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याद रह गए वे लोग

जागरण मेहमान कोना
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सौ से अधिक किताबें लिख चुके नरेंद्र कोहली ने एक बार कहा था, जब तक शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ हूं, तब तक लिखते रहने का इरादा है। ऐसे दृढ़ इरादों वाले नरेंद्र कोहली की किताब छपी है स्मृतियों के गलियारे से। उन्हीं नरेंद्र कोहली को पिछले दिनों व्यास सम्मान से अलंकृत करने की घोषणा हुई है। यहां यह जानना दिलचस्प है कि आचार्य विष्णुकांत शास्त्री ने नरेंद्र कोहली को हिंदी अकादमी, दिल्ली का शलाका सम्मान दिए जाने की घोर वकालत न की होती तो शायद ही उन्हें वह सम्मान मिल पाता, क्योंकि अक्सर तुलसी पर लिखते हुए विद्वान आलोचक वाल्मीकि रामायण को तो भूल जाते हैं और नरेंद्र कोहली की रामकथा अभ्युदय पर बात करते हुए तुलसीदास की रामचरित मानस को नहीं भूल पाते और कोहली की मौलिकता पर सवालिया निशान लगाकर उन्हें खारिज कर देते हैं, जबकि आचार्य विष्णुकांत शास्त्री और सूर्यप्रसाद दीक्षित जैसे आचार्य उन्हें शलाका और व्यास सम्मान से सम्मानित करने लायक सहज ही समझ लेते हैं। अपनी ताजा किताब स्मृतियों के गलियारे में नरेंद्र कोहली ने कुछ यादगार वृत्तांत दर्ज किए हैं : अयोध्या में राम मंदिर को लेकर संसद में कोलाहल हो रहा था। सारे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सांसद भारतीय जनता पार्टी का विरोध करने के बहाने राम मंदिर का विरोध कर रहे थे और मंदिर की निंदा की ओट में राम जी की निंदा हो रही थी।


सहसा शास्त्री जी आवेश में आ गए और उन सारे महारथियों से अकेले ही लोहा लेने के लिए भिड़ गए। वे इतने आवेश में थे कि सुषमा स्वराज आशंकित हो उठीं। उन्होंने उन्हें शांत करने का प्रयास किया तो शास्त्री जी बोले, वे मेरे राम की निंदा कर रहे हैं और मैं चुपचाप सुनता रहूं। कोहली लिखते हैं कि मृदुभाषी और शांत शास्त्री जी का यह रूप देखकर कोई भी समझ सकता है कि अपने मान-अपमान की चिंता न करने वाले शास्त्री जी सिद्धांतों, आदर्शो और अपने आदर्श पुरुषों की अवहेलना और उपेक्षा नहीं सह सकते थे। मेरे मन में स्वामी विवेकानंद के जीवन की कुछ घटनाएं उभरती हैं, जहां वे अपने मान-अपमान, महत्व, उपेक्षा, निंदा-स्तुति की तनिक भी चिंता नहीं करते, किंतु भारत माता, भारतीय धर्म और भारतीय संस्कृति के सम्मान की रक्षा के लिए संघर्ष की किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। अमेरिका में जब एक नीग्रो ने उन्हें अपना जाति भाई मानकर उनसे हाथ मिलाना चाहा तो उन्होंने सहर्ष उसकी इच्छा पूरी की। जब लोगों ने पूछा कि आपने उसे क्यों नहीं बताया कि आप नीग्रो नहीं, भारतीय हैं, तो उनका उत्तर था कि वे किसी और को नीच और स्वयं को उच्च बताने के लिए संसार में नहीं आए हैं, किंतु जब वे भारत लौटते हुए जलपोत के डेक पर खड़े थे और एक पादरी मना करने पर भी हिंदू धर्म की निंदा करता चला जा रहा था, तो स्वामी जी क्रुद्ध होकर बोले कि यदि तुम अब भी चुप नहीं हुए तो उठाकर समुद्र में फेंक दूंगा। उनका क्रोध और शारीरिक बल देखकर पादरी चुपचाप खिसक गया। लेखन यात्रा में नरेंद्र कोहली को विष्णुकांत शास्त्री जैसे अनेक लोग मिले, जिन्होंने अपने व्यक्तित्व से उन पर गहरा प्रभाव डाला, कुछ इतना और ऐसा, जिसे वे भूल नहीं पाए और उसे कागज पर उतार दिया। उनकी वैसी रचनाएं ही स्मृतियों के गलियारे में संग्रहीत हैं, जिनमें एक तरफ विष्णुकांत शास्त्री जैसे सर्जक-राजनेता हैं तो दूसरी तरफ बाबा नागार्जुन जैसे फक्कड़ कवि। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर हैं तो प्रसिद्ध आलोचक में डॉ. नगेंद्र भी।


इन बड़े-बड़े नामों के साथ अनेक अल्प ज्ञात लोगों पर भी कोहली ने बड़े मन से लिखा है। इतना ही नहीं, उन्होंने औरों के साथ खुद को भी अपनी नजर से देखा और अपने बारे में भी पाठकों को काफी कुछ बताया है। 6 जनवरी, 1940 को अविभाजित पंजाब के सियालकोट में जन्मे कोहली की शिक्षा-दीक्षा रामजस कॉलेज में हुई, जहां से उन्होंने हिंदी में एम.ए. किया और फिर पीएचडी हासिल की। प्राध्यापक होकर पहले डीएवी कॉलेज से जुड़े और फिर मोतीलाल नेहरू कॉलेज से संबद्ध होकर छात्रों का ज्ञानवर्धन करते हुए सृजनात्मक लेखन भी करते रहे। और फिर पचपन वर्ष की उम्र में स्वैच्छिक अवकाश ग्रहण कर पूर्णकालिक लेखक हो गए। नरेंद्र कोहली के नियमित लेखन-प्रकाशन का सिलसिला फरवरी, 1960 में प्रकाशित कहानी दो हाथ से हुआ, जो इलाहाबाद से छपने वाली श्रीपतराय की पत्रिका कहानी में छपी थी। उपन्यास, कहानी, नाटक, व्यंग्य और निबंध आदि साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लिखते रहे नरेंद्र कोहली की महत्वाकांक्षी उपन्यास श्रृंखला तोड़ो कारा, तोड़ो के सातवें खंड में विवेकानंद देशवासियों को संदेश देते हैं कि हमें हर तरह के दमन से खुद को मुक्त करना है, वह चाहे पारिवारिक स्तर पर हो रहा हो या फिर सामाजिक या सत्ता के स्तर पर। दमित जीवन जीने से बेहतर है कि अनुशासित जीवन जीने की कोशिश की जाए। कोहली पारिवारिक और सामाजिक विषयों पर आधारित कथाओं का सृजन करते रहे, पर उन्हें कुछ खास हासिल नहीं हुआ। लेकिन, जब रामकथा पर आधारित उपन्यास अभ्युदय छपा तो पाठकों ने उसका भरपूर स्वागत किया। फिर कृष्णकथा पर आधारित अभिज्ञान आया, जिसकी कथा धार्मिक कम, राजनीतिक ज्यादा है, जिसमें निर्धन सुदामा को साम‌र्थ्यवान कृष्ण द्वारा सार्वजनिक रूप से मित्र स्वीकार किए जाते ही सामाजिक जीवन में सुदामा की साख अपने आप बढ़ गई। आज भी ऐसा ही नहीं हो रहा क्या!


इस आलेख के लेखक बलराम हैं


Tags: रामधारी सिंह दिनकर, सामाजिक या सत्ता, उपन्यास, पारिवारिक

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