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प्राकृतिक मूल्यों से खिलवाड़

जागरण मेहमान कोना
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केंद्र की कांग्रेसनीत सरकार हिंदू आस्था से खेलने का कोई अवसर छोड़ती नहीं है। कभी वह सरकारी पुस्तकों में गोमांस खाने की सलाह देती है तो कभी सेतु समुद्रम परियोजना की राह में आ रहे रामसेतु पर प्रहार करने का मंसूबा बांधती है। उसके खतरनाक रवैये के कारण एक बार फिर रामसेतु खतरे में है। इसलिए कि सरकार ने वैकल्पिक मार्ग के लिए गठित पर्यावरणविद आरके पचौरी समिति की सिफारिशों को नकार दिया है। अब रामसेतु को जीवनदान तभी मिल सकता है, जब सर्वोच्च अदालत सरकार की हठधर्मिता पर रोक लगाएगी। सरकार द्वारा पचौरी समिति की सिफारिशें अस्वीकार करने के बाद इस मसले पर सियासत भी तेज हो गई है। मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने सरकार पर हमला बोला है कि वह भारतीय सभ्यता के खिलाफ है। अगर रामसेतु को तोड़ा गया तो वह संसद से लेकर सड़क तक मुखालफत करेगी। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता भी सेतु समुद्रम परियोजना के खिलाफ हैं, जबकि संप्रग सरकार यह मानने को बिल्कुल तैयार नहीं है कि रामसेतु हिंदू जनमानस की आस्था का प्रतीक है। उसका कहना है कि आर्थिक विकास के लिए यह परियोजना आवश्यक है। उसकी दलील है कि रामसेतु सेतु समुद्रम परियोजना की राह में बाधा है और उसे तोड़े बिना भारत और श्रीलंका के बीच जहाजों के आवागमन के लिए सुविधाजनक रास्ता तैयार नहीं हो सकेगा।


सरकार का तर्क है कि सेतु समुद्रम नौवहन परियोजना से भारत और श्रीलंका के बीच पाक जलडमरूमध्य और मन्नार की खाड़ी को जोड़ा जा सकेगा और जहाजों को पूर्वी तट तक जाने के लिए श्रीलंका का चक्कर नहीं लगाना होगा। सरकार इस निष्कर्ष पर भी जा पहुंची है कि चूकि रामसेतु रामेश्वरम के निकट पंबन द्वीप और श्रीलंका के तलाइमन्नार के बीच स्थित है, उसके आसपास जल क्षेत्र छिछला है और उसकी वजह से बंगाल की खाड़ी से हिंद महासागर आने वाले जलयानों को श्रीलंका के बाहर 30 घंटे या 650 किलोमीटर अधिक चक्कर लगाना पड़ता है। उसकी दलील है कि अगर रामसेतु को तोड़ दिया जाए तो समय और ईधन दोनों की बचत होगी। इसके अलावा सरकार को इस परियोजना से और भी लाभ दिख रहा है। मसलन, प्रतिरक्षा और सुरक्षा मजबूत होगी। विदेशी मुद्रा की बचत होगी। तमिलनाडु के तटीय जिलों में अतिरिक्त रोजगार का सृजन होगा। लेकिन समझ से परे है कि छोटे लाभों को तवज्जो दे रही सरकार यह क्यों भूल जाती है कि 17 लाख साल पुराने रामसेतु को तोड़े जाने से भयंकर पर्यावरणीय नुकसान भी होगा और उसकी क्षतिपूर्ति संभव नहीं होगी। फिर भी सरकार इस तथ्य से विचलित नहीं है तो उसका रवैया खेदजनक ही कहा जाएगा। पहले से ही पयावरणविद कह रहे थे कि सेतु समुद्रम परियोजना पर्यावरण के लिए विनाशकारी साबित होगी। लिहाजा, उच्चतम न्यायालय ने 23 जुलाई, 2008 को सेतु समुद्रम शिप चैनल प्रोजेक्ट के वैकल्पिक मार्ग की संभावना तलाशने के लिए पर्यावरणविद् डॉ. आरके पचौरी की अध्यक्षता में समिति के गठन का आदेश दिया। पचौरी समिति की सिफारिशों में वैकल्पिक मार्ग को साफ तौर पर नकार दिया गया है। कमेटी ने सेतु समुद्रम परियोजना को पर्यावरणीय, आर्थिक और भावनात्मक आधार पर विनाशकारी करार दिया है। लेकिन सरकार इसे मानने को तैयार नहीं है। मतलब साफ है कि वह पचौरी समिति की सिफारिशों को कूड़ेदान में डालने का मन बना चुकी है। जहाज मंत्रालय ने उच्चतम न्यायालय में दायर हलफनामे में कहा है कि शीर्ष स्तर के शोध के आधार पर परियोजना को मंजूरी दी गई है और उसे पर्यावरण विभाग ने भी हरी झंडी दिखा दी है। साथ ही यह भी तर्क परोसा है कि इस परियोजना पर 829 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं और इस पर रोक नहीं लगाई जा सकती। लेकिन सवाल यह है कि जब अदालत के आदेश पर सरकार ने पचौरी समिति का गठन किया तो फिर उसकी सिफारिशों को क्यों नहीं स्वीकारा जा रहा है? जहां तक परियोजना पर करोड़ों रुपये खर्च किए जाने की बात है तो उसमें भी सरकार की ही गलती है। जब यह परियोजना शुरू से विवादित रही है तो इस पर धन खर्च किए जाने की इतनी जल्दी क्यों थी? क्या सरकार की हठधर्मिता से सिद्ध नहीं होता है कि वह पर्यावरणीय हितों को लेकर अगंभीर और असंवेदनशील है? आखिर किसी परियोजना पर खर्च होने वाला धन मानवीय आस्थाओं, संवेदनाओं और प्राकृतिक मूल्यों से बढ़कर कैसे हो सकता है? उचित होगा कि सरकार सेतु समुद्रम परियोजना पर पुन: विचार करे।

इस आलेख लेखक अभिजीत मोहन हैं

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