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आडवाणी का आकलन

जागरण मेहमान कोना
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किसी संगठन या व्यक्ति के जीवन में ऐसे अवसर कम आते हैं जब जमाना उसकी मदद करना चाहे और वह अपना नुकसान करने पर आमादा हो। देश के मुख्य विपक्षी दल भाजपा का हाल कुछ ऐसा ही है। भाजपा की हालत पर एक मित्र की टिप्पणी थी कि इस पार्टी के समर्थक बहुत हैं पर मतदाता कम हैं। इस टिप्पणी के दो दिन बाद ही पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी का एक अंग्रेजी पत्रिका में इंटरव्यू छपा कि लोग कांग्रेस के खिलाफ तो हैं, लेकिन भाजपा से भी निराश हैं। उनका कहना है कि एक समय था जब लोग हमारे अनुशासन की तारीफ करते थे। आज लोगों को लगता है कि भाजपा आपसी मतभेद वालों की पार्टी है। आडवाणीजी ने यह नहीं बताया कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है। पार्टी की यह हालत एक दिन में तो हुई नहीं। पार्टी जब इस पतन के रास्ते पर बढ़ रही थी तो वह क्या कर रहे थे।


लालकृष्ण आडवाणी जो कह रहे हैं वह गलत नहीं है। इस समय देश में कांग्रेस के खिलाफ जिस तरह का माहौल है उस अनुपात में भाजपा के पक्ष में हवा नजर नहीं आती। वास्तविकता यह भी है कि यह बात भाजपा के विरोधी नहीं उसके सबसे वरिष्ठ नेता कह रहे हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि आडवाणी ने सक्रिय राजनीति से संन्यास नहीं लिया है। प्रधानमंत्री बनने की उनकी महत्वाकांक्षा अभी मरी नहीं है। ऐसे में अपनी ही पार्टी के खिलाफ माहौल तैयार करके वह क्या हासिल करना चाहते हैं। अब यह किसी से छिपा नहीं है कि नितिन गडकरी को पार्टी अध्यक्ष के रूप में वह कभी स्वीकार नहीं कर पाए। वैसे स्वीकार तो वह राजनाथ सिंह को उनके पहले कार्यकाल (दूसरे कार्यकाल के समय भी उनकी पसंद के लोगों की सूची में राजनाथ सिंह का नाम नहीं था) में भी नहीं कर पाए थे। सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू और अनंत कुमार के अलावा उन्हें कोई स्वीकार होगा इसमें शक है, पद कोई भी हो। लालकृष्ण आडवाणी कहना है कि कर्नाटक के मुद्दे को ठीक से सुलझाया नहीं गया। उनके मुताबिक उस दौरान ऐसा लगा कि भाजपा भ्रष्टाचार के प्रति नरम है। राजग सरकार में जब अनंत कुमार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे तो आडवाणी चुप क्यों रहे। क्या भाजपा में येद्दयुरप्पा के अलावा सब हरिश्चंद्र हैं। क्या उन्हें पता नहीं है कि भाजपा शासित राज्यों में कौन-सा नेता अपने राज्य के ठेकेदारों को भेजता है। आडवाणीजी को अपने आसपास का भ्रष्टाचार क्यों नजर नहीं आता। बाबूलाल मरांडी जैसा ईमानदार नेता पार्टी छोड़कर क्यों चला गया।


