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बदलाव का दिखावटी संकल्प

जागरण मेहमान कोना
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urmileshकांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी कह रहे हैं कि उनकी रुचि फिलहाल न शादी करने में है और न ही प्रधानमंत्री बनने में। उनका सपना है संगठन को मजबूत बनाना और पार्टी का लोकतांत्रीकरण करना। पिछले दिनों अपनी पार्टी के कुछ सांसदों और पत्रकारों के बीच कही उनकी बातों पर गौर करें तो लगता है कि वह कांग्रेस को पूरी तरह बदलना चाहते हैं और इस तरह प्रशासन के तौर-तरीके और देश को भी। सवाल है कि कांग्रेस किसके लिए बदलेगी और समाज में सकारात्मक बदलाव की वाहक कैसे बनेगी। 1885 से लेकर आज तक कांग्रेस समय-समय पर बदलती रही है। कभी अच्छे बदलाव के दौर से गुजरी है तो कभी नकारात्मक। सबसे अधिक इसे महात्मा गांधी ने बदला।


1915 में दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश वापसी के बाद उन्होंने बड़े घरों के विलायत से लौटे युवा अधिवक्ताओं, आजादी चाहने वाले बुद्धिजीवियों और देशभक्तों की कांग्रेस को आम जन से जोड़ने का अभियान तेज किया। 1937 में असेंबली चुनावों में जीत के बाद ब्रिटिश हुकूमत में ही उसने प्रशासन के गुर सीखे। इसी दौर में उसकी सदस्यता लाखों की हुई। आजादी के तत्काल बाद गांधी ने इस फली-फूली पार्टी को खत्म करने का सुझाव दिया, पर कांग्रेस नेताओं ने उनकी नहीं सुनी। महात्मा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस एक बार फिर बदलती नजर आई। अब वह पूरी तरह पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे बौद्धिक व्यक्तित्व की छाया में थी। आजादी के आंदोलन की पार्टी सत्ता में आकर लगातार बदलती नजर आई। अगस्त 1953 में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की गुलमर्ग के एक गेस्टहाउस से रातों-रात गिरफ्तारी व बर्खास्तगी और फिर जुलाई 1959 में केरल की पहली वामपंथी सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाने में भी बदलाव की प्रक्रिया साफ देखी गई। केरल के घटनाक्रम में इंदिरा गांधी खुद कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष थीं और उनके पिता प्रधानमंत्री। मध्यवर्ग और उच्चवर्ग के नेताओं का अपना लोकतंत्र था। उनके सामने किसी तरह की बड़ी चुनौती नहीं थी। नेहरू युग के बाद फिर कांग्रेस के लिए 1969-71 का समय महत्वपूर्ण रहा। इसी दौर में इंदिरा गांधी ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसे कई कदम उठाए, लेकिन बांग्लादेश निर्माण के बाद 1972-74 के दौरान इंदिरा गांधी नए रूप में उभरीं और उसकी परिणति आपातकाल के रूप में सामने आई। इससे सिर्फ देश के लोकतंत्र को ही ठेस नहीं पहुंची, बल्कि कांग्रेस में लोकतांत्रीकरण की गुंजाइश भी नष्ट हो गई। आपातकाल से पहले ही पार्टी और सरकार के भीतर लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और संस्थाओं पर उन्होंने और उनकी टीम के युवा सदस्यों खासकर उनके बेटे संजय गांधी ने निशाना साधा। राहुल गांधी ने बार-बार संकेत दिए कि वह अपनी दादी की राजनीति से अच्छी तरह वाकिफ हैं, पर वह उनके नकारात्मक पक्ष को खारिज नहीं करते। उलटे वह उन्हें मजबूरी में उठाए कदम बताकर सही ठहराने की कोशिश करते रहे हैं।


क्या इससे राहुल के कांग्रेस के लोकतांत्रीकरण के एजेंडे और उनके सांगठनिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य पर कोई रोशनी पड़ती है? कोरी राजनीतिक-सैद्धांतिकता के बजाय हम चंद उदाहरणों से बात करें तो अच्छा होगा। उनके पार्टी महासचिव रहते हुए कई राज्यों में नए पार्टी अध्यक्ष, मुख्यमंत्री और अन्य पदों पर नियुक्तियां हुईं। क्या पिछले विधानसभा चुनावों के बाद उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के तौर पर विजय बहुगुणा की नियुक्ति लोकतांत्रिक-पारदर्शी प्रक्रिया के तहत हुई थी? क्या हरीश रावत के पक्ष में ज्यादा विधायक नहीं थे? राहुल पार्टी में वंशवाद पर भी अंकुश लगाने की बात कर रहे हैं। यह भी एक कारण है कि वह शादी नहीं करना चाहते। फिर उत्तराखंड के पिछले संसदीय उपचुनाव में स्थानीय कांग्रेसियों के भारी विरोध के बावजूद मुख्यमंत्री के बेटे साकेत बहुगुणा को टिकट कैसे मिल गया? केंद्र और सूबों की सियासत में इस तरह के न जाने कितने कुमार पूरी ताकत से जमे हुए हैं और अब राहुल कह रहे हैं कि वह पार्टी के कामकाज में पारदर्शिता लाएंगे और हाईकमान की संस्कृति खत्म करेंगे। कांग्रेस में हाईकमान संस्कृति की जड़ें बहुत गहरी हैं। वह सिर्फ बुरे दिनों की ही नहीं स्वर्णिम दिनों की भी विरासत है। आज की असलियत कुछ और है। कांग्रेस ही नहीं देश की ज्यादातर पार्टियों में असहमति और वैचारिक मतभेद के लिए कितनी जगह बची है? क्या किसी साधारण राजनीतिक कार्यकर्ता के लिए पार्टियों की शीर्ष समितियों में कोई जगह है? इसका असर शासन और समाज के अन्य क्षेत्रों में भी साफ दिखाई देता है। सरकारों के कार्यसंचालन में भी लोकतांत्रिक विषयवस्तु गायब होती गई है। इसी संप्रग सरकार में एक समय पेट्रोलियम मंत्री रहे दो दिग्गज कांग्रेसियों मणिशंकर अय्यर और जयपाल रेड्डी के उक्त मंत्रालय से हटाए जाने की असल कहानी राहुल गांधी को कैसे नहीं मालूम होगी, तनिक-सी असहमति या मतभेद के बाद पत्ता साफ हो जाता है यहां। यह सिर्फ कांग्रेस की ही कहानी नहीं है। हमारे समाज में भी वैचारिक और निजी स्तर पर असहिष्णुता का दायरा लगातार बढ़ता गया है। इसकी जिम्मेदारी कांग्रेस को आगे आकर लेनी चाहिए, क्योंकि सबसे अधिक दिनों तक उसी ने देश पर राज किया। इन सारे तथ्यों और पहलुओं के बावजूद कांग्रेस के लोकतांत्रीकरण के राहुल गांधी के एजेंडे का स्वागत होना चाहिए, लेकिन वह सिर्फ बयान दे रहे हैं, सपने बुन रहे हैं। अभी तक उन्होंने इसका कोई रोडमैप नहीं दिया है कि वह इन सपनों को साकार करने के लिए कौन-से कदम उठाएंगे। आखिर देश कब तक इंतजार करे?

इस आलेखक के लेखक उर्मिलेश हैं


Tags: कांग्रेसियो, मणिशंकर अय्यर, जयपाल रेड्डी, मंत्रालय, कांग्रेस

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