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शावेज के बाद लाल ठिकाना बचाने की चुनौती

जागरण मेहमान कोना
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पूंजीवाद की आंधी में समाजवाद का झंडा मजबूती से थामने वाले वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज का असामयिक निधन समाजवादियों के लिए किसी सदमे से कम नहीं है। यह भारत के लिए भी एक झटके की भांति है, क्योंकि सऊदी अरब और ईराक के बाद वेनेजुएला भारत को तेल आपूर्ति करने वाला तीसरा सबसे बड़ा देश है। अब यह देखना है कि शावेज के उत्तराधिकारी निकोलस मादुरो कैसा रुख अख्तियार करते हैं। दुनिया शावेज के बारे में चाहे जो कहे, लेकिन वेनेजुएला में उनकी लोकप्रियता का कोई सानी नहीं है। यही कारण है कि कैंसर से जूझते हुए भी उन्होंने चुनाव जीतने में सफलता हासिल की। हालांकि छह साल के अपने दूसरे कार्यकाल के लिए वे 10 जनवरी को शपथ ग्रहण नहीं कर पाए थे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने शपथ ग्रहण करने में बेमियादी विलंब को मंजूर कर लिया था। शावेज ने लोकप्रियता का यह मुकाम एक दिन में हासिल नहीं किया था, बल्कि इसके लिए उन्हें बहुत पापड़ बेलने पड़े थे। वर्ष 1971 में सेना में भर्ती होने के बाद शावेज गोपनीय तरीके से असंतुष्ट सैनिकों का एक नेटवर्क तैयार करने में जुट गए। फरवरी 1992 में उन्होंने राष्ट्रपति कार्लोस पेरेज के खिलाफ तख्तापलट की नाकाम कोशिश की। इससे शावेज को एक नेता के रूप में पहचान मिली।


तख्तापलट की कोशिश के लिए उन्हें 30 साल की सजा हो सकती थी, लेकिन आगामी राष्ट्रपति ने उन्हें मुकदमा शुरू होने से पहले माफी दे दी। इसके बाद उन्होंने पांचवां गणतंत्र आंदोलन शुरू किया, लेकिन बाद में उसे वेनेजुएला की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी बना डाला। इस पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में अमेरिकी पूंजीवाद पर सीधा प्रहार शुरू किया, जिससे उसकी लोकप्रियता तेजी से बढ़ी। इसी लोकप्रियता ने शावेज को 1998 में देश में मची राजनीतिक उथल-पुथल के बीच राष्ट्रपति के पद तक पहुंचा दिया। बड़ी उपलब्धि सत्ता में आने के बाद शावेज ने सामाजिक नीतियों में क्रांतिकारी बदलावों को लागू करना शुरू किया। उन्होंने देश के खनिज तेल क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण कर पश्चिमी देशों की कई बड़ी तेल कंपनियों को पहले से ज्यादा रॉयल्टी देने पर मजबूर किया। इससे हासिल पैसों को शिक्षा, स्वास्थ्य, पेंशन, गरीबी उन्मूलन जैसे सामाजिक कल्याण की योजनाओं में खर्च किया जाने लगा। उन्होंने तेल के बदले क्यूबा की चिकित्सा और स्वास्थ्य क्षेत्र की विशेषज्ञता हासिल की, जिसका सीधा फायदा देश के गरीबों को मिला। डॉक्टरों की संख्या में चार गुना बढ़ोतरी हुई। शिशु मृत्यु् दर आधी रह गई और कुपोषण का नामोनिशान नहीं रह गया। उन्होंने 2001 में बेकार पड़ी जमीन के इस्तेमाल के लिए भूमि सुधार नीति को लागू किया। इसके तहत सरकार ने 50 लाख हेक्टेयर जमीन किसानों और चरवाहों में बांटी। इन उपायों से वेनेजुएला में अमीरी-गरीबी की खाई में कमी आई। अपने 14 वर्ष के शासन काल में शावेज ने न केवल अमेरिकी प्रभुत्व को सफल चुनौती दी, बल्कि वेनेजुएला के करोड़ों गरीबों को नई जिंदगी भी दी। शावेज ने लैटिन अमेरिका के लोगों की साझा पहचान को बढ़ावा देना शुरू किया और उन्हें भावनात्मक रूप से अमेरिका के विरोध में खड़ा किया। जिस समय अमेरिकी पूंजीवाद लैटिन अमेरिकी देशों में शासन का सर्वोत्तम मॉडल माना जा रहा था, उस समय यह एक बड़ी उपलब्धि थी। ह्यूगो शावेज दो टूक बोलते थे। उनके भाषण ज्यादातर अमेरिका और पूंजीवाद के खिलाफ होते थे। इस प्रकार पूंजीवाद पर निशाना साधते हुए शावेज ने दुनिया भर के वामपंथियों को अपने पक्ष में किया। पूंजीवाद के वे कट्टर विरोधी थे। उन्होंने एक बार यहां तक कह दिया कि मंगल ग्रह पहले आबाद था, लेकिन बाद में वहां पूंजीवादी और साम्राज्यवादी ताकतें फैल गई। इसलिए उस ग्रह की सभ्यता नष्ट हो गई। इस प्रकार शावेज लैटिन अमेरिका में कट्टरपंथी वामपंथ का चेहरा बन गए थे। इतना ही नहीं, उन्होंने अमेरिका विरोधी देशों मसलन सीरिया, लीबिया और ईरान से अच्छे रिश्ते बना लिए थे। इसीलिए वे अमेरिका की आंख की किरकिरी बन गए। हालांकि अमेरिका के साथ तनावपूर्ण संबंध होने के बावजूद शावेज ने उसे रोजाना 10 लाख बैरल तेल का निर्यात करना जारी रखा था। शावेज की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं को देखते हुए अमेरिका उन्हें सत्ता से बेदखल करने में जुट गया। वर्ष 2002 में एक विद्रोह के जरिये शावेज को सत्ता से बेदखल भी कर दिया गया, लेकिन 2006 में सशक्त नेता के रूप में उभरते हुए उन्होंने फिर राष्ट्रपति चुनाव जीत लिया। यही कहानी 2012 में भी दोहराई गई। ह्यूगो शावेज की कैंसर से हुई मौत को भी कई लोग अमेरिका की साजिश का नतीजा मानते हैं। भारत का हित भारत के लिए शावेज का महत्व कम नहीं था। आज वेनेजुएला भारत को उसकी जरूरत का 11 फीसद तेल आपूर्ति कर रहा है तो यह शावेज की भारतपरस्त नीतियों का ही नतीजा है। उदाहरण के लिए 2005-06 में भारत को वेनेजुएला से दैनिक आपूर्ति महज 6 हजार बैरल थी, जो अब 4 लाख बैरल से भी ज्यादा है। आज कई भारतीय तेल कंपनियां वेनेजुएला में संयुक्त उद्यम स्थापित कर तेल खोज के अभियान में जुटी हुई हैं। चूंकि वेनेजुएला के कच्चे तेल में सल्फर की मात्रा अधिक पाई जाती है, इसलिए वह ब्रेंट क्रूड की तुलना में 2 से 4 डॉलर प्रति बैरल सस्ता पड़ता है। इसी का फायदा उठाने के लिए देश के तटीय क्षेत्रों में कई रिफाइनरियां स्थापित की गई हैं, जिससे भारत तेल शोधन धुरी बनकर उभरा है। इसीलिए भारत वेनेजुएला के घटनाक्रमों पर निगाह रखे हुए है और उसे उम्मीद है कि एक महीने के भीतर होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में शावेज के उत्तराधिकारी निकोलस मादुरो ही विजयी बनेगें। भले ही ह्यूगो शावेज करिश्माई नेता थे, लेकिन उनकी नीतियां लोकलुभावन वाली ज्यादा थीं। यही कारण है कि उनके शासन काल में आधारभूत ढांचे में निवेश न के बराबर हुआ। इस दौरान गरीबों की दशा में सुधार जरूर आया, लेकिन पहले की तरह आधी से ज्यादा आबादी गरीब है।


