर्याप्त अंतर्साक्ष्य मौजूद नहीं हैं, लेकिन परितोष चक्रवर्ती की कृति प्रिंट लाइन को आत्मकथात्मक उपन्यास सिद्ध करने की जरूरत ही नहीं। हो भी तो उसके तमाम अंतर्साक्ष्य कृति में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। क्या भूलूं, क्या याद करूं और शेखर : एक जीवनी जैसी कीर्ति प्रिंट लाइन को हासिल होगी या नहीं यह अभी कहा नहीं जा सकता, लेकिन साहित्य और पत्रकारिता के आग के दरिया में अपना सारा जीवन गुजारने वाले परितोष ने इस कृति को अपने विषय की विरल, संभवत: प्रथम कृति के रूप में पेश तो कर ही दिया है, जिसे विशाल हिंदी क्षेत्र में लगातार चर्चा पाने की उम्मीद है। परितोष ने प्रिंट लाइन के नायक अमर के जरिये अपने जीवन में आए उन लोगों को आदर और कृतज्ञता से याद किया है, जो अमर को अमर बनाने में कम या ज्यादा, किसी भी रूप में सहायक सिद्ध हुए।


फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास मैला आंचल को आंचलिक उपन्यास माना जाता है, क्योंकि यह बिहार के अंचल-विशेष की बोली-बानी में अपनी बात कहता है। इस अर्थ में परितोष का उपन्यास पिं्रट लाइन छत्तीसगढ़ अंचल के जीवन जगत को सारी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ प्रस्तुत करता है। हां, उसका विस्तार छत्तीसगढ़ के गांव से लेकर बिलासपुर-रायपुर होता हुआ मुंबई, कोलकाता, दिल्ली और धनबाद तक चला गया है, लेकिन कथा का मूल स्वर छत्तीसगढ़ी मानुष अमर का ही है, जो देश के उतने सारे महानगरों की खाक छानने के बावजूद अंतत: छत्तीसगढ़ की माटी में ही सुकून पाता है। पिं्रट लाइन के पत्रकार नायक अमर की राजनीतिक दृष्टि एकदम स्पष्ट है। बीसवीं सदी के सातवें-आठवें दशक के ज्यादातर भारतीय युवाओं के मानस में वामपंथ एक करंट की तरह बहता था। सो, अमर की सोच और दृष्टि वामपंथी है, लेकिन एक जागरूक पत्रकार की तरह वह वामपंथी राजनीति के अंतर्विरोधों को देखता-समझता और उन पर टिप्पणी करता है। उसका रुझान एक तरफ गांधी के विचारों और जीवन दर्शन में है तो दूसरी ओर वह लोहिया के समाजवाद को भारत के लिए जरूरी समझता है। अमर की अपनी निजी सोच है जरूर, लेकिन एक पत्रकार के रूप में वह देश में चल रही सभी सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों पर पैनी नजर रखते हुए उन पर चिंतन-मनन करता है। संक्षेप में कहें तो प्रिंट लाइन प्रेस और पत्रकारिता से जुड़ी अनेक कथाओं का ऐसा दस्तावेज है, जिसे पढ़कर लेखकों-पत्रकारों के भीतर उमड़न-घुमड़न होगी। कोई रचनात्मक कृति यही काम तो करती है, जो प्रिंट लाइन के जरिये संभव होता लगता है। उपन्यासकार की कलम का झुकाव किसी खास विचारधारा की तरफ नहीं है। वह निरंतर निष्पक्ष पत्रकारिता का मुरीद बना रहता है। आत्मकथात्मक होने के कारण पाठक को लगातार लगता रहता है कि जो कुछ कहा जा रहा है, वह प्रामाणिक है। किसी कृति की एक बड़ी सफलता यह भी होती है कि वह पाठक का दिल जीत ले। प्रिंट लाइन में यह गुण आद्यंत मौजूद है। यहां राजेंद्र यादव, ज्ञानरंजन और देवेंद्रराज अंकुर जैसे पात्र मूल नाम से उपस्थित हैं। उनके साथ यहां अगर इब्राहिम हैं तो दद्दा भी। राजा दुबे, मुन्ना भैया, कामरेड मुरारी, दुर्गा भाभी तथा छोटे मियां भी यहां अपनी अविस्मरणीय उपस्थिति दर्ज कराते हैं। ऐसा कम ही कृतियों में होता है। अमर का किशोरी नायिका से अलग होना एक ऐसी घटना है, जो जीवन भर उसे हांट करती रहती है। वह उसे भूल नहीं पाता। इसे पढ़ते हुए हजारीप्रसाद द्विवेदी के बाणभट्ट और भट्टनी की याद आ गई। वैसे ही अमर का अपनी पत्नी से प्रेम और लगाव प्रेमचंद के उपन्यास गोदान के होरी और धनिया के प्रेम की याद दिलाता है। उपन्यास की कथा नैला से शुरू होकर छत्तीसगढ़ बनने तक की कथा कहती है। उपन्यास की भाषा में गजब की पठनीयता है। पाठक ने एक बार पढ़ना शुरू किया तो फिर उसे पूरा पढ़े बिना रह नहीं सकता।

इस आलेख के लेखक बलराम हैं

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