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राहुल के दोहरे नकारों का अर्थ

जागरण मेहमान कोना
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राहुल गांधी प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते। वे शादी भी नहीं करना चाहते। अगर उन्होंने ऐसा हंसी मजाक में यों ही कह दिया हो तो फिर इसका कोई अर्थ नहीं, लेकिन अगर वे अपने सांसदों से ऐसा कह रहे हैं तो यह हंसी मजाक की श्रेणी में नहीं आ सकता और केवल सांसदों का मन बहलाने के लिए भी नहीं हो सकता। यह बिना सोच-समझे दी गई भावुक प्रतिक्रियाएं भी नहीं हो सकतीं। आखिर कांग्रेस के नेताओं की ओर से प्रधानमंत्री बनने और शादी करने का अनुरोध न जाने कितनी बार आ चुका है। वस्तुत: इन दोनों बातों पर उन्हें सोचने-विचारने का काफी समय भी मिल चुका है। इसलिए इन दोनों को बिल्कुल सोच-समझकर दिए गए बयान की श्रेणी में मानना चाहिए। तो इन दोनों बातों के निहितार्थ क्या हैं? क्यों उन्होंने ये बातें कही हैं? उनके और कांग्रेस पार्टी के लिए इसके क्या संदेश हैं? सामान्यत: किसी की शादी और राजनीति में पद के बीच कोई रिश्ता नहीं दिखता, लेकिन नेहरू परिवार में इसका संबंध जुड़ गया है।