भूमि सुधार के बावजूद 70 फीसद खाद्य सामग्री आयात की जाती है और अर्थव्यवस्था वैश्विक बाजार में खनिज तेल के दाम पर निर्भर है। देश में नियंत्रित बाजार और कानूनी सुरक्षा के अस्त-व्यस्त होने से वित्तीय क्षेत्र बेकार हो गया है। शावेज भ्रष्टाचार और संगठित अपराध से निपटने में भी असफल रहे। गरीबों के लिए सुविधाओं का पिटारा खोलने का एक घातक नतीजा मुफ्तखोरी के रूप में सामने आया। यही कारण है कि वेनेजुएला में मुद्रास्फीति की दर 25 फीसद है, जो लैटिन अमेरिका में सबसे ज्यादा है। हाल ही में उसने अपनी मुद्रा का 32 फीसद अवमूल्यन भी किया, जो उसके सरकारी खजाने की बदहाली को दर्शाता है। इन सीमाओं के बावजूद ह्यूगो शावेज ने एक ऐसे दौर में गरीबों-वंचितों की आवाज को बड़ी शिद्दत से उठाया, जब समाजवाद का सूर्यास्त हो रहा था और दुनिया भर में वैश्वीकरण-उदारीकरण की आंधी बह रही थी। फिर उन्होंने आम वामपंथियों की भांति केवल बातें नहीं की, बल्कि उन पर अमल भी करके दिखाया। सोवियत संघ के विघटन और पूंजीवाद के आगे घुटने टेकते समाजवाद के दौर में क्यूबा के क्रांतिकारी नेता फिदेल कास्त्रो ने जिस तरह साम्यवादी संघर्ष की विजयी संभावना को जिंदा किए रखा, शावेज संघर्ष की उस विरासत की समकालीन कड़ी थे। शावेज के निधन के बाद यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि साम्यवादी संघर्ष के लाल ठिकाने दुनिया के मानचित्र पर अपनी मौजूदगी कहां-कहां और कैसे बचाए रख पाते हैं।

इस आलेख के लेखक रमेश दुबे हैं


Tags: तख्तापलट, पूंजीवाद, साम्यवादी संघर्ष, उत्तराधिकारी

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