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कर्ज माफी का मजाक

जागरण मेहमान कोना
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कर्ज माफी का मजाक 2009 के चुनाव से पहले कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने किसानों के कर्ज माफ करने की एक लोक लुभावनी योजना घोषित की थी। उस योजना का पूरा राजनीतिक लाभ भी उसे मिला। विदर्भ एवं अन्य इलाकों में हो रही किसान आत्महत्याओं की पृष्ठभूमि में कर्ज माफी की मांग देश भर से उठ रही थी। इस योजना की घोषणा के बाद लोगों को लगा कि जरूरतमंद सभी किसानों के कर्ज माफ होंगे, लेकिन कैग की ताजा रिपोर्ट ने इस योजना के अमल में हुए दोषों को उजागर कर दिया है और यह साबित कर दिया है कि जैसा सोचा था वैसा नहीं हुआ। जिनको लाभ मिलना चाहिए था नहीं मिला, जिनको नहीं मिलना चाहिए था उनको मिला और सरकारी खजाने को भारी भरकम नुकसान हुआ है।


कैग ने 3 करोड़ 72 लाख खातों में से 90 हजार खातों की पड़ताल की और उससे उन्होंने पाया कि 34 लाख किसान (13 प्रतिशत) जो योजना के फायदे के पात्र थे उन्हें एक पैसे का भी लाभ नहीं मिला। उनके कर्ज माफ नहीं हुए। कैग ने यह भी पाया कि 24 लाख (8 प्रतिशत) ऐसे लोगों को लाभ मिला जो लाभ के हकदार नहीं थे। इसका मतलब लगभग 20 फीसद की धांधली हुई। अगर योजना में 72 हजार करोड़ का आवंटन हुआ तो साफ है कि यह कृषि ऋण माफी घोटाला लगभग 15 हजार करोड़ का बनता है और यह अंदाजा है। जब सभी खातों की जांच पड़ताल होगी तब यह घोटाला 20 हजार करोड़ तक पहुंचने की आशंका है। दुख की बात यह है कि विदर्भ के क्षेत्र में आज भी आत्महत्याएं बदस्तूर जारी हैं। संप्रग सरकार की पहचान घोटालों से बनी है। पहले राष्ट्रमंडल खेल, फिर 2जी, फिर कोयला घोटाला, उसके बाद हेलीकॉप्टर खरीद घोटाला और अब यह नया कृषि ऋण घोटाला। इन घोटालों से सरकारी खजाने को भारी चपत लगी, भारत की साख गिरी।


ऐसी लूट आज तक कभी नहीं देखी गई। वित्तमंत्री पी. चिदंबरम कहते हैं कि यह घोटाला नहीं अनियमितता है, लेकिन यह सही नहीं है, क्योंकि कैग ने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा है कि दस्तावेजों के साथ खिलवाड़ हुआ है। उनके साथ छेड़छाड़ हुई है और आंकड़ों को बदल दिया है। लिखा हुआ मिटा कर झूठे आंकड़े और वर्णन किया गया है। चिदंबरम बताएं कि छेड़छाड़, फर्जी दस्तावेज और ऊपरी लेखन अगर घोटाला नहीं है तो घोटाला क्या होता है? इसलिए यह विषय केवल बैंकों की अंदरूनी समीक्षा पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए, बल्कि कोर्ट की निगरानी में सीबीआइ जांच कराई जानी चाहिए, तभी सच्चाई बाहर आएगी। प्रधानमंत्री कहते हैं कि लोक लेखा समिति इसकी समीक्षा करेगी, लेकिन लोक लेखा समिति कोई जांच एजेंसी नहीं है। वह व्यवस्था में क्या कमी रही और उसे कैसे दूर किया जाए, यह बताएगी, लेकिन जिन्होंने अपराध किया है उनको पकड़ना, उन्हें मिले अनुचित लाभ की वसूली करना, भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करना और दोषियों को दंडित करने के लिए उन पर मुकदमा कायम करना यह जांच एजेंसी का काम होता है, पीएसी का नहीं। वित्तमंत्री की दलीलें घोटालों पर पर्दा डालने की कोशिश मात्र है। इस घोटाले में क्या कुछ नहीं हुआ। लघु वित्तीय संस्थाओं को इस योजना से लाभ मिलने का कोई सवाल ही नहीं था, लेकिन हजारों करोड़ रुपये दिए गए हैं। दूसरी ओर कुछ गैर किसानों को करोड़ों रुपयों का अनुचित लाभ दिया गया है। ऐसे अनेक व्यक्तियों के पांच-पांच लाख रुपये के कर्ज भी माफ हुए हैं, जो कभी भी इस योजना का उद्देश्य नहीं था। इस योजना में शुरू से ही दो कमियां रही हैं। पहली तो यह कि जिन्होंने साहूकारों से कर्ज लिए उनको इस योजना का लाभ नहीं मिला। आज भी केवल 40 फीसद किसानों को वित्तीय संस्थाओं द्वारा ऋण उपलब्ध होता है। बाकी 60 फीसदी किसानों अपनी जरूरतों के लिए साहूकारों पर निर्भर रहते हैं। उनको इस योजना से कोई राहत नहीं मिली। दूसरी कमी यह रही कि जिन छोटे और मझले किसानों ने अपने ऋण बहुत कठिनाई की स्थिति में भी वापस किए, उन्हें भी इस योजना से कोई फायदा नहीं हुआ? यह अन्याय है और इसी कारण आज भी विदर्भ में किसान खुदकुशी कर रहे हैं। 1 जनवरी, 2013 से पिछले ढाई महीने में लगभग 65 आत्महत्याएं हुई हैं। एक बार की ऋण माफी के बाद भी किसान ऋण का बोझ झेल रहा है। यह इसलिए हो रहा है, क्योंकि किसान को अपनी उपज की सही कीमत नहीं मिल रही है। लागत का खर्चा लगातार बढ़ रहा है। खाद, बीज, दवाएं, बिजली, पानी, डीजल सब महंगे हो रहे हैं और न्यूनतम समर्थन मूल्य में मामूली बढ़ोतरी हो रही है। लागत और कीमत का फासला कम हो रहा है, इसलिए किसान को घाटा बढ़ रहा है। कृषि मूल्य आयोग के गेहूं और धान के लागत और समर्थन मूल्यों के आंकड़ों का अगर आकलन करें तो साफ होता है कि किसान कर्ज के बढ़ते बोझ तले दबा जा रहा है। इसलिए जरूरत है उसको लागत के आधार पर लाभकारी मूल्य देने की। स्वामीनाथन कमीशन ने इसका एक सूत्र दिया है-उनके अनुसार लागत खर्च से 50 फीसद ज्यादा समर्थन मूल्य होना चाहिए, तभी किसान को लाभकारी मूल्य मिलेगा। खेती लाभकारी होगी और किसान कर्ज के बोझ तले नहीं दबेगा। देखने की बात यह है कि इस सूत्र को स्वीकार करने की मांग मैंने हर सत्र में रखी और कांग्रेस सरकार ने हर बार उसे नामंजूर किया। सरकार की किसान विरोधी नीति की यह कहानी है।

इस आलेख के लेखक प्रकाश जावड़ेकर हैं

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