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अगर सोनिया गांधी इटली मूल की नहीं होतीं तो वह आज प्रधानमंत्री हो सकती थीं। आखिर कांग्रेस ने उन्हें संसदीय दल का नेता चुन ही लिया था, लेकिन विदेश मूल का मुद्दा जोर पकड़ने के माहौल में उन्होंने अपने को पद की दौड़ से बाहर कर डॉ. मनमोहन सिंह को नामांकित किया। सामान्य तौर पर राहुल के जीवन में उसकी पुनरावृत्ति की संभावना नहीं दिखनी चाहिए। वैसे एक कोलंबियाई लड़की से राहुल के प्रेम संबंध की कथा हमारे सामने आ चुकी हैं। कहीं राहुल की शादी के पीछे हिचक का कारण वही तो नहीं है। हालांकि विदेशी पत्नी के होने से राहुल के राजनीतिक भविष्य पर कोई असर नहीं पड़ सकता, लेकिन राहुल इसकी जगह दूसरे कारण बता रहे हैं। वे कह रहे हैं कि उनका शादी करने या परिवार बढ़ाने का अभी इरादा नहीं है, क्योंकि अगर उनके बच्चे हो गए तो उनका लक्ष्य उन्हें आगे बढ़ाना हो जाएगा। वे यथास्थितिवाद कायम करने की कोशिश में लग जाएंगे। उनका कहना है कि वह राजनीति का चरित्र बदलना चाहते हैं, पार्टियों में जो आलाकमान की रचना है, उसका अंत करना चाहते हैं। सभी प्रमुख पार्टियों के विधायकों, सांसदों को जितना अधिकार मिलना चाहिए, वे उसे दिलाना चाहते हैं। राजनीति में आम नौजवानों की भूमिका बढ़ाना चाहते हैं, लेकिन परिवार इस परिवर्तन के लक्ष्य के रास्ते की बाधा बन जाएगा। राहुल जो कुछ कह रहे हैं, उसे उनके व्यक्त शब्दों के अनुसार ही लिया जाए तो यह एक मिशन या आदर्श के लिए अपने जीवन का सुख न्यौछावर करने का संकल्प है। भारत और दुनिया में ऐसे महान लोगों की कतार काफी लंबी है, जिन्होंने समाज सेवा या सत्ता और समाज परिवर्तन के लिए निजी जीवन होम कर दिया। राहुल भारतीय राजनीति के शुद्ध लोकतांत्रिकरण के लिए काम करने की बात कह रहे हैं। राजनीति के क्षरण के इस भयावह दौर में राहुल जैसा व्यक्ति, जिसके सामने पूरी कांग्रेस पार्टी नतमस्तक है और बहुमत आने पर उसके प्रधानमंत्री बनने में कोई बाधा नहीं हो सकती, यदि ऐसा निर्णय करता है तो वाकई एक महान लक्ष्य के लिए जीवन लगाने का उदाहरण होगा। हमारी ज्यादातर समस्याओं की जड़ में लक्ष्यविहीन, दिशाहीन, पतित और कुछ मुट्ठी भर लोगों के हाथों सिमट चुकी दलीय प्रणाली है। इसका अंत आवश्यक है। जो इसके अंत करने के लक्ष्य के प्रति समर्पित होगा, उसे वर्तमान राजनीति के ढांचे में प्रधानमंत्री का पद स्वीकार होना ही नहीं चाहिए। इसमें प्रधानमंत्री पद पाने या उम्मीदवार बनने का अर्थ राजनीति के विकृत यथास्थितिवाद को स्वीकार करना है। तो इन दोनों के बीच कोई समानता हो ही नहीं सकती। इसलिए इस लक्ष्य के आईने में अगर राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद की दौड़ में न होने की घोषणा कर रहे हैं तो उसका स्वागत होना चाहिए। किंतु क्या हम जैसा समझ रहे हैं, राहुल की सोच भी वैसी ही है? अभी इसका स्पष्ट उत्तर देना जल्दबाजी हो जाएगा। राहुल गांधी पिछले कुछ समय से कांग्रेस के चरित्र में आमूल बदलाव की बात मंचों से करते रहे हैं। वे स्वयं को एक ऐसे युवा क्रांतिकारी नेता के तौर पर पेश करते हैं, जिसे अपने वंश के अनुसार मिले रुतबे से वितृष्णा है, जो कांग्रेस को एक वंश के नेतृत्व पर आधारित पार्टी के दुष्चक्र से बाहर निकालना चाहते हैं। पार्टी मंच से दिए गए उनके भाषणों को याद कर लीजिए, सबमें किसी न किसी रूप में पार्टी में बाहर से या ऊपर से आकर पद और टिकट पा जाने की आलोचना मिलेगी। सबमें आम युवाओं को प्रमुखता देने की चाहत मिलेगी। यह बात अलग है कि इसकी कोई स्पष्ट रूपरेखा उन्होंने रखी है। राहुल अपने पिता की उस ऐतिहासिक स्वीकृति को अवश्य याद रखते होंगे, जिसमें उन्होंने कांग्रेस को सत्ता के दलालों की पार्टी कहा था। उन्होंने भी पार्टी की सफाई की बात कही थी और उनकी आवाज से निष्कपटता का संदेश भी निकलता था, लेकिन वे ऐसा न कर सके। प्रधानमंत्री और कांग्रेस प्रमुख के रूप में उनकी भूमिका भी अंतत: एक सदाशयी यथास्थितिवादी की ही हो गई। राजीव गांधी को जो कांग्रेस विरासत में मिली थी, वह राहुल को मिली कांग्रेस से ज्यादा मजबूत थी। क्या राहुल मानते हैं कि उनके पिता के रास्ते में पत्नी और बच्चे बाधा बने? जब राजीव गांधी ने ये बातें कीं तो राहुल 15 वर्ष के हो गए थे। इसलिए उनका एक नजरिया पिता की भूमिका के संदर्भ में हो सकता है। किंतु राहुल यह न भूलें कि भारत में ऐसे महान ऋषि-मुनियों, नेताओं की लंबी श्रृंखला है, जो गृहस्थ जीवन में रहते हुए देश और समाज की बेहतर सेवा कर सके। आधुनिक समय में महात्मा गांधी ही इसके आदर्श उदाहरण हैं। राहुल ने ईमानदारी से यह स्वीकार किया है कि वे जमीन से उठकर नेता नहीं बने हैं, बल्कि पैराशूट से उतारे गए हैं। आज अनेक दलों में ऐसे पैराशूट यानी अपने वंश के कारण प्रमुख भूमिका में आए नेताओं की संख्या बढ़ गई है। एक समय जो वंशवाद भारतीय राजनीति में बड़ा मुद्दा था, अब राजनीति की स्वीकार्य वस्तुस्थिति है। राहुल अगर इसमें बदलाव चाहते हैं तो उन्हें ही यह मुद्दा पूरी आक्रामकता से उठाना होगा। वे सरकार की बजाय संगठन में काम करने की बात लगातार कहते रहे हैं, लेकिन क्या कांग्रेस में दूसरे स्थान का पद स्वीकारने के साथ इस मुद्दे पर विश्वासपूर्वक संघर्ष संभव है? हां, अपने दल में वे नेतृत्व की भूमिका में रहते हुए इसका चरित्र बदलने की कोशिश कर सकते हैं। पर इससे पूरी राजनीति तो छोडि़ए, कांग्रेस का चरित्र ही बदलना संभव नहीं हो सकता। यह हो सकता है कि यदि कांग्रेस के नेतृत्व में पुन: सरकार बनाने की संभावना पैदा हुई तो वे अपनी जगह किसी दूसरे नेता को सरकार की बागडोर थमा दे। लेकिन इससे यदि परिवर्तन होना होता तो सोनिया गांधी के ऐसा करने के बाद कांग्रेस के चरित्र में कुछ बदलाव हो जाता। स्वयं राहुल गांधी भी 2004 से चुनावी राजनीति में आ गए हैं पर कोई एक बड़े बदलाव का कदम याद करना मुश्किल है। वैसे अभी तक संसद या विधानसभाओं में उनकी पसंद के युवाओं को देखते हुए ऐसा लगता नहीं कि इस मामले में उनका अपना दृष्टिकोण बिल्कुल स्पष्ट है।