बाबूलाल मरांडी के साथ वह क्यों नहीं खड़े हुए। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि लालकृष्ण आडवाणी को येद्दयुरप्पा के भ्रष्टाचार से परेशानी है या उनकी नरेंद्र मोदी से करीबी से कष्ट। नरेंद्र मोदी अच्छे हैं या बुरे, उनमें प्रधानमंत्री बनने की योग्यता है या नहीं या फिर पार्टी को उन्हें प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करना चाहिए या नहीं, इन सवालों पर बहस हो सकती है। पर एक बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि भाजपा का कार्यकर्ता सिर्फ नरेंद्र मोदी की ओर उम्मीद की नजर से देख रहा है। वह किसी और नेता का नाम भी सुनने को तैयार नहीं है। भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय परिषद का माहौल देखकर पार्टी के विरोधियों को भी जो नजर आ रहा था वह जीवन के पचासी वसंत देख चुके आडवाणी को नजर नहीं आया। ऐसे समय जब पूरी पार्टी नरेंद्र मोदी की जयकार कर रही थी, तब लालकृष्ण आडवाणी को सुषमा स्वराज में अटल बिहारी वाजपेयी नजर आ रहे थे। सुषमा स्वराज बेशक बहुत प्रभावी वक्ता हैं। चुनाव के दौरान उम्मीदवारों की ओर से उनके कार्यक्रम की मांग सबसे ज्यादा होती है। पर क्या उनकी तारीफ के लिए यह आखिरी मौका था। भारतीय जनता पार्टी और संघ ने 2009 के लोकसभा चुनाव में आडवाणी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किया था। देश के मतदाता ने आडवाणी के नेतृत्व को स्वीकार नहीं किया। चुनाव के नतीजे आने के बाद उन्होंने चुनावी राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा कर दी पर वह अपने इस फैसले पर टिक नहीं पाए। उसके बाद से इस राम रथी का राजनीतिक आकलन गड़बड़ा गया है। जीवन के दूसरे क्षेत्रों की ही तरह राजनीति में भी सच की अहमियत है। पर राजनीति में सच बोलते समय भी इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि अवसर क्या है। लालकृष्ण आडवाणी के पास अपनी नाराजगी जाहिर करने के लिए पार्टी के सारे मंच उपलब्ध हैं। फिर भी वह ऐसी बातें सार्वजनिक रूप से बोल रहे हैं तो उसके पीछे की राजनीतिक मंशा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। नितिन गडकरी को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में दूसरा कार्यकाल न मिलने पर संघ के एक वरिष्ठ नेता और विचारक की टिप्पणी थी कि भाजपा को नियति ने बचा लिया। सवाल है कि आडवाणी को कौन बताएगा कि उनकी बेवक्त की शहनाई भाजपा के लिए मातम की धुन बन कर सुनाई दे रही है। वह जब बार-बार सुषमा स्वराज का नाम आगे बढ़ाते हैं तो उन्हें एक खेमे में खड़ा कर देते हैं। वह अपने बयानों से पार्टी में सुषमा स्वराज के नेतृत्व की स्वीकार्यता बढ़ा नहीं रहे। उनके ऐसे बयानों से वही संदेश मिल रहा है कि पार्टी के अंदर खेमे हैं। यह भी कि आडवाणी नरेंद्र मोदी की राष्ट्रीय भूमिका के मुद्दे पर पार्टी के बहुमत से अलग राय रखते हैं। दरअसल आडवाणी की समस्या यह है कि वह रेफरी और खिलाड़ी की भूमिका एक साथ चाहते हैं। वह रेफरी की भूमिका में रह कर ये बातें बोलते तो उसका अच्छा प्रभाव पड़ता। किसी एक पक्ष में खड़े होकर निष्पक्षता के दावे में दम नहीं रह जाता। समय आ गया है कि वह खुद तय करें कि उन्हें पार्टी में क्या भूमिका चाहिए। प्रधानमंत्री बनने की इच्छा अभी मन में है तो खम ठोंककर मैदान में उतरें। सुषमा स्वराज के कंधे से बंदूक चलाना बंद करें। वह ऐसा नहीं करते हैं तो भाजपा को नरेंद्र मोदी की राष्ट्रीय भूमिका के साथ पार्टी में आडवाणी की भूमिका भी तय कर देनी चीहिए। क्या भाजपा के मौजूदा नेतृत्व में ऐसा करने का राजनीतिक साहस है?


इस आलेखक के लेखक प्रदीप सिंह हैं


Tags: आडवाणी, खिलाड़ी की भूमिका, सुषमा स्वराज, राष्ट्रीय भूमिका,मोदी

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