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इन दिनों बांग्लादेश के शाहबाग चौक में उमड़ता जन सैलाब कई मायनों में अन्य देशों से अलग है। यहां लड़ाई सरकार के खिलाफ नहीं है, बल्कि कट्टरपंथ और गद्दारी के विरोध में है-राष्ट्रीय स्वाभिमान के पक्ष में है। माध्यम समान है, तौर-तरीके समान हैं, मगर लक्ष्य अलग हैं। ढाका विश्वविद्यालय के एक छात्र की अगुआई में हो रहा यह आंदोलन बांग्लादेश को विध्वंस की दिशा में ले जाने पर आमादा कट्टरपंथी और जिहादी ताकतों के खिलाफ है। जन-भावनाओं का यह बेहद सकारात्मक उभार है, जिसकी सफलता वहां सेक्युलरवाद और लोकतंत्र की मजबूती के रूप में सामने आएगी।
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इस आंदोलन की अहम मांग है-सन 1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान पाकिस्तानी फौज के संरक्षण में कत्लो-गारद मचाने वालों को फांसी के तख्ते पर भेजना, लेकिन परोक्ष रूप में यह पंथनिरपेक्षता, प्रगतिशीलता और लोकतंत्र के हक की लड़ाई भी है, क्योंकि सन 71 में अपनी ही जनता के विरुद्ध युद्ध-अपराध करने वाले रजाकार के नाम से कुख्यात तत्व आज भी बांग्लादेश में सक्रिय हैं और उनका साथ देने वाले स्थानीय कट्टरपंथी दल पाकिस्तान की शह पर कट्टरपंथ की जड़ें मजबूत करने में लगे हैं। वे बांग्लादेश को पाकिस्तान के रास्ते पर ले जाने को आमादा हैं। मौजूदा आंदोलन ऐसे तत्वों के विरुद्ध पंथनिरपेक्ष, देशभक्त और प्रगतिशील युवा शक्ति का प्रस्फुटन है। बांग्लादेशी जनता, विशेषकर युवा समुदाय का अभिनंदन कीजिए जिसने समूचे इस्लामी विश्व में चल रहे बहाव के विरुद्ध खड़ा होने का साहस दिखाया है। जहां मिF जैसे देशों में लोकतांत्रिक आंदोलन भी कट्टरपंथी और अतिवादी तत्वों द्वारा कब्जा लिया गया और अन्य मुस्लिम राष्ट्रों में भी आंदोलनकारियों ने पिछड़ेपन की शक्तियों का प्रतिरोध करने का साहस नहीं दिखाया, वहां बांग्लादेश की जनता एक अद्भुत मिसाल के रूप में सामने आई है। भारत और बाकी विश्व में इस बात को लेकर पारंपरिक रूप से चिंता रही है कि जमाते इस्लामी जैसी ताकतें इस बेहद गरीब देश की पिछड़ी, अशिक्षित जनता को जिहादी कट्टरपंथ की ओर मोड़ने में लगी हैं। उन्हें अपनी मुहिम में कामयाबी भी मिली है।
सऊदी अरब हो या पाकिस्तान, बांग्लादेश हो या मालदीव, एशिया में कहीं भी जिहादी तत्वों का मजबूत होना भारत को सीधे प्रभावित करता है। पाकिस्तान तो खैर भारत की दुखती रग बना ही हुआ है, हमें लक्ष्य बनाकर की गई कई आतंकवादी घटनाओं में बांग्लादेशी जिहादी तत्वों का भी हाथ रहा है। बांग्लादेश में उग्रवादी तत्वों का कमजोर होना खुद बांग्लादेश, वहां के लोकतंत्र, मुस्लिम विश्व और समग्र विश्व के हित में तो है ही, भारत के लिए उसकी विशेष अहमियत है। शेख हसीना के सत्ता संभालने के बाद भारत-बांग्लादेश संबंधों में क्रांतिकारी बदलाव आया है। भारत को बांग्लादेशी क्षेत्र से होकर परिवहन की इजाजत देने और उल्फा नेता अनूप चेतिया को सौंपे जाने जैसे मुद्दों पर अब भी गंभीर मतभेद जरूर हैं, लेकिन दोनों देशों का राजनीतिक नेतृत्व इनसे आगे बढ़कर साथ चलने के लिए संकल्पबद्ध दिखाई देता है। शेख हसीना ने पिछले चुनाव के पहले रजाकारों को सजा दिलाने के लिए तेजी दिखाने का वायदा किया था। सत्ता में आने के बाद उन्होंने युद्ध अपराध पंचाट का गठन कर अपना वायदा पूरा किया, लेकिन राजनीति फिर नतीजों के रास्ते में आड़े न आ जाए, इस संदेह में जनता शाहबाग चौक पर आ खड़ी हुई है। तकनीकी शक्ति और युवा शक्ति से भरे आंदोलनकारी मांग कर रहे हैं कि रजाकारों के सभी मामलों का तुरंत निपटारा किया जाए। शेख हसीना सरकार भी 1971 के अधूरे कामों को पूरा करने के मूड में दिखाई देती हैं। आखिर लोगों के दर्द को उनसे बेहतर कौन समझ सकता है जो खुद अपने पिता शेख मुजीब को ऐसे ही तत्वों के हाथों खो चुकी हैं। उन्होंने मुक्ति संग्राम को इतिहास की उपेक्षित किताबों से बाहर निकालकर वह अहमियत देने की कोशिश की है जो उसे दी जानी चाहिए। भारत को उसके समर्थन के लिए धन्यवाद देने के साथ-साथ मुक्ति संग्राम के योद्धाओं को सम्मानित किया गया है। जाहिर है, खालिदा जिया के नेतृत्व में कट्टरपंथी तत्वों के मजबूत होने और राष्ट्रवाद की भावना को मुस्लिम पहचान के साथ जोड़ने के लंबे अभियान के बाद बांग्लादेश फिर से अपनी सेक्युलर जड़ों की तरफ लौटने की कोशिश में है। बांग्लादेश ने गुरुदेव टैगोर की रचना को अपने राष्ट्र गान के रूप में अपनाया था। उसके संस्थापकों के लिए मुस्लिम पहचान की बजाए पंथनिरपेक्षता और बंगाली राष्ट्रवाद की अहमियत कहीं ज्यादा थी। बांग्लादेश और दूसरे देशों की परिस्थितियों में यही बड़ा अंतर है। यहां जनता खुद सरकार को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर रही है, क्योंकि ऐसे कातिलों का सुरक्षित बचे रहना कानून की नाकामी तो है ही, राष्ट्र के स्वाभिमान पर भी एक कलंक है। इतिहास की एक बड़ी गलती को दुरुस्त करने की प्रक्रिया जारी है, लेकिन इस मुहिम के सामने चुनौतियां कम गंभीर नहीं हैं। युद्ध अपराधियों में से एक जमाते इस्लामी के नेता दिलावर हुसैन सैयदी को फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद बांग्लादेश में हुई व्यापक हिंसा, सरकार की मुश्किलों की ओर इशारा करती है। खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी भी खुलकर जमाते इस्लामी के समर्थन में आ गई है। जिस तरह वहां के दल अपने राजनीतिक संघर्ष में हिंसा का इस्तेमाल करने से परहेज नहीं करते उसे देखते हुए अगले कुछ महीनों का समय नाजुक रहने वाला है। सरकार ने माना है कि मौजूदा हिंसा को बढ़ावा देने में पाकिस्तान आधारित तत्वों का भी हाथ रहा है। बांग्लादेश परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। यही तय करेगा कि उसकी नई राजनीतिक शक्ल-सूरत कैसी होगी।
इस आलेख के लेखक बालेंदु दाधीच हैं
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