उत्तर प्रदेश में उन्होंने सबसे ज्यादा समय लगाया, पर क्या कोई कह सकता है कि वहां के संगठन में बदलाव की कोई मौलिक पहल उन्होंने की? इसलिए वे जो कुछ कह रहे हैं, उसमें अच्छे इरादे की झलक तो मिलती है, लेकिन इरादे के साथ समस्याओं की सही और व्यापक समझ तथा निदान की वास्तविक कल्पना का ज्ञान भी होना जरूरी है। कांग्रेस के लिए राहुल के बयान के गहरे महत्व हैं। 10 जनपथ के रणनीतिकार और विश्वस्त उन्हें अगले प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर आगे बढ़ा रहे हैं। अगले लोकसभा चुनाव संबंधी उच्चस्तरीय समितियों की कमान उनके हाथों थमा दी गई है। जयपुर में उनके द्वारा उपाध्यक्ष पद ग्रहण करने के बाद मान लिया गया था कि नेतृत्व का पद अब औपचारिक रूप से हल हो गया है। अगर वे प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार होने के पक्ष में नहीं तो फिर कांग्रेस के शीर्ष रणनीतिकारों को मनमोहन का उत्तराधिकारी ढूंढ़ना होगा। यह काम आसान नहीं होगा। यकीन मानिए, अगर कांग्रेस पुन: सरकार बनाने की स्थिति में आती है तो नेता के चयन की जिम्मेवारी पार्टी सोनिया गांधी एवं उन्हें सौंप देगी और यह भी कि यथास्थितिवाद-पैराशूटवाद को कायम रखना होगा।


इस आलेख के  लेखक अवधेश कुमार हैं


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Tags: वंशवाद भारतीय राजनीति, प्रधानमंत्री, सोनिया गांधी, राहुल गांधी